आजादी का जश्न: लोगों पर गोली चलाने के आदेश मानने से किया था इनकार, ये है वीर चंद्र गढ़वाली
देहरादून -उत्तराखंड
16 Aug 2015
आजादी का जश्न पहाड़ के वीर सपूतों को याद किए बिना अधूरा सा लगता है. देवभूमि उत्तराखंड के एक वीर सपूत वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली भी उनमें से एक हैं. ताल ठोककर ब्रिटिश हुकूमत के दांत खट्टे करने वाले इस शख्स की कहानी पहाड़ की आबो हवा में हमेशा गूंजती रहेगी.
बस मिल जाए एक और वीर
गांधी जी ने कहा था कि "मुझे एक चन्द्र सिंह गढ़वाली और मिलता तो भारत कभी का स्वतंत्र हो गया होता". 23 अप्रैल, 1930 को अफगानिस्तान के निहत्थे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर गोली चलाने से इनकार करने वाले चन्द्र सिंह गढ़वाली ने उसी समय ये अहसास करा दिया था कि ब्रिटिश हुकूमत के अब ज्यादा दिन शेष नहीं बचे हैं.
वीर भूमि उत्तराखंड में पहले ही वीरों की कमी नहीं है. लेकिन वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली ने अंग्रेजों के आदेश न मानते हुए अपने ही लोगों पर गोली चलाने से इनकार कर एक नई क्रांति को जन्म दिया था.चन्द्र सिंह कभी अपने बुलंद इरादों के आगे किसी के आगे नहीं झुके भले ही स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्हें सलाखों के पीछे ही क्यों न जाना पड़ा हो. ये है पूरी कहानी
1891 में गढ़वाल के चौथान पट्टी के मासी सैणीसैरा गांव में जन्मे चन्द्र सिंग गढ़वाली 11 सितम्बर, 1914 को गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हो गए. प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अगस्त 1914 में मित्र देशों की ओर से यूरोप और मध्य पूर्वी क्षेत्र में सीधे दुश्मनों से लोहा लेने अपनी टुकड़ी के साथ पहुंच गए. इसी साल अक्टूबर के बाद राजनैतिक में भी उनकी रूचि बढ़ती चली गई.
वर्ष 1921 में जब गांधी जी बागेश्वर आए तो उनकी टोपी हाथ में लेकर जीवनभर बलिदान की भावना से काम करने का प्रण कर लिया. 1930 में हुक्म आया कि चन्द्र सिंह को अपनी बटालियन लेकर पेशावर जाना है. यहां के किस्साखानी बाजार में खान अब्दुल खान गफ्फार के लालकुर्ती खुदाई खिदमतदारों की एक आम सभा हो रही थी. आजादी के इन दीवानों को अंग्रेज तितर-बितर करना चाहते थे और ऐसा बिना बल प्रयोग के सम्भव नहीं था.
'हम निहत्थों पर गोली नहीं चलाते'
कैप्टेन रैकेट 72 गढ़वाली जवानों को लेकर मौके पर पहुंचे और गोली चलाने का हुक्म दिया. बस फिर क्या था चन्द्र सिंह कैप्टन रैकेट के बगल में खड़े थे और उन्होंने सीज फायर का हुक्म सुनाया. सैनिकों ने बन्दूकें नीचे कर लीं औऱ चन्द्र सिंह ने कहा कि हम निहत्थों पर गोली नहीं चलाते. इसके बाद गोरे सैनिकों ने गोली चलाई.
जब गढ़वाली को जेल में डाल गया
ये अदम्य साहस चन्द्र सिंह गढ़वाली का ही था कि उन्होंने अंग्रेज हुकूमत के सामने अपनी आवाज बुलंद कर दी. उसी समय उऩकी टुकड़ी को पेशावर के ऐबटाबाद में नजरबंद कर दिया गया. उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और जेल भेज दिया गया. 11 साल 3 महीने 17 दिन जेल में बिताने के बाद गढ़वाली 26 सितम्बर 1941 को रिहा हो गए.
सुभाष चंद्र बोस से मुलाकाल
उत्तराखंड का यह वीर, बरेली अल्मोड़ा, लखनऊ, नैनीताल, ऐबटाबाद जेलों में वह बंद रहा औऱ अनेक यातनाएं भी झेलीं. लखनऊ जेल में उनकी मुलाकात नेता जी सुभाष चंद्र बोस से हुई. इस ऐतिहासिक मुलाकात के बाद फिर आजादी के लिये एक नई फौज बनाने की नींव पड़ गई. आजाद हिंद फौज को लेकर नेताजी से गढ़वाली का गहन विमर्श हुआ.
चंद्र की वीरता के किस्से गूंजते रहेंगे सदा
"बेड़ियों को मर्दों का जेवर" कहने वाले वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली इलाहाबाद में भी रहे. भारत छोड़ो आंदोलन के समय उन्हें कमांडर इन चीफ बनाया गया. एक बार फिर से गिरफ्तारी के बाद 6 अक्टूबर 1942 को उन्हें छह साल की सजा सुनाई गयी. फिर 1945 में उन्हें जेल से छोड़ना पड़ा, लेकिन गढ़वाल में प्रवेश प्रतिबन्धित कर दिया गया. 1946 में गढ़वाल में प्रवेश करने के बाद चन्द्र सिंह ने नागेन्द्र सकलानी के निधन के बाद आंदोलन की कमान संभाली. कम्युनिस्ट विचारधारा के चलते सरकार से उनका साथ कभी नहीं रहा. 1952 में पौड़ी सीट से विधानसभा का चुनाव भी लड़े, लेकिन कांग्रेस की लहर के आगे जीत नहीं सके. बैरिस्टर मुकुन्दी लाल कहते हैं कि आजाद हिन्द फौज का बीज बोने वाला वही है. 1 अक्टूबर 1979 को लम्बी बीमारी के बाद चन्द्र सिह का निधन हो गया, लेकिन उनकी वीरता की सदाएं आज भी पहाड़ के कोने-कोने में गूंज रही हैं
देहरादून -उत्तराखंड
16 Aug 2015
आजादी का जश्न पहाड़ के वीर सपूतों को याद किए बिना अधूरा सा लगता है. देवभूमि उत्तराखंड के एक वीर सपूत वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली भी उनमें से एक हैं. ताल ठोककर ब्रिटिश हुकूमत के दांत खट्टे करने वाले इस शख्स की कहानी पहाड़ की आबो हवा में हमेशा गूंजती रहेगी.
बस मिल जाए एक और वीर
गांधी जी ने कहा था कि "मुझे एक चन्द्र सिंह गढ़वाली और मिलता तो भारत कभी का स्वतंत्र हो गया होता". 23 अप्रैल, 1930 को अफगानिस्तान के निहत्थे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों पर गोली चलाने से इनकार करने वाले चन्द्र सिंह गढ़वाली ने उसी समय ये अहसास करा दिया था कि ब्रिटिश हुकूमत के अब ज्यादा दिन शेष नहीं बचे हैं.
वीर भूमि उत्तराखंड में पहले ही वीरों की कमी नहीं है. लेकिन वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली ने अंग्रेजों के आदेश न मानते हुए अपने ही लोगों पर गोली चलाने से इनकार कर एक नई क्रांति को जन्म दिया था.चन्द्र सिंह कभी अपने बुलंद इरादों के आगे किसी के आगे नहीं झुके भले ही स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्हें सलाखों के पीछे ही क्यों न जाना पड़ा हो. ये है पूरी कहानी
1891 में गढ़वाल के चौथान पट्टी के मासी सैणीसैरा गांव में जन्मे चन्द्र सिंग गढ़वाली 11 सितम्बर, 1914 को गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हो गए. प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अगस्त 1914 में मित्र देशों की ओर से यूरोप और मध्य पूर्वी क्षेत्र में सीधे दुश्मनों से लोहा लेने अपनी टुकड़ी के साथ पहुंच गए. इसी साल अक्टूबर के बाद राजनैतिक में भी उनकी रूचि बढ़ती चली गई.
वर्ष 1921 में जब गांधी जी बागेश्वर आए तो उनकी टोपी हाथ में लेकर जीवनभर बलिदान की भावना से काम करने का प्रण कर लिया. 1930 में हुक्म आया कि चन्द्र सिंह को अपनी बटालियन लेकर पेशावर जाना है. यहां के किस्साखानी बाजार में खान अब्दुल खान गफ्फार के लालकुर्ती खुदाई खिदमतदारों की एक आम सभा हो रही थी. आजादी के इन दीवानों को अंग्रेज तितर-बितर करना चाहते थे और ऐसा बिना बल प्रयोग के सम्भव नहीं था.
'हम निहत्थों पर गोली नहीं चलाते'
कैप्टेन रैकेट 72 गढ़वाली जवानों को लेकर मौके पर पहुंचे और गोली चलाने का हुक्म दिया. बस फिर क्या था चन्द्र सिंह कैप्टन रैकेट के बगल में खड़े थे और उन्होंने सीज फायर का हुक्म सुनाया. सैनिकों ने बन्दूकें नीचे कर लीं औऱ चन्द्र सिंह ने कहा कि हम निहत्थों पर गोली नहीं चलाते. इसके बाद गोरे सैनिकों ने गोली चलाई.
जब गढ़वाली को जेल में डाल गया
ये अदम्य साहस चन्द्र सिंह गढ़वाली का ही था कि उन्होंने अंग्रेज हुकूमत के सामने अपनी आवाज बुलंद कर दी. उसी समय उऩकी टुकड़ी को पेशावर के ऐबटाबाद में नजरबंद कर दिया गया. उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और जेल भेज दिया गया. 11 साल 3 महीने 17 दिन जेल में बिताने के बाद गढ़वाली 26 सितम्बर 1941 को रिहा हो गए.
सुभाष चंद्र बोस से मुलाकाल
उत्तराखंड का यह वीर, बरेली अल्मोड़ा, लखनऊ, नैनीताल, ऐबटाबाद जेलों में वह बंद रहा औऱ अनेक यातनाएं भी झेलीं. लखनऊ जेल में उनकी मुलाकात नेता जी सुभाष चंद्र बोस से हुई. इस ऐतिहासिक मुलाकात के बाद फिर आजादी के लिये एक नई फौज बनाने की नींव पड़ गई. आजाद हिंद फौज को लेकर नेताजी से गढ़वाली का गहन विमर्श हुआ.
चंद्र की वीरता के किस्से गूंजते रहेंगे सदा
"बेड़ियों को मर्दों का जेवर" कहने वाले वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली इलाहाबाद में भी रहे. भारत छोड़ो आंदोलन के समय उन्हें कमांडर इन चीफ बनाया गया. एक बार फिर से गिरफ्तारी के बाद 6 अक्टूबर 1942 को उन्हें छह साल की सजा सुनाई गयी. फिर 1945 में उन्हें जेल से छोड़ना पड़ा, लेकिन गढ़वाल में प्रवेश प्रतिबन्धित कर दिया गया. 1946 में गढ़वाल में प्रवेश करने के बाद चन्द्र सिंह ने नागेन्द्र सकलानी के निधन के बाद आंदोलन की कमान संभाली. कम्युनिस्ट विचारधारा के चलते सरकार से उनका साथ कभी नहीं रहा. 1952 में पौड़ी सीट से विधानसभा का चुनाव भी लड़े, लेकिन कांग्रेस की लहर के आगे जीत नहीं सके. बैरिस्टर मुकुन्दी लाल कहते हैं कि आजाद हिन्द फौज का बीज बोने वाला वही है. 1 अक्टूबर 1979 को लम्बी बीमारी के बाद चन्द्र सिह का निधन हो गया, लेकिन उनकी वीरता की सदाएं आज भी पहाड़ के कोने-कोने में गूंज रही हैं