अफ़ज़ल की फाँसी के साल भर बाद घाटी की फ़िज़ा
रविवार, 9 फ़रवरी, 2014 को 10:01
नौ फ़रवरी 2013 को जब कश्मीर घाटी
में लोग जागे तो उन्होंने खुद को बेहद कड़े सुरक्षा इंतज़ामों में घिरा
पाया. चप्पे-चप्पे पर सुरक्षाबल तैनात थे. वजह थी संसद हमलों के दोषी अफज़ल
गुरु को तिहाड़ जेल में फाँसी पर चढ़ा कर दफ़न कर दिया जाना.
अब एक साल बाद भी अफ़ज़ल गुरु को दी गई फाँसी की
वैधता पर बहसें ज़ारी हैं साथ ही उनके शव को वापस लाने के लिए भी आवाज़े उठ
रही हैं. तिहाड़ जेल में फाँसी पर चढ़ाकर दफ़नाए गए अफ़ज़ल गुरु पहले
कश्मीरी नहीं हैं.
उनसे पहले जम्मू कश्मीर लिब्रेशन
फ्रंट के मक़बूल बट को भी तिहाड़ ही दफ़नाया जा चुका है. संयोगवश बट को भी
फ़रवरी के महीने में ही 11 तारीख को साल 1984 में फाँसी दी गई थी.
विरोध के स्वर
भारत प्रशासित कश्मीर में सभी अलगाववादी संगठनों
ने दोनों फाँसियों के विरोध और उनके शवों को वापस घाटी लाने के लिए होने
वाले प्रदर्शनों की तारीख़े तय कर दी हैं.
गोष्ठियाँ आयोजित की जा रही हैं, प्रस्ताव पारित
किए जा रहे हैं और सड़कों पर प्रदर्शन हो रहे हैं. लोगों से 9, 10 और 11
फ़रवरी को तीन दिन की हड़ताल रखने के लिए कहा गया है.
अफ़ज़ल गुरु को फाँसी दिए जाने की कश्मीर में
व्यापक प्रतिक्रिया नहीं हुई है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसका घाटी
पर असर नहीं हुआ है. निश्चित तौर पर इसका मनोवैज्ञानिक असर हुआ है.
फाँसी का असर
अफ़ज़ल गुरू की टाइमलाइन
- 13 दिसंबर 2001: भारत की संसद पर हमला हुआ
- 15 दिसंबर 2001: अफ़ज़ल गुरू को दिल्ली पुलिस ने गिरफ़्तार किया
- 18 दिसंबर 2002: पोटा अदालत ने अफ़ज़ल गुरू को फाँसी की सज़ा दी
- 29 अक्टूबर 2003: दिल्ली हाईकोर्ट ने गुरू की अपील को ख़ारिज़ कर सज़ा बरक़रार रखी
- चार अगस्त 2005: सुप्रीम कोर्ट ने भी अफ़ज़ल गुरू की याचिका ख़ारिज़ की
- तीन फ़रवरी 2013: भारत के राष्ट्रपति ने अफ़ज़ल गुरू की दया याचिका ख़ारिज़ की
- नौ फ़रवरी 2013: दिल्ली की तिहाड़ जेल में अफ़ज़ल गुरू को बेहद गुपचुप तरीके से फाँसी देकर दफ़नाया गया
29 साल पहले जब मक़बूल बट को फाँसी दी गई थी तब भी
कुछ होता हुआ दिखाई नहीं दिया था लेकिन इतिहास ग़वाह है कि मकबूल को फाँसी
दिए जाने के बाद सैकड़ों कश्मीरी युवा नियंत्रण रेखा पार कर सैन्य
प्रशिक्षण लेने पाकिस्तान चले गए थे और भारत सरकार को चुनौती देने के लिए
एके 47 राइफ़लों के साथ लौटे थे.
हथियारबंद संघर्ष के पीछे मक़बूल बट की फाँसी ही
इकलौती वजह नहीं थी. उसके कई अन्य कारण भी थे जैसे 1987 चुनावों में कथित
घपलेबाज़ी, अफ़ग़ानिस्तान में जेहाद और ईरान में क्रांति. लेकिन बट को हुई
फाँसी इन सब कारणों पर भारी थी. बंदूक उठाने वाले पहले कश्मीरी युवाओं की
आँखों में भी जम्मू-कश्मीर की आज़ादी का बट देखा सपना ही था.
सिर्फ़ बट को हुई फाँसी से ही चरमपंथ की शुरूआत
नहीं हुई थी लेकिन इसने कश्मीर के युवाओं को अपने इतिहास से ज़रूर जोड़
दिया था. इतिहास जानने के बाद उन्हें अहसास हुआ था कि श्रीनगर और नई दिल्ली
के बीच सबकुछ ठीक नहीं हैं. इसी अहसास ने गुस्सा और अलगाव की भावना पैदा
की.
अगर हम बट की फाँसी से परे देखें तो पाएंगे कि
इंदिरा गाँधी और शेख़ अबदुल्ला के बीच 1975 में हुए समझौते के बाद कश्मीर
ने इस तथ्य को एक तरीके से स्वीकार कर लिया था कि उसे अब भारत के साथ ही
रहना है.
कश्मीर में बहुत कम ही ऐसे लोग थे जो संयुक्त
राष्ट्र के प्रस्तावों या जनमत संग्रह की बात करते थे. हालाँकि हॉकी और
क्रिकेट के मैदानों में जब भारत और पाकिस्तान की टीमें आमने सामने होती थी
तो नारे ज़रूर पाकिस्तान ज़िंदाबाद के लगते थे.
बदले हालात
बट को फाँसी दिए जाने के बाद हालात तेज़ी से बदले.
कश्मीर की जनता ने खुद को अपनी कश्मीरी और मुस्लिम पहचान पर ज़ोर देना
शुरू कर दिया. इसका नतीज़ा यह हुआ कि बट को फाँसी पर चढ़ाए जाने के तीन साल
के भीतर ही मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट का गठन हो गया. फ्रंट चुनावों में उतरा
लेकिन चुनावों पर घपलेबाज़ी के आरोप लगे.
अफ़ज़ल गुरू पर आरोप
- भारतीय दंड संहिता की धारा 121 और
121ए के तहत भारत के ख़िलाफ़ युद्ध करने, युद्ध को प्रेरित करने, युद्ध के
प्रयास करने और युद्ध की साज़िश रचने के आरोप.
- भारतीय दंड संहिता की धारा 122 के तहत भारत के ख़िलाफ़ युद्ध की मंशा से हथियार इकट्ठा करने के आरोप
- भारतीय दंड संहिता की धारा 302 और 307 के तहत हत्या और हत्या के प्रयास के आरोप
- आतंकवाद रोकथाम अधिनियम (2002) की
धारा 3(3) (4) और (5) के तहत चरमपंथी घटना को अंजाम देने की साज़िश रचने
और मारे गए चरमपंथियों को यह जानने के बावजूद की वे चरमपंथी हैं, पनाह देने
और मदद करने के आरोप.
लोकतांत्रिक प्रक्रिया से निराश युवाओं ने सीधे जंग का फ़ैसला कर लिया.
गुरु की फाँसी से पहले के कश्मीर पर एक नज़र डालते
हैं. 2010 में कट्टरपंथी अलगाववादी नेता सैयद अली गीलानी के नेतृत्व में
हुए 'क्विट इंडिया' प्रदर्शनों की नाकामी ने युवाओं को दोबारा सोचने पर
मज़बूर कर दिया.
प्रदर्शनों में सौ से अधिक कश्मीरी युवाओं की मौत
लोगों को इस भ्रम से भी बाहर निकाल दिया कि वे पत्थर फेंककर वे कश्मीर से
भारत को बाहर निकाल सकते हैं.
शांतिप्रिय दौर
मक़बूल बट को 1984 में दिल्ली की तिहाड़ जेल में फाँसी दे दी गई थी. (फ़ाइल फ़ोटो)
इसके बाद के दो साल बेहद शांतिप्रिय रहे. स्कूल
खुले रहे, आर्थिक गतिविधियां चलती रहीं और घाटी पर्यटकों से भर गई. इस सबके
साथ और भी कई सकारात्मक चीज़े हुईं. इसके यह मायने नहीं थे कि कश्मीरी
युवाओं ने भारत के हक़ में फ़ैसला ले लिया था बल्कि वे इच्छाओं से निकलकर
कुछ करने की सोचने लगे थे.
विरोध प्रदर्शनों का आकर्षण ख़त्म हो गया था.
अफ़ज़ल गुरु को फाँसी पर चढ़ाए जाने के हालात ऐसे ही थे जैसे कि 80 के दशक
में बट को फाँसी पर दिए जाने के दौरान थे.
ध्यान देने वाली एक बात और है. युवाओं ने जब
मक़बूल बट को पहचाना, उनके जीवन को पढ़ा और पाया कि वे उदारवादी,
धर्मनिर्पेक्ष और लोकतांत्रिक थे क्योंकि वे एक आज़ाद, प्रजातांत्रिक और
धर्मनिर्पेक्ष कश्मीर चाहते थे.
गुरु के मामले में कहानी बिलकुल उलटी है.
ज़रूरी 'शहीद'
आज के युवाओं को बताया गया है कि अफ़ज़ल गुरु
जैश-ए-मोहम्मद से जुड़े थे. ये ऐसा समूह है जिसमें कश्मीरी कुछ भी नहीं है.
ये एक बड़े वैश्विक जेहाद गठजोड़ का हिस्सा है. इसलिए युवा जब अफ़ज़ल गुरु
को पहचानेंगे तो सीधे या परोक्ष रूप से जैश को भी पहचानेंगे.
सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों को ऊपर से देखने से ही
पता चल जाता है कि कश्मीर के युवा फाँसी के बाद से ही खुद को अफ़ज़ल गुरु
से जोड़ कर देख रहे हैं. फाँसी से पहले बहुत से लोग गुरु को लेकर उदासीन
थे. यहाँ तक की अलगाववादी समूह तक कभी कभार प्रेस रिलीज़ भेजने के सिवा कुछ
खास नहीं करते थे. लेकिन फाँसी पर चढ़ाए जाने के बाद से ही वे एक 'शहीद'
बन गए हैं.
ऐसा 'शहीद' जिसकी अलगाववादियों को बहुत ज़रूरत थी.