रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) का भविष्य अधर में है,धन आवंटन की कमी?रोज़गार की स्थिति में काफ़ी सुधार आया लेकिन वर्तमान सरकार इसे लेकर उत्साहित नहीं
7 Feb 2015
साल
2005 में पारित महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम
(मनरेगा) को भारत में रोज़गार सृजन की दिशा में बड़े क़दम के रूप में देखा
गया था.
इस योजना से भारत के सबसे पिछड़े और ग्रामीण इलाक़ों में
रोज़गार की स्थिति में काफ़ी सुधार आया लेकिन वर्तमान सरकार इसे लेकर
उत्साहित नहीं है.फ़िलहाल इस कार्यक्रम को धन आवंटन की कमी से जूझना पड़ा रहा है.
इसके लागू होने के बाद शुरुआती सालों में इससे मिलने वाले सकारात्मक परिणामों में अब गिरावट देखी जा रही है.
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भारत के ग़रीब कामगार तबक़े की ज़िंदगी पर गहरा असर छोड़ने वाले महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली लेकिन आज यह योजना संकट में है.सितंबर, 2005 में संसद में पारित होने से पहले इस अधिनियम को तत्कालीन सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के एक धड़े के विरोध का सामना करना पड़ा था. अर्थशास्त्रियों के एक छोटे लेकिन प्रभावशाली समूह ने भी इसका विरोध किया था. लेकिन आख़िरकार यह अधिनियम सभी दलों की सहमति से पारित हुआ.
इसकी व्यावाहारिक शुरुआत फ़रवरी, 2006 से देश के 200 पिछड़े ज़िलों में हुई. एक अप्रैल, 2008 से यह देश के सभी ज़िलों में ज़मीनी स्तर पर लागू हुआ.
यह अधिनियम देश की नीतियों में एक बुनियादी बदलाव दिखाता है. रोजग़ार के नीतिगत प्रावधानों के बरअक्स यह अधिनियम भारत के ग्रामीण इलाक़ों में अकुशल श्रमिकों को 100 दिन के रोजग़ार को संविधान प्रदत्त अधिकार बनाता है. इसके तहत किसी भी ग्रामीण को ज़रूरत पड़ने पर किसी लोक निर्माण परियोजना में काम दिया जा सकता है.
रोज़गार में बढ़ोतरी
मनरेगा के तहत लोगों को पहले की सभी योजनाओं की तुलना में ज़्यादा रोज़गार मिले. हालांकि औसतन हर व्यक्ति को अधिनियम में निर्धारित 100 दिनों से कम ही काम मिला.इस योजना के तहत साल 2006-07 के प्रति व्यक्ति कार्य दिवस 43 दिन से साल 2009-10 में प्रति व्यक्ति 54 दिन हो गया. हालांकि उसके बाद से इसमें गिरावट आई है. इसके बावजूद इस योजना में शामिल परिवारों और इससे मिलने वाले रोज़गार के दिनों की संख्या काफ़ी प्रभावशाली है.
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार साल 2008-09 में क़रीब 23.10 अरब प्रति व्यक्ति कार्य दिवस रोज़गार मिला जिससे हर साल लगभग पाँच करोड़ परिवार लाभान्वित हुए. इसमें से क़रीब आधे प्रति व्यक्ति कार्य दिवस महिलाओं को मिले.
कई अध्ययनों से यह साफ़ हुआ है कि इस अधिनियम से ग्रामीण मज़दूरी और ग़रीबी पर सकारात्मक असर पड़ा है, रोज़गार के लिए पलायन रुका है, महिलाओं और एससी-एसटी का सशक्तिकरण हुआ है, ग्रामीण आधारभूत ढांचे का विकास हुआ है, उत्पादन क्षमता और संस्थानिक क्षमता बेहतर हुई हैं.
इस कार्यक्रम की वजह से स्त्रियों और पुरुषों के न्यूनतम मज़दूरी के अंतर में भी कमी आई है. महिलाओं को इसकी वजह से न्यूनतम मज़दूरी के लगभग बराबर मज़दूरी मिलने लगी है.
समय के साथ आई बेहतरी
कई संस्थागत सुधारों की वजह से समय के साथ इस कार्यक्रम के क्रियान्वयन में बेहतरी आई है लेकिन कुछ चिंताएँ लगातार बनी हुई हैं क्योंकि बिहार, ओडिशा और झारखंड जैसे राज्यों का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है. इन राज्यों में इस योजना में गड़बड़ियाँ भी ज़्यादा हुई हैं.कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने कई सालों तक इस कार्यक्रम के लिए धन का आवंटन नहीं किया था जिसके कारण रोज़गार सृजन में कमी आई, माँग पूरी नहीं हो सकी और बक़ाया मज़दूरी बढ़ती गई.
नई केंद्र सरकार भी मनरेगा को लेकर ज़्यादा उत्साहित नहीं है. इसका कारण समझा जा सकता है. प्रधानमंत्री के गृह प्रदेश गुजरात में इस कार्यक्रम का प्रदर्शन फीका रहा है.
मौजूदा सरकार मनरेगा को फिर से 200 ज़िलों तक सीमित करना चाहती है और इसके लिए सभी प्रदेशों (भाजपा शासित समेत) को आवंटित की जाने वाली धनराशि में भी कटौती की गई है. सरकार ने कार्यक्रम के तहत मैटेरियल कम्पोनेंट का अनुपात भी बढ़ा दिया है जिससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा ही मिलेगा.
बक़ाया मज़दूरी
आधिकारिक आंकड़ों और फ़ील्ड रिपोर्टों के अनुसार केंद्र में भाजपा सरकार आने के बाद से मनरेगा कार्यक्रम के प्रदर्शन में गिरावट आई है. भारतीय वित्त वर्ष (अप्रैल-मार्च) की मनरेगा रिपोर्ट और इस वित्त वर्ष के नौ महीनों(अप्रैल-दिसंबर, 2014) के ताज़ा आंकड़े उपलब्ध हैं.इस कार्यक्रम के लिए सबसे बड़ी समस्या बक़ाया मज़दूरी बनती जा रही है जो इस समय क़रीब 75 प्रतिशत हो चुकी है. हाल ही में कुछ राज्यों के अपने दौरे के दौरान मैंने देखा कि कई जगहों पर फंड की कमी, बढ़ती बक़ाया मज़दूरी और इसके भविष्य के प्रति अनिश्चितता के कारण यह कार्यक्रम लगभग थम गया है.
अच्छे परिणामों के बावजूद मरनेगा का भविष्य अनिश्चित है. मौजूदा सरकार इसे लेकर कोई उत्साह नहीं दिखा रही है. संयोगवश योजना आयोग की जगह लेने वाले नीति आयोग में जिन दो अर्थशास्त्रियों की नियुक्ति की गई वो दोनों ही सामाजिक सुरक्षा वाले अन्य कार्यक्रमों समेत मनरेगा के मुखर आलोचक रहे हैं.
मनरेगा से जुड़े आँकड़ें
- वित्त वर्ष 2012 के पहले नौ महीनों में चार करोड़ 16 लाख घरों को रोज़गार मिला
- वित्त वर्ष 2013 के पहले नौ महीनों में तीन करोड़ 81 लाख घरों को रोज़गार मिला
- वित्त वर्ष 2014 के पहले नौ महीनों में तीन करोड़ साठ लाख घरों को रोज़गार मिला
- मार्च-दिसंबर 2012 में 1.4 अरब प्रति व्यक्ति कार्य दिवस
- मार्च-दिसंबर 2013 में 1.35 अरब प्रति व्यक्ति कार्य दिवस
- मार्च-दिसंबर 2014 में 1.22 अरब प्रति व्यक्ति कार्य दिवस