क्या कामयाब होगा भारत का मंगल अभियान?
मंगलवार, 5 नवंबर, 2013 को 07:58 IST तक के समाचार
बंगलुरू के 500 से अधिक वैज्ञानिक 10 करोड़ डॉलर के मंगल अभियान पर दिन रात काम कर रहे हैं
इसरो के अंतरिक्ष कार्यक्रम के
तहत भारत मंगलवार को अपना यान मंगल ग्रह पर भेज रहा है. भारत का यह मंगल
अभियान वहां जीवन की तलाश करेगा.
साथ ही ये भी जानने की कोशिश होगी कि वहां वायुमण्डल का ख़ात्मा किस तरह से हुआ.
इस कार्यक्रम पर चर्चा के साथ ही एक
बहस भी छिड़ गई है. कोई इसे अंतरिक्ष कार्यक्रम के क्षेत्र में भारत की
ऊंची छलांग मान रहा है तो कोई संभ्रांत तबक़े का भ्रामक अभियान मात्र. सवाल
है कि यह अभियान भारत और दुनिया के लिए क्या मायने रखता है?
हालांकि मंगल ग्रह पर एक छोटा मानवरहित उपग्रह
भेजे जाने को भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम में एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर
देखा जा रहा है.
अगर सब कुछ ठीक ठाक रहा तो भारत सफल मंगल मिशन
शुरू करने वाले चंद देशों में शामिल हो जाएगा. ऐसा होने पर भारत की
अंतरिक्ष एजेंसी इसरो अमरीका, रूस और यूरोपीय यूनियन की अंतरिक्ष एजेंसी के
बाद चौथी ऐसी एजेंसी बन जाएगी जो मंगल पर यान भेजने में कामयाब होगी.
10 करोड़ डॉलर का मिशन
भारत का 1350 किग्रा का रोबोटिक उपग्रह लाल ग्रह
की 2000 लाख किलोमीटर की 10 महीने की यात्रा पर रवाना होगा. इसमें पांच
ख़ास उपकरण मौजूद हैं जो मंगल ग्रह के बारे में अहम जानकारियां जुटाने का
काम करेंगे.
भारत का मंगलयान उपग्रह. बाएं से दाएं पल्लव बागला और इसरो प्रमुख के राधाकृष्णन
इसमें वायुमंडल में जीवन की निशानी और मीथेन गैस
का पता लगाने वाले सेंसर, एक रंगीन कैमरा और ग्रह की सतह और खनिज संपदा का
पता लगाने वाला थर्मल इमेजिंग स्पेक्ट्रोमीटर जैसे उपकरण शामिल हैं.
साल 2008 में चंद्रमा से जुड़ा भारत का मानवरहित
चंद्रयान अभियान बेहद सफल रहा था. इस अभियान से ही चांद पर पानी की मौजूदगी
का पहला पुख़्ता प्रमाण मिला था.
भारतीय उपग्रह संगठन (इसरो) के अध्यक्ष के
राधाकृष्णन का कहना है कि साल 2008 के उस अभियान के बाद भारत का मंगल
अभियान (मार्स मिशन) अब अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ रहा है.
इसरो के लिए काम करने वाले बंगलुरू के 500 से अधिक
वैज्ञानिकों ने इस 10 करोड़ डॉलर अभियान पर दिन रात काम किया है. मंगल
अभियान की औपचारिक घोषणा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले साल अगस्त में
ही कर दी थी कि भारत लाल ग्रह पर एक अंतरिक्ष यान भेजेगा.
"मैं
पिछले 15 महीनों से लगातार काम कर रहा हूं. इस बीच मैंने एक दिन की भी
छुट्टी नहीं ली है. बंगलुरू के इसरो सैटेलाइट सेंटर में ही सो जाता हूं. "
सुब्बा अरुणनः परियोजना प्रमुख
एशियाई देशों के बीच अंतरिक्ष दौड़
परियोजना प्रमुख सुब्बा अरुणन बताते हैं कि वे
पिछले 15 महीनों से मंगल मिशन के लिए लगातार काम कर रहे हैं, इस बीच
उन्होंने एक दिन की भी छुट्टी नहीं ली है. यहां तक की वो बंगलुरू स्थित
इसरो सैटेलाइट सेंटर में ही सोते हैं.
वे कहते हैं कि घर केवल 'एक या दो घंटा' के लिए ही जाना हो पाता है.
कहीं भारत का मंगल अभियान एशियाई देशों के बीच एक नए अंतरिक्ष दौड़ या कहें, होड़ की शुरूआत तो नहीं है?
भारत मंगल अभियान को अपने प्रतिद्वंदी चीन को ग्रह
तक पहुंचने की दौड़ में पीछे छोड़ देने के एक अवसर के रूप में देखता आया
है, ख़ासकर तब जब मंगल जाने वाला पहला चीनी उपग्रह 'राइडिंग ऑन अ रशियन
मिशन', 2011 के नवंबर में असफल हो गया था. जापान का साल 1998 का ऐसा ही
प्रयास विफल रहा था.
वैज्ञानिक उद्देश्य
साल 1960 से अब तक लगभग 45 मंगल अभियान शुरू किए जा चुके हैं.
चीन ने अंतरिक्ष क्षेत्र में भारत को लगभग हर
तरीक़े से पछाड़ रखा है. चीन के पास ऐसा रॉकेट है जो भारत के रॉकेट के
मुक़ाबले चार गुना ज़्यादा वज़न उठा सकता है.
"भारत का मंगल मिशन सुपरपावर बनने के उसके भ्रामक खोज को पूरा करने वाले मिशन का हिस्सा है."
ज्यां द्रेजः अर्थशास्त्री और कार्यकर्ता
इसी तरह साल 2003 में, चीन अपना पहला मानवयुक्त
अंतरिक्ष यान सफलतापूर्वक प्रक्षेपित कर चुका है, जो भारत के लिए अब तक
अछूता रहा है. चीन ने साल 2007 में अपना पहला चंद्र अभियान शुरू किया था.
इस मामले में भी वह भारत से आगे है.
साल 1960 से अब तक लगभग 45 मंगल अभियान शुरू किए जा चुके हैं. और इनमें से एक तिहाई असफल रहे हैं.
हालांकि भारत का दावा है कि उसका मंगल अभियान
पिछली आधी सदी में ग्रहों से जुड़े सारे अभियानों में सबसे कम ख़र्चे वाला
है. मगर कुछ लोग ने इसके वैज्ञानिक उद्देश्य पर सवाल उठ रहे हैं.
दिल्ली साइंस फ़ोरम नामक थिंक टैंक के डॉ. रघुनंदन
का कहना है, "यह अभियान उच्च गुणवत्ता वाला नहीं है. विज्ञान से जुड़े
इसके उद्देश्य भी सीमित हैं."
तो दूसरी ओर अर्थशास्त्री-कार्यकर्ता ज्यां द्रेज़
ने कहा कि यह अभियान "सुपरपावर बनने के भारत के भ्रामक खोज को पूरा करने
वाले मिशन का हिस्सा है."
इन बातों को ख़ारिज़ करते हुए एक बड़े सरकारी
अधिकारी का कहना है, "हम 1960 के दशक से ही सुनते आ रहे हैं कि भारत जैसे
ग़रीब देश को अंतरिक्ष अभियानों की ज़रूरत ही नहीं है."
वे आगे कहते हैं, "अगर हम बड़े सपने देखने की
हिम्मत नहीं करेंगे तो बस मज़दूर ही बने रह जाएंगे. भारत आज इतना विशाल देश
है कि उच्च तकनीक उसके लिए बेहद ज़रूरी है."
'मार्स एक्सप्रेस' के अलावा जिसे यूरोप के 20
देशों का प्रतिनिधित्व हासिल है, कोई भी देश पहली बार में मंगल अभियान में
सफल नहीं रहा है
'देश को जोड़ने के लिए था अंतरिक्ष कार्यक्रम'
प्रोफ़ेसर यशपाल
वैज्ञानिक और शिक्षाविद्
गुरुवार, 31 अक्तूबर, 2013 को 07:41 IST तक के समाचार
भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम में हर तरह के लोग शामिल रहे हैं.
जब अंतरिक्ष विभाग में ये चर्चा हो रही थी कि मंगल
ग्रह वग़ैरह की बात करें या नहीं तो वहां जो इंजीनियर दोस्त हैं उनका कहना
था कि हम तंग आ गए हैं, रोज़-रोज़ वही ट्रांसपॉन्डर, उपग्रह बना कर. कब तक
ये करते रहेंगे. ये वो लोग हैं जो नई चीज़ें करते हैं और जिन्हें नई
चीज़ें करने में मज़ा आता है.
वो बहुत उत्साही लोग हैं और इंजीनियर
जो काम कर सकते हैं वो है धरती की इस हलचल से दूर जाना, कहीं और की यात्रा
करना. ऐसे लोग निश्चित तौर पर हैं.
मेरी ख़ास दिलचस्पी अंतरिक्ष में इस वजह से थी कि मैं खगोल विज्ञान में दिलचस्पी रखता था.
कॉस्मिक किरणों में मेरी बहुत दिलचस्पी थी. मेरी तरह ही कॉस्मिक किरणों में दिलचस्पी रखने वालों में एक व्यक्ति थे विक्रम साराभाई.
'साराभाई का सपना'
भारत के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम इसरो से लंबे समय तक जुड़े रहे.
वो बड़े सपने देखने वालों में से थे. वो बहुत महान आदमी थे. उन्होंने अहमदाबाद में फ़िज़िकल रिसर्च लैबोरेट्री की स्थापना की.
हम कॉस्मिक किरणों पर बात करते थे. वो हमारी पीढ़ी के उन लोगों में से थे जो देश के लिए नए काम करने में यक़ीन रखते थे.
उन्हें एक चीज़ सूझी कि हम उपग्रह भेजेंगे,
क्योंकि हम कॉस्मिक किरणों का अध्ययन करते हैं तो उपकरणों को बलून से बांध
कर अंतरिक्ष में भेजते हैं. अंतरिक्ष में जाने पर हम कॉस्मिक किरणों का
अध्ययन बेहतर कर सकते हैं.
जब मैं बलून से उपकरणों को भेजता हूं तो वो 1-2
हज़ार फ़ीट तक जा सकते हैं, वातावरण से ऊपर जा सकते हैं और धरती को देख
सकते हैं लेकिन अगर मैं अंतरिक्ष में जाऊं तो न सिर्फ़ धरती के बड़े हिस्से
को देख सकता हूं बल्कि बाहरी ग्रहों को भी देख सकता हूं.
फिर आप सोचते हैं कि आप बाहर हैं और रेडियो है तो
सिग्नल दुनिया के बड़े हिस्से तक पहुंच सकते हैं. लेकिन उपग्रह हो तो धरती
के चारों ओर घूमेंगे और उन्हें अगर इक्वेटर पर सही ऊंचाई पर रखा जाए तो ये
स्टेशनरी होंगे.
साराभाई ये समझते थे. हम अक्सर इस के बारे में बात
करते थे. उन्होंने मुझसे कहा कि तुम जानते हो कि हम संचार के लिए क्या कर
सकते हैं. हम पूरे भारत को एक साथ जोड़ सकते हैं.
'अंतरिक्ष से भारत एक होगा'
ये सोचा नहीं लोगों ने कि भारत को एक करने के लिए
अंतरिक्ष में जाना ज़रूरी है. वहां से सिग्नल ब्रॉडकास्ट करेंगे तो सारे
भारत में एक साथ पहुंच जाएगा.
फिर जो मेरे जैसे लोग होते हैं वो कहते हैं कि
शिक्षा में भी इसका इस्तेमाल हो सकता है क्योंकि शिक्षा वो नहीं है कि लोग
आपकी बात सुनते रहें, शिक्षा तो वो भी है कि आप लोगों से बात कर सकें.
विक्रम साराभाई को भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम का जनक माना जाता है.
शुरू में ही जो बड़ा प्रोजेक्ट था तो साराभाई के
मन में आता था कि ऐसा करना चाहिए. सब लोग कहते थे कि कैसे करें, हमारे पास
सामान ही नहीं, तो वो कहते थे कि कुछ दोस्त हैं उनके साथ मिल कर करेंगे.
वो अच्छे वैज्ञानिक भी थे और रोमांटिक भी थे. हम
लोग बात करते थे कि बड़ा मज़ा आएगा. कृषि के विकास के लिए, लोगों से बात
करने के लिए इस्तेमाल कर सकेंगे.
एक बार उनके मन में आया कि अंतरिक्ष कार्यक्रम
होना चाहिए. मैं अंदाज़ा लगा रहा हूं कि ऐसा हुआ होगा क्योंकि साराभाई
दोस्ताना शख़्सियत के आदमी थे और प्रधानमंत्री से मिले होंगे.
प्रधानमंत्री से उन्होंने कहा कि कितना अच्छा हो
अगर हम एक ऐसा एंटीना बना सकें कि पूरे देश से बात कर सकें. और हम देख सकें
कि तूफ़ान आने वाला है तो किधर जाएगा. बरसात कितनी होगी, कहां होगी.
इंदिरा जी ने उनसे कहा कि कैसे करोगे. उन्होंने कहा कि एक उपग्रह हुआ तो उसके ज़रिए कभी तो हो सकता है.
नए प्रयोग
इंदिरा जी ने कहा कि किसी के पास है ऐसा सैटेलाइट.
साराभाई ने कहा कि नहीं है. वो भी बनाएंगे, हम भी बनाएंगे. वो भी सीखेंगे,
हम भी सीखेंगे.
तो बाद में साराभाई ने अपने दोस्तों से जाकर कहा
कि छोटा सा प्रोजेक्ट है, श्रीमति गांधी ज़रा मान जाएं तो. दोस्तों ने पूछा
क्या है. उन्होंने कहा कि अमरीकी दोस्त हैं जो प्रायोगिक सैटेलाइट बना रहे
हैं.
कोशिश कर रहे हैं कि क्या सैटेलाइट से ब्रॉडकास्ट
कर सकते हैं, अभी तक किसी ने किया नहीं है. टेलीविज़न सिग्नल ब्रॉडकास्ट कर
सकते हैं क्या.
सेटेलाइट लॉन्च व्हीकल के विकास में कलाम (बाएं) का अहम योगदान था.
मैं प्रस्ताव दे देता हूं अपने दोस्तों को कि आपके
सैटेलाइट में एक ट्रांसपॉन्डर लगाएंगे. ये वो वक़्त था कि साराभाई ने
श्रीमति गांधी को उत्साहित कर दिया.
इंदिरा जी ने साराभाई से पूछा कि महंगा तो नहीं
है, उन्होंने कहा नहीं 20-30 करोड़ से 50 करोड़ रुपए लगेंगे. इंदिरा जी ने
कहा उतना तो हो सकता है.
उस प्रयोग को मंज़ूरी मिली. हमारा नासा से क़रार हुआ. क़रार ये था कि ग्राउंड सिस्टम हम बनाएंगे और टेस्ट करेंगे एक साथ.
बाद में आकलन करेंगे. और प्रोग्राम बनाएंगे, लोगों
से बात करेंगे. काम शुरू हुआ ही था कि साराभाई की मौत हो गई. बहुत कम उम्र
में वो चल बसे.
सतीश धवन से कहा गया कि वो इसरो का काम संभालें. एक मीटिंग में वो मेरा हाथ पकड़कर बोले कि यार आना इधर.
कॉलेज की इमारत से काम
ये प्रोग्राम करना है तो एप्लीकेशंस भी होना
चाहिए. एक एप्लीकेशंस सेंटर भी बनाना पड़ेगा. तुम टीआईएफ़आर से पांच साल की
छुट्टी ले लो.
मैंने कहा कि यार मेरा काम बढ़िया चल रहा है.
मुझसे कहते हैं कि ऐसा काम फिर कौन करेगा. तुम्हें अहमदाबाद में रहना होगा,
तुम अहमदाबाद आ जाओ.
हमने अहमदाबाद में एक कॉलेज की ऊपरी मंजिल में
स्पेस एप्लीकेशन सेंटर (सैक) शुरू किया. नासा से बातचीत करने की
ज़िम्मेदारी थी, अर्थ स्टेशन, रिसीविंग स्टेशन, लो नॉइज़ एम्पीफ़ायर भी
बनाने थे.
एक वक्त ऐसा था कि 800-900 इंजीनियर थे. तीन-चार
समाजशास्त्री भी आ गए. उन्हें ये देखना था कि कैसी भाषा का इस्तेमाल करते
हैं, क्या करते हैं.
विक्रम साराभाई के निधन के बाद सतीश धवन ने अंतरिक्ष कार्यक्रम को बखूबी संभाला.
एक क़िस्म के नए विषयों पर बात हुई जिन पर पहले सोच नहीं सकते थे. ज़्यादा वक्त था नहीं, दो-तीन साल में सब शुरू करना था.
बाद में ये कार्यक्रम चला, सफल हुआ. समझ आने लगा
कि इसका कुछ फ़ायदा होगा. दुनिया में कहीं भी सैटेलाइट ब्रॉडकास्टिंग नहीं
था, अमरीका में भी नहीं था.
लोग कहते थे कि पागल हो क्या ऐसे मुल्क में कर रहे
हो. ऐसे लोगों से साराभाई का कहना होता था कि देखिए इसकी ज़रूरत सबसे
ज़्यादा हम को है. हमारे दूरदराज़ के इलाक़ों में संपर्क साधने का कोई
ज़रिया नहीं है. हम कर पाएं तो उसका कितना फ़ायदा होगा.
'तकनीकी रूप से सफल'
किस तरह से काम हुआ, क्या सीखा उस दौरान उसकी तो कहानी बहुत लंबी है. कार्यक्रम बनाने थे तो तय हुआ कि दूरदर्शन ही बना सकता है.
हमने कहा कि कार्यक्रम तो बनाने हैं क्योंकि हमें
दिलचस्पी है. बच्चों के लिए विज्ञान के कार्यक्रम बनाने थे. उन्होंने कहा
कि तुम्हें बनाने होंगे ऐसे कार्यक्रम, हमें तो पता नहीं है.
फिर हमने बहुत सारे लोगों से कहा कि एक महीने
सिर्फ़ यही लिखो कि क्या कार्यक्रम बनाएंगे. एफ़टीआईआई से आई प्रोड्यूसरों
की नई पौध को उत्साहित किया कि ऐसे कार्यक्रम बनाने हैं.
टीआईएफ़आर के वैज्ञानिकों को लेकर दोनों की टीम
बनाई. दोस्तों को चिट्ठी लिखकर पूछा कि प्रोग्राम कैसे बनाएं. एमआईटी के
प्रोफ़ेसर फ़िलिप मॉरीसन ने मदद की.
अहमदाबाद में स्टूडियो क्या किसी ने टेलीविज़न तक नहीं देखा था. मुंबई में प्रोग्राम बनाने थे.
मैंने बीएमसी की मुख्य शिक्षाधिकारी माधुरी शाह को
फ़ोन कर के कहा कि हमें एक कमरा ही दे दो. मैंने उनके साथ काम किया था तो
उन्होंने कहा कि यश तुम्हारे लिए सब कर सकते हैं. उसी शाम लोग भेज दिए और
प्रोग्राम बनने लगे.
नैस्कॉम के चेयरमैन रहे किरण कार्णिक उस वक्त सैक
में थे उन्हें मुंबई भेजा गया. आख़िर जो प्रोग्राम बने वो तकनीकी रूप से
बहुत सफल हुए.
ये वो वक्त था जब भारत सरकार ने फ़ैसला किया कि
अंतरिक्ष कार्यक्रम होना चाहिए. सैन्य ज़रूरतों के लिए नहीं, सामाजिक
ज़रूरतों के लिए.
इस सब के बाद रॉकेट, उपग्रह बने. आज भारत के इंजीनियर सब काम कर लेते हैं. उम्मीद है कि भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम आगे भी सफल होगा.