Sunday, 6 October 2013

BREAKING NEWS:चैनलों में छंटनी-पत्रकारों को नौकरी से निकाला, न्यूज चैनलों के न्यूजरूम में घबराहट,बेचैनी और आतंक का माहौल:Network-18(IBN,IBN 7,CNN,AWAJ) 350 Employee,NDTV 100 Employee, AAJ TAK-TV TODAY 24 Employee, Out Look 120 Employee, Other Small channel Approx 250 employee Are fired

BREAKING NEWS:चैनलों में छंटनी-पत्रकारों को नौकरी से निकाला, न्यूज चैनलों के न्यूजरूम में घबराहट,बेचैनी और आतंक का माहौल:Network-18(IBN,IBN 7,CNN,AWAJ)  350 Employee,NDTV 100 Employee, AAJ TAK-TV TODAY 24 Employee, Out Look 120 Employee, Other Small channel Approx 250 employee Are fired


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चैनलों में छंटनी पत्रकारों को नौकरी से निकाला, न्यूज चैनलों के न्यूजरूम में घबराहट,बेचैनी और आतंक का माहौल:

Network-18(IBN,IBN 7,CNN,AWAJ)  350 Employee,
NDTV 100 Employee, 
AAJ TAK-TV TODAY 24 Employee, 
Out Look 120 Emplyee, 
Other Small channel Approx 250 employee  are fired




पत्रकारों की छंटनी मुद्दा क्यों नहीं है?
इन दिनों न्यूज चैनलों के अंदर काम करनेवाले पत्रकारों में घबराहट, बेचैनी और आतंक का माहौल है. हालाँकि चैनलों को देखते हुए आपको बिलकुल अंदाज़ा नहीं लगेगा लेकिन सच यह है कि चैनलकर्मियों में इन दिनों अपनी नौकरी की सुरक्षा, वेतन और सेवा शर्तों और भविष्य को लेकर असुरक्षाबोध बहुत अधिक बढ़ गया है.
इसकी वजह यह है कि पिछले कुछ महीनों में न्यूज चैनलों में पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मियों (जैसे कैमरामैन, वीडियो एडिटर, रिसर्चरों आदि) की लगातार छंटनी हो रही है. लेकिन महीने भर पहले जिस तरह से नेटवर्क-१८ समूह (सी.एन.एन-आई.बी.एन, आई.बी.एन-७, सी.एन.बी.सी, आवाज़) से एक झटके में ३५० से ज्यादा पत्रकारों और गैर पत्रकार कर्मियों की छंटनी हुई है, उससे यह घबराहट और बेचैनी बहुत ज्यादा बढ़ गई है.
हालाँकि सबकी खबर लेनेवाले किसी भी चैनल पर आपने यह ‘खबर’ नहीं देखी होगी या इक्का-दुक्का अखबारों और कुछ स्वतंत्र मीडिया पोर्टलों को छोड़कर मुख्यधारा के ज्यादातर अखबारों ने भी इस ‘खबर’ को छापने लायक नहीं समझा.
ध्यान देनेवाली बात यह है कि ये वही न्यूज चैनल या अखबार हैं जिन्होंने कुछ साल पहले किंगफिशर एयरलाइन में कोई १५० एयर हास्टेस और एयरलाइन कर्मियों की छंटनी को सुर्खी बनाने में देर नहीं की थी. सवाल यह है कि न्यूज चैनलों/अखबारों के लिए टी.वी पत्रकारों/कर्मियों की इतनी बड़ी संख्या में छंटनी की ‘खबर’ एयरलाइन कर्मियों की छंटनी की खबर की तुलना में कम महत्वपूर्ण क्यों है कि उसे १० सेकेण्ड की फटाफट खबर या स्क्रोल के लायक भी नहीं माना गया?
यही नहीं, जब कुछ युवा पत्रकारों ने टी.वी-१८ के पत्रकारों की मनमानी छंटनी के विरोध में पत्रकार एकजुटता मंच (जर्नलिस्ट सोलिडारिटी फोरम) गठित करके सी.एन.एन-आई.बी.एन के फिल्म सिटी, नोयडा स्थित दफ्तर पर प्रदर्शन किया तो उसकी भी कोई ‘खबर’ चैनलों में दिखाई नहीं दी या किसी अखबार में नहीं छपी.
हैरानी की बात यह है कि कोई १५० से ज्यादा युवा और वरिष्ठ पत्रकारों ने इस प्रदर्शन में हिस्सा लिया और वे नारे लगाते हुए पूरे फिल्म सिटी के इलाके में घूमे लेकिन चैनलों/अखबारों ने इसे ‘खबर’ लायक नहीं माना. मजे की बात यह है कि फिल्म सिटी में ज्यादातर हिंदी/अंग्रेजी न्यूज चैनलों के दफ्तर हैं और उस दिन चैनलों के न्यूज रूम में पत्रकारों-संपादकों के बीच दबे-छुपे इसी प्रदर्शन की चर्चा हो रही थी.
लेकिन इसका पर्याप्त कवरेज तो दूर, किसी टी.वी बुलेटिन या अखबारों ने नोटिस तक नहीं लिया. गोया ऐसा कोई विरोध प्रदर्शन हुआ ही नहीं हो. हालाँकि पत्रकारों की ओर से लंबे अरसे बाद ऐसा कोई विरोध प्रदर्शन हुआ था जिसमें टी.वी के पत्रकारों/कर्मियों ने छंटनी के खिलाफ आवाज़ उठाई थी.
हैरानी की बात नहीं है कि नेटवर्क-१८ समूह के बाद अंग्रेजी बिजनेस न्यूज चैनल ब्लूमबर्ग टी.वी में भी लगभग ४० पत्रकारों की छंटनी हुई लेकिन इक्का-दुक्का अखबारों को छोड़कर इसकी ‘खबर’ कहीं नहीं छपी या दिखी. बात सिर्फ दो चैनलों की नहीं है. नेटवर्क-१८ से पहले पिछले एक साल में एन.डी.टी.वी के मुंबई ब्यूरो और दिल्ली मुख्यालय से लगभग १०० पत्रकारों/टी.वी कर्मियों और टी.वी टुडे (आज तक, हेडलाइंस टुडे) में लगभग दो दर्जन से अधिक पत्रकारों को नौकरी गंवानी पड़ी है.
यही नहीं, पिछले वर्षों में शुरू हुए छोटे-मंझोले न्यूज चैनलों में से कई बंद हो गए हैं या कई मरणासन्न हालत में हैं जिनके कारण कम से कम २५० से ज्यादा पत्रकारों/कर्मियों को बेरोजगार होना पड़ा है. लेकिन यह टी.वी न्यूज चैनलों तक सीमित परिघटना नहीं है. अखबारों/प्रिंट मीडिया में भी छंटनी का दौर पिछले एक साल से अधिक समय से जारी है.
पिछले दिनों ‘आउटलुक’ समूह ने कई पत्रिकाएं बंद करने और कुछ की समयावधि बढ़ाने की घोषणा की और इसके कारण कोई १२० से ज्यादा पत्रकारों की छंटनी कर दी गई है. इसी तरह ‘दैनिक जागरण’ और ‘दैनिक भास्कर’ जैसे देश के सबसे ज्यादा बिकने और कमाई करनेवाले अखबारों में दर्जनों पत्रकारों को नौकरी गंवानी पड़ी है. नेटवर्क-१८ समूह की ओर से प्रकाशित ‘फ़ोर्ब्स’ पत्रिका में भी संपादक सहित कई पत्रकारों से जबरन इस्तीफा ले लिया गया.
जैसे इतना ही काफी नहीं हो. पिछले सालों में खासकर २००८ के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद कई चैनलों और अखबारों में पत्रकारों के वेतन में सालाना इजाफा (इन्क्रीमेंट) नहीं हुआ या आसमान छूती महंगाई की तुलना में बहुत कम इन्क्रीमेंट हुआ और कुछ मीडिया समूहों में तो वेतन बढ़ोत्तरी तो दूर उल्टे उसमें कटौती कर दी गई.
यही नहीं, चैनलों/अखबारों से पत्रकारों की छंटनी के कारण बचे पत्रकारों/टी.वी कर्मियों का काम का बोझ बढ़ गया है, उनके काम के घंटे बढ़ गए हैं, छुट्टियाँ घट गईं है और दबाव-तनाव बढ़ गया है. लेकिन नौकरी जाने के भय से कोई पत्रकार इसका विरोध करने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है. गरज यह कि पिछले डेढ़-दो वर्षों में कुलमिलाकर न्यूज मीडिया और खासकर न्यूज चैनलों में काम करने की स्थितियां बाद से बदतर हुई हैं. पत्रकारों की नौकरियां जाने के साथ उनमें असुरक्षा बोध बहुत ज्यादा बढ़ गया है.
इसके बावजूद दुनिया भर की खबर देनेवाले न्यूज मीडिया और खासकर न्यूज चैनलों में खुद उसमें काम करनेवाले पत्रकारों की छंटनी, काम करने की बदतर होती परिस्थितियां, बढ़ता असुरक्षा बोध और तनाव कोई ‘खबर’ नहीं है.
इसी तरह आपने श्रमजीवी पत्रकारों का वेतन तय करने के लिए सरकार की ओर से गठित जस्टिस मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने में हुई देरी और फिर सरकार की ओर से जारी अधिसूचना के खिलाफ बड़े अखबारों के मालिकों के सुप्रीम कोर्ट जाने के बारे में भी बहुत ज्यादा खबरें नहीं पढ़ी होंगी. क्या यह कोई संयोग या अपने बारे में बात न करने का संकोच है? क्या यह पत्रकारों की खुद पर थोपी गई सेल्फ-सेंसरशिप है?
लेकिन अगर ऐसा होता तो पिछले दो-तीन सालों में न्यूज चैनलों/अखबारों के अंदर का हालचाल बतानेवाले मीडिया वेब पोर्टल इतने लोकप्रिय नहीं होते और यहाँ तक कि चैनलों/अखबारों के दफ्तरों में सबसे ज्यादा पढ़े जानेवाले पोर्टल्स में से एक नहीं होते.
इसी तरह आप सोशल मीडिया में न्यूज मीडिया के कामकाज और उसमें काम करनेवाले पत्रकारों की स्थिति पर खुद पत्रकारों की नियमित टिप्पणियां, चर्चाएं और आक्रोश पढ़ और देख सकते हैं. इसके बावजूद न्यूज मीडिया में खुद उसमें काम करनेवाले पत्रकारों की समस्याओं, मुश्किलों और तकलीफों के बारे रिपोर्ट और चर्चा करने के लिए जगह नहीं है तो ऐसा क्यों है? क्या यह ‘चुप्पी का षड्यंत्र’ है?
असल में, इस ‘चुप्पी के षड्यंत्र’ की वजह न्यूज मीडिया के स्वामित्व के पूंजीवादी ढाँचे में है. यह किसी से छुपा नहीं है कि बड़ी कारपोरेट पूंजी और छोटी-मंझोली पूंजी की मीडिया कंपनियों में काम करनेवाले पत्रकारों की मौजूदा स्थिति के लिए मीडिया कम्पनियाँ और उनका प्रबंधन जिम्मेदार है.
चाहे पत्रकारों की नियुक्ति की अपारदर्शी व्यवस्था हो या संविदा पर नियुक्ति के साथ जुड़ा नौकरी का अस्थायित्व हो या कंपनी के पक्ष में झुकी सेवाशर्तें हों या वेतन/प्रोन्नति/इन्क्रीमेंट तय करने के मनमाने तौर-तरीके हों- इसकी जिम्मेदारी मीडिया कम्पनियों की है.
इसी तरह सामूहिक छंटनी का फैसला भी कंपनियों का है. लेकिन वे हरगिज नहीं चाहती हैं कि उनके चैनलों और अखबारों में इसकी रिपोर्ट की जाए या उसपर चर्चा हो क्योंकि वे पत्रकारों की नौकरी, सेवाशर्तों और कामकाज की परिस्थितियों को सार्वजनिक मुद्दा नहीं बनने देना चाहते हैं.
यही नहीं, मीडिया कंपनियों के बीच एक अघोषित सहमति है कि वे एक-दूसरे के बारे में खासकर उनके यहाँ काम करनेवाले पत्रकारों/कर्मियों की समस्याओं, शोषण और उत्पीडन को रिपोर्ट नहीं करेंगे. इसकी वजह स्पष्ट है. आपने अंग्रेजी का मुहावरा सुना होगा- ‘कुत्ता, कुत्ते को नहीं खाता है’ (डाग डज नाट ईट डाग).
मीडिया कम्पनियाँ एक-दूसरे के बारे में खासकर पत्रकारों की स्थिति के बारे में इसलिए रिपोर्ट या चर्चा नहीं करती हैं क्योंकि कल उनकी कंपनी में काम करनेवाले पत्रकारों की बदतर स्थितियों के बारे में कोई दूसरा चैनल/अखबार रिपोर्ट कर सकता है. उन्हें पता है कि सभी न्यूज मीडिया कंपनियों में पत्रकारों की स्थिति कमोबेश एक जैसी ही है. इसलिए वे उसे छुपाने और सार्वजनिक चर्चा का मुद्दा बनने देने से रोकने के लिए हर कोशिश करते हैं.
यह कैसी आजादी है जिसमें विरोध की भी इजाजत नहीं है?
इससे यह भी साफ़ होता है कि जिस प्रेस की स्वतंत्रता या अभिव्यक्ति की आज़ादी की दुहाईयाँ दी जाती हैं, वह वास्तव में पत्रकारों की आज़ादी नहीं है बल्कि वह उन चैनलों/अखबारों के मालिकों की आज़ादी है. वे ही पत्रकारों की आज़ादी का दायरा और सीमा तय करते हैं.
चूँकि मीडिया कंपनियों के मालिक नहीं चाहते हैं कि उनकी कंपनियों में पत्रकारों के शोषण और उत्पीडन का मामला सामने आए, इसलिए पत्रकार चाहते हुए भी इसकी रिपोर्ट नहीं कर पाते हैं. जिन अखबारों में अपवादस्वरूप कभी-कभार इसकी रिपोर्ट छपती भी है तो वह ज्यादातर आधी-अधूरी और तोडमरोड कर छपती है.
उदाहरण के लिए, नेटवर्क-१८ और अन्य चैनलों से पत्रकारों/कर्मियों की बड़ी संख्या में छंटनी के ताजा मामलों को ही लीजिए. कुछेक अख़बारों में छपी ख़बरों के मुताबिक, नेटवर्क-१८ ने अपने न्यूजरूम के ‘पुनर्गठन’ के तहत कुल पत्रकारों/कर्मियों में से लगभग तीन सौ से चार सौ लोगों यानी ३० फीसदी की छंटनी कर दी है.
इस छंटनी के तहत जो पत्रकार/कर्मी एक साल से कम से सेवा में थे, उन्हें छंटनी के एवज में एक महीने की तनख्वाह और जो उससे ज्यादा समय से नौकरी में थे, उन्हें तीन महीने की तनख्वाह दी गई. इसके लिए कारण बताया गया कि कंपनी अपने विभिन्न चैनलों के न्यूजरूम को एकीकृत कर रही है और इस पुनर्गठन के कारण एक ही तरह के काम कर रहे पत्रकारों/कर्मियों की जरूरत खत्म हो गई है.
इसके अलावा यह कंपनी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने का रोना रोते हुए कहा गया कि अर्थव्यवस्था की मौजूदा खराब हालत के मद्देनजर स्थिति और बदतर हो सकती है. इस कारण कंपनी के लिए खर्चों में कटौती करना अनिवार्य हो गया था. इस मजबूरी में उसे इतने लोगों को निकलना पड़ा है. नेटवर्क-१८ इसे छंटनी के बजाय न्यूजरूम का पुनर्गठन और कर्मचारियों की संख्या को उचित स्तर (राईटसाइजिंग) पर लाना बता रहा है.
अन्य चैनलों/अखबारों ने भी पत्रकारों की छंटनी करते हुए यही तर्क और बहाने पेश किये हैं. वैसे ये तर्क नए नहीं है. मीडिया से इतर दूसरे उद्योगों और सेवा क्षेत्र की कंपनियों में लगभग इन्हीं तर्कों के आधार पर श्रमिकों/कर्मचारियों की छंटनी, ले-आफ, वेतन-इन्क्रीमेंट में कटौती, और तालाबंदी होती रही है.
लेकिन दूसरे उद्योगों/कंपनियों और न्यूज मीडिया उद्योग में फर्क यह है कि जहाँ संगठित क्षेत्र के अधिकांश उद्योगों/कारखानों/कंपनियों में श्रमिक/कर्मचारी यूनियनें हैं, वहीँ इक्का-दुक्का अखबारों को छोड़कर अधिकांश अखबारों में अब पत्रकार यूनियनें नहीं हैं और न्यूज चैनलों में तो किसी भी न्यूज चैनल में कोई यूनियन नहीं है.
हैरानी की बात नहीं है कि जहाँ दूसरे उद्योगों में छंटनी/ले-आफ आदि के विरोध में यूनियनें खड़ी हो पाती हैं, प्रबंधन के खिलाफ आंदोलन करती हैं और पीड़ित श्रमिकों/कर्मचारियों को कानूनी मदद से लेकर मानसिक सहारा देती हैं, वहीँ न्यूज मीडिया में यूनियनों के न होने के कारण पत्रकारों/कर्मियों की कोई सुनवाई नहीं है, प्रबंधन के मनमाने फैसलों का कोई विरोध नहीं है और प्रबंधन के सामने पत्रकारों/कर्मियों की समस्याओं और मुद्दों को उठानेवाला कोई सामूहिक मंच नहीं है.
यही नहीं, न्यूज मीडिया कंपनियों के छंटनी जैसे मनमाने फैसलों का पीड़ित पत्रकार/कर्मी इसलिए भी विरोध नहीं कर पाते हैं क्योंकि उन्हें डर लगता है कि उन्हें आगे कोई मीडिया कंपनी नौकरी नहीं देगी. असल में, न्यूज मीडिया उद्योग न सिर्फ छोटा उद्योग (दो दर्जन से भी कम कम्पनियाँ) है बल्कि उनकी एच.आर नीति में भी कोई बुनियादी फर्क नहीं है.
कहने की जरूरत नहीं है कि वे सभी न सिर्फ पत्रकारों/मीडियाकर्मियों के यूनियनों या सामूहिक हित के मंच की विरोधी हैं बल्कि उन्होंने अपनी-अपनी कंपनियों में सुनिश्चित किया है कि वहां कोई यूनियन न बनने दिया जाए. उनके बीच इस मुद्दे पर अघोषित सहमति है कि ऐसी किसी गतिविधि को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए और अगर कोई पत्रकार/कर्मी यूनियन बनाने या आंदोलन करने जैसी पहल करता है तो उसे कोई कंपनी भविष्य में नौकरी न दे.
नतीजा यह कि छंटनी और कामकाज की बदतर परिस्थितियों को लेकर बढ़ती बेचैनी और गुस्से के बावजूद किसी भी न्यूज मीडिया कंपनी में कोई बोलने के लिए तैयार नहीं है. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो छंटनी के सभी मामलों में पीड़ित पत्रकारों/मीडियाकर्मियों ने कोई विरोध नहीं किया और फैसले को चुपचाप स्वीकार कर लिया क्योंकि उन्हें आगे के भविष्य की चिंता थी. उन्हें भय था कि अगर उन्होंने विरोध किया और सामूहिक आंदोलन आदि में उतरे तो वे ‘ब्लैकलिस्टेड’ कर दिए जाएंगे और उन्हें कोई चैनल/अखबार नौकरी नहीं देगा.
हैरानी की बात नहीं है कि नेटवर्क-१८ में हुई छंटनी में निकाले गए ३५० से अधिक पत्रकारों/मीडियाकर्मियों में से इक्का-दुक्का पत्रकारों को छोड़कर कोई पीड़ित पत्रकार फिल्म सिटी में हुए विरोध प्रदर्शन में शामिल होने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.
विडम्बना देखिए कि नेटवर्क-१८ का प्रबंधन इसे अपनी कामयाबी की तरह पेश कर रहा है और उसका दावा है कि छंटनी के उसके फैसले से कहीं कोई ‘नाराजगी’ नहीं है और सभी पत्रकार उसके मुआवजे और छंटनी की शर्तों से पूरी तरह ‘संतुष्ट’ हैं.
यही नहीं, न्यूज मीडिया कंपनियों खासकर चैनलों का यह भी दावा है कि उनके यहाँ काम करनेवाले पत्रकारों/मीडियाकर्मियों के वेतन इतने ‘आकर्षक’ और सेवाशर्तें/कामकाज की परिस्थितियां इतनी ‘बेहतर’ हैं कि पत्रकारों/मीडियाकर्मियों को यूनियन की जरूरत ही नहीं महसूस होती है. लेकिन सच यह नहीं है.
सच यह है कि न्यूज मीडिया कंपनियों में यूनियनों का न होना उनके यहाँ काम करनेवाले पत्रकारों/मीडियाकर्मियों की ‘संतुष्टि’ का नहीं बल्कि मीडिया कंपनियों के अघोषित आतंक का परिचायक है. यह ‘जबरा मारे और रोवे न दे’ की स्थिति है.
ऐसा नहीं है कि न्यूज मीडिया कंपनियों खासकर अखबारों में यूनियनें नहीं थीं. ९० के दशक तक अधिकांश अखबारों में पत्रकार/कर्मचारी यूनियनें थीं. उनमें कुछ बहुत प्रभावी, ताकतवर और कुछ कमजोर और प्रबंधन अनुकूल थीं. उनमें बहुत कमियां और खामियां भी थीं. लेकिन इसके बावजूद उनके होने के कारण पत्रकारों/कर्मियों को अपने हितों के लिए लड़ने और प्रबंधन से मोलतोल करने का मंच मौजूद था और उन्हें एक सुरक्षा थी.
लेकिन ९० के दशक में शुरू हुई उदारीकरण-निजीकरण की आंधी में न्यूज मीडिया कंपनियों ने सरकारों के सहयोग से यूनियनों को खत्म करना और पत्रकारों को ठेके/संविदा (कांट्रेक्ट) पर रखना शुरू किया. शुरू में ठेके की व्यवस्था को आकर्षक बनाने के लिए स्थाई कर्मियों की तुलना में ज्यादा तनख्वाहें दी गईं, स्थाई कर्मियों को संविदा नियुक्ति में आने के लिए मजबूर किया गया और पत्रकारों/श्रमिकों को अलग किया गया. यूनियन नेताओं को प्रताड़ित किया गया, यूनियन से सहानुभूति रखनेवाले पत्रकारों को निकाला गया. इस प्रक्रिया में अधिकांश अखबारों में यूनियनों को खत्म या निस्तेज कर दिया गया.
चुप्पी के इस षड्यंत्र को तोड़ने की चुनौती
दूसरी ओर, अखबारों से सबक लेकर निजी न्यूज चैनलों ने अपने संस्थानों में शुरू से ही ठेके पर नियुक्तियां कीं, यूनियनें नहीं बनने दीं और न्यूजरूम में आतंक-नियंत्रण का माहौल बनाए रखा.
हालाँकि यह सच है कि पिछले एक-डेढ़ दशक में शुरू हुए ज्यादातर बड़े न्यूज चैनलों ने शुरुआत में अखबारों की तुलना में ज्यादा वेतन दिया खासकर ऊपर के पदों पर ऊँची तनख्वाहें दीं, तुलनात्मक रूप से कामकाज का माहौल भी अच्छा था लेकिन उसकी वजह यह थी कि शुरुआत में टी.वी के लिए प्रशिक्षित पत्रकारों की कमी थी और नया माध्यम होने और उसकी संभावनाओं को देखते हुए निवेशक पैसा झोंक रहे थे.
लेकिन पिछले पांच-सात सालों में कई कारणों जैसे टी.वी के लिए प्रशिक्षित पत्रकारों की अति-आपूर्ति, न्यूज चैनलों की संख्या में वृद्धि और तीखी प्रतियोगिता, वितरण-मार्केटिंग के बेतहाशा बढ़ते खर्चे, अर्थव्यवस्था की कमजोर स्थिति के कारण विज्ञापन राजस्व में गिरावट आदि से स्थितियां बदल गईं हैं.
छंटनी के हालिया मामलों से साफ़ है कि न्यूज चैनलों के लिए ‘आछे दिन, पाछे गए’. अब यहाँ चैनलों के बढ़ते घाटे पर अंकुश लगाने के नामपर न्यूजरूम के एकीकरण, पुनर्गठन और कर्मियों की संख्या के तार्किकीकरण की आंधी चल रही है. चैनलों में कम से कम स्टाफ में काम चलाने पर जोर है.
नए बिजनेस माडल में अधिक तनख्वाहें पानेवाले वरिष्ठ पत्रकारों/संपादकों और मंझोले कर्मियों को हटाकर उनकी जगह कम तनख्वाह में जूनियर स्तर पर भर्तियाँ करने की रणनीति आम होती जा रही है. यही नहीं, ए.एन.आई जैसी एजेंसी से ज्यादा से ज्यादा खबरें लेने और अपने रिपोर्टिंग/कैमरामैन आदि स्टाफ में कटौती की प्रवृत्ति आम हो रही है. इसके नतीजे में मौजूदा स्टाफ पर काम का बोझ बढ़ाने और छुट्टियों/सुविधाओं में कटौती की शिकायतें भी बढ़ी हैं.
कहने की जरूरत नहीं है कि इस सबको न्यूज चैनलों की खराब आर्थिक स्थिति और बढ़ते घाटे की आड़ में जायज ठहराया जा रहा है. तर्क यह दिया जा रहा है कि चैनलों को बंद करने और हजारों पत्रकारों को बेरोजगार करने से बेहतर है कि कुछ लोग छंटनी, वेतन कटौती और बढ़े हुए काम के बोझ का दर्द बर्दाश्त करें.
लेकिन तथ्य क्या हैं? नेटवर्क-१८ के ही उदाहरण को लीजिए. नेटवर्क-१८ को चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में १८ करोड़ रूपये का मुनाफा हुआ है. पिछले साल उसे घाटा हुआ था लेकिन इस साल मुनाफा कमाने के बावजूद उसने ३५० कर्मियों को निकाल दिया. दूसरी बात यह है कि कई बड़े न्यूज चैनल इसलिए घाटे में नहीं हैं क्योंकि उनके स्टाफ की लागत अधिक है बल्कि इसलिए घाटे में हैं क्योंकि उनके प्रबंधन ने अच्छे दिनों में जमकर फिजूलखर्ची की, विस्तार के मनमाने फैसले किये और ऊँची दरों पर कर्ज लिया.
यही नहीं, न्यूज चैनलों के प्रधान संपादकों/प्रबंध संपादकों/स्टार एंकरों के साथ-साथ उनके सी.ई.ओ आदि की तनख्वाहें बहुत ज्यादा हैं, कुछ मामलों में तो ये तनख्वाहें इतनी अधिक (अश्लीलता की हद तक) हैं कि एक संपादक की तनख्वाह ३० जूनियर स्टाफ या १५ मंझोले स्टाफ के बराबर है. इसके बावजूद छंटनी की गाज हमेशा मंझोले/जूनियर स्टाफ पर गिरती है.
साफ़ है कि यह माडल न सिर्फ अन्यायपूर्ण है बल्कि टिकाऊ नहीं है. इस माडल की कीमत चैनलों के पत्रकार और मीडियाकर्मी ही नहीं चुका रहे हैं. इसकी कीमत आम दर्शकों और व्यापक अर्थों में भारतीय लोकतंत्र को भी चुकानी पड़ रही है.
चैनलों में पत्रकारों की छंटनी के कारण न सिर्फ उनके कवरेज और उसकी गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ रहा है और स्टाफ की कमी की भरपाई हलके-फुल्के मनोरंजन से की जा रही है बल्कि उनके रिपोर्टिंग की कवरेज में विविधता खत्म हो रही है और उसका दायरा सीमित हो रहा है.
यही नहीं, स्टाफ की कमी का असर खबरों और उनके तथ्यों की जांच-पड़ताल और छानबीन भी पड़ रहा है और भविष्य में और अधिक पड़ेगा. इसका असर संपादकीय निगरानी पर भी पड़ रहा है. इसके कारण खबरों में तथ्यात्मक गलतियाँ बढ़ रही हैं.
दर्शकों को सही, पूरी और व्यापक जानकारी नहीं मिल रही है और घटते कवरेज की भरपाई के रूप में उन्हें चर्चाओं/बहसों के नामपर शोर/एकतरफा विचारों से बहरा बनाया जा रहा है. जाहिर है कि यह दर्शकों का नुकसान है और अगर एक सक्रिय और प्रभावी लोकतंत्र के लिए हर तरह से सूचित नागरिक अनिवार्य शर्त हैं तो सूचना के एक महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में न्यूज चैनलों की मौजूदा स्थिति और उसमें काम कर रहे पत्रकारों का टूटता मनोबल लोकतंत्र के लिए कोई अच्छी खबर नहीं है.
इसलिए समय आ गया है जब चैनलों/अखबारों में काम करनेवाले पत्रकारों के कामकाज की स्थितियों पर सार्वजनिक चर्चा हो. यह इसलिए भी जरूरी है कि अन्य पेशों की तुलना में लोकतंत्र की सेहत के लिए पत्रकारिता के पेशे की अहमियत बहुत महत्वपूर्ण है.
यही वजह है कि आज़ादी के बाद ५० के दशक में पत्रकारों/कर्मियों के लिए संसद ने अलग से श्रमजीवी पत्रकार कानून बनाया. उनके लिए अलग से वेतन आयोग गठित किये गए. लेकिन अफसोस की बात यह है कि न्यूज मीडिया कम्पनियाँ न सिर्फ इस कानून की धज्जियाँ उड़ाने में लगी हुई हैं बल्कि केन्द्र और राज्य सरकारों के सहयोग से इसे पूरी तरह से बेमानी बना दिया गया है. स्थिति यह हो गई है कि बड़े अखबार समूह इस कानून को ही अप्रासंगिक साबित करके खत्म करने की मांग कर रहे हैं.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस कानून को और सशक्त, प्रभावी और व्यापक बनाने की जरूरत है. उसके दायरे में न्यूज चैनलों के श्रमजीवी पत्रकारों को भी लाने की जरूरत है. लेकिन इसके लिए इस मुद्दे पर सार्वजनिक चर्चा जरूरी है.
नेटवर्क-१८ की छंटनी को यूँ ही बेकार नहीं जाने दिया जाना चाहिए. अच्छी बात यह है कि युवा पत्रका

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