‘सालेहा अब पंद्रह साल की होती. अगर वह सब न हुआ होता.’
सालेहा बिलक़ीस बानो की पहली बेटी थीं. वो मार्च 2002 में हुए गुजरात दंगों के वक़्त दो साल की रही होंगी.
सिर्फ़ सालेहा की हत्या नहीं हुई, बल्कि 2002 में गर्भवती बिलक़ीस के साथ दंगाइयों ने सामूहिक बलात्कार भी किया.
बिलक़ीस बानो गुजरात दंगों की दरिंदगी के शायद सबसे
बड़े पीड़ितों में से एक हैं, चश्मदीद गवाह भी और वह सबूत भी, जो किसी तरह
जिंदा रह गए - अपनी दास्तां बयां करने के लिए.
बिलक़ीस बानो उन छह करोड़ गुजरातियों में से एक हैं, जिनके विकास के दावे के साथ नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं.
तस्वीरों में: बिलक़ीस का परिवार
"बिलक़ीस बानो गुजरात के दंगों की दरिंदगी की शायद सबसे बड़ी शिकार हैं. कैसे बने बिलक़ीस और उनका परिवार क़तार के आख़िरी?"
बिलक़ीस आज तीन बच्चों की मां हैं. इस मुलाक़ात के वक़्त उनके पति याक़ूब भाई और छोटी बेटी उनके साथ थे.
गुजरात में कहीं एक छोटा सा घर है. ड्रॉइंगरूम में दो
कुर्सियाँ, एक शेल्फ़ जिसमें बच्चों के खिलौने, स्कूल की कॉपी-किताबें
हैं. उन्होंने मुझसे कहा कि इस शहर का नाम मत लिखना.
जब मैं उनसे मिलने पहुँची, तो बिलक़ीस के दो बच्चे
स्कूल गए थे. उनकी बेटी मां को हिदायत दे गई थी कि हमारे नाम मत बताना और
छोटी की तस्वीर मत खींचने देना. मां को सलाह देने वाली ये बच्ची 12 साल की
है.
बच्चे जानते हैं कि क्या हुआ था?
वे बताती हैं, "बड़ी बेटी अभी 12 साल की है. वह तो
रिलीफ़ कैंप से निकलते ही पैदा हुई और यही सब सुनकर बड़ी हुई है. बच्चे
नहीं चाहते कि स्कूल वग़ैरह में लोग जानें कि वे बिलक़ीस के बच्चे हैं.
उन्हें डर है कि उनके साथ कुछ बुरा हो जाएगा. पड़ोसियों के साथ उनका
बात-व्यवहार है, पर वो बिना काम किसी से ज़्यादा बात नहीं करते."
बिलक़ीस बानो जब मुझे यह सब बता रहीं थीं, तो उनके
चेहरे पर एक तरह की उदासीनता थी और आंखों में सूनापन, मानो किसी और के बारे
में बात कर रही हों. बिना अपना संतुलन, अपना आपा खोए, बिना ग़ुस्सा हुए,
बिना आंसू छलकाए.
शायद इसलिए कि वह यह सब इन 12 सालों में पता नहीं
कितनी बार कहां-कहां दुहरा चुकी होंगी! शायद इसलिए कि जब ज़िंदगी इतने
ख़ौफ़नाक रास्तों से गुजरती है, तो उसे साफ़ देख पाने के लिए अपनी भावुकता
से उबरना ज़रूरी हो जाता है.
बेटी की हत्या, सामूहिक बलात्कार
गुजरात दंगे
गुजरात के गोधरा इलाक़े में
27 फरवरी 2002 को अयोध्या से लौट रहे 59 लोगों की ट्रेन में जलाकर हत्या कर
दी गई थी. इसके बाद गुजरात के कई इलाक़ों में दंगे भड़क गए. एक के बाद एक
इलाक़े और बस्तियां इसकी चपेट में आते गए. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ इन
दंगों में कुल 687 करोड़ की संपत्ति का नुकसान हुआ जिसमें से 600 करोड़ की
संपत्ति मुसलमानों की थी. भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक़ दंगों में कुल
1267 लोग मारे गए. दंगों में महिलाओं पर हमले के 185 मामले सामने आए.
बच्चों पर हमले के 57 मामले और बलात्कार के 11 मामले सामने आए. दंगों की
जांच के लिए नानावती आयोग का गठन मार्च 2002 में तीन महीने के लिए हुआ,
जिसकी कार्यावधि 16 बार बढ़ाई गई.
उन्होंने बताया, "जब हमारा गाँव रणधीकपुर जलने लगा,
तब तक हमें पूरे वाकये के बारे में कुछ पता भी नहीं था. मैं अपने ससुराल
वालों के साथ, जिनमें ज़्यादातर औरतें थीं, किसी सलामत (सुरक्षित) जगह पर
जाने के लिए निकली.''
''गांव के सरपंच से मदद मांगी, लेकिन वहां कोई आस
नहीं दिखी. नंगे पांव हम कुवाझैर गांव गए. तब मेरी ननद को पूरे नौ महीने का
गर्भ था. गांव में एक दाई के घर डिलीवरी करवाई और पूरी रात वहां की मस्जिद
में छिपकर रहे.
12-13 घंटों की लड़की को लेकर हम दूसरे दिन आगे के
गांव पहुंचे. वहां के कुछ लोगों ने बच्ची को देखा और आसरा दिया. पता नहीं
कैसे दंगाखोरों को पता चल गया और वो सब वहां आ गए. हमने वहां से भागने की
कोशिश की, लेकिन उस भीड़ के सिर पर ख़ून सवार था. उन्होंने सबको काट दिया,
औरतों के कपड़े फाड़ दिए."
बिलक़ीस उस वक़्त गर्भवती थीं. उनके साथ सामूहिक
बलात्कार किया गया. उस बारे में बयान करते वक़्त वह पहली बार मुझे थोड़ी
असहज होती दिखीं.
उन्हीं के शब्दों में,
"जब मुझे होश आया, तब मेरे
शरीर पर सिर्फ़ पेटीकोट था. मेरा दुपट्टा, ब्लाउज़ सब फट चुका था. आसपास
देखा, तो उन सबकी लाशें दिखाई दीं, जिनके साथ
मैं घर से जान बचाने के लिए
निकली थी.
मैंने मेरी छोटी बेटी सालेहा को भी वहीं देखा. वह मेरी जान थी,
लेकिन तब उसमें जान नहीं बची थी.
बड़ी मुश्किल से मैं पास वाले टीले पर चढ़
गई. वहां किसी जानवर की छोटी सी गुफ़ा थी, चौबीस घंटे मैंने वहां काटे."
बिलक़ीस बानो ने मुझसे कहा, "वे तीन लोग थे. गांव के
थे. मैं जानती थी उनको. उन्होंने मेरी बच्ची को पटककर मार दिया, मेरी पहली
बेटी. क़रीब दो घंटे बाद मुझे होश आया. एक रात गुफ़ा में काटने के बाद मैं
नज़दीक के गांव में पहुंची, तो वहां भी सब मुझे मारने के लिए तैयार थे,
लेकिन मैंने तब आदिवासी गुजराती में बात की. पानी मांगा, दुपट्टा और
ब्लाउज़ मांगे."
गगन सेठी, सामाजिक कार्यकर्ता
बिलक़ीस बानो का संघर्ष
बताता है कि इस देश में क़ानून व्यवस्था का कांटा ग़रीबों की ओर नहीं झुका
है. अगर आप शासन समर्थित दंगे के शिकार होते हैं, तो फिर आपकी लड़ाई और
मुश्किल हो जाती है. बिलक़ीस के साथ दरिंदगी हुई. बच्ची को मार डाला गया.
उसका घर-बार उजड़ा. वह मानसिक रूप से टूट गई थी लेकिन उसने हिम्मत नहीं
हारी. कुछ साल गुमनामी में बिताने के बाद वह हिम्मत के साथ फिर खड़ी हुई.
उसने शासन व्यवस्था को हिला दिया. यह उसके लिए मुश्किल भरा इसलिए भी था
क्योंकि वह पढ़ी-लिखी और संपन्न तबक़े से नहीं थी. मगर उसके हौसले ने बताया
कि एक आम हिंदुस्तानी औरत क्या कर सकती है.
इसके बाद जब वहां बिलक़ीस ने एफ़आईआर दर्ज करवाने की
कोशिश की, तो पुलिस ने मना कर दिया. बहुत कहने पर एफ़आईआर तो लिखी, लेकिन
क्या लिखा वह अनपढ़ बिलक़ीस को नहीं बताया गया.
एक दिन बाद वह गोधरा रिलीफ़ कैंप में पहुँची. जहां वह
तीन-चार महीने रहीं. उनके पति याकूब भाई 15 दिन बाद वहां पहुंचे. बिलक़ीस
और याकूब के बीच कभी भी उनके साथ हुए दुर्व्यवहार के बारे में बात नहीं
हुई.
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की मदद से बिलक़ीस का केस
महाराष्ट्र लाया गया. इस मामले में बलात्कार के अभियुक्तों को सज़ा सुनाई
गई. फ़ैसला होने में छह साल लग गए.
"हमने कोर्ट से फ़ैसला आने से पहले इतनी बार घर बदले
हैं कि बच्चों की पढाई भी ठीक से नहीं हो पाई. घर मिलने में भी बहुत
दिक़्क़तें होती थीं. आज भी हम किसी को आसानी से अपना पता नहीं बताते हैं."
2002 के बाद वोट नहीं किया
चुनाव के बारे में क्या विचार है? यह पूछते ही
बिलक़ीस कहती हैं, "हमने तो 2002 के बाद वोट ही नहीं डाला. गांव में वापस
जाएंगे, तो पता नहीं क्या हो जाएगा!”
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की संभावना पर वे
कहती हैं, “ये मुसलमानों के लिए ठीक नहीं होगा. हमारा तो सरकार पर से
विश्वास ही उठ गया है. 12 साल हो गए उस हादसे को, लेकिन न कोई हमदर्दी है, न
माफ़ी मांगी है किसी ने. सिर्फ़ बच्चों के लिए ज़िंदा हैं, वरना तो पता
नहीं हम क्या करते. डर भी लगता है, ग़ुस्सा भी आता है."
सरकार या लोकतंत्र से भरोसा भले ही उठ चुका हो, लेकिन
अपने बच्चों की आँखों में झलकते प्यार पर बिलक़ीस को ज़रूर भरोसा है. वही
बच्चे जो बिलक़ीस की औलाद नहीं कहलाना चाहते.