आरएसएस भर रहा भाजपा में कूड़ा: जसवंत सिंह
शुक्रवार, 28 मार्च, 2014 को 15:50 IST तक के समाचार
“उम्र सारी कटी
इश्क-ए-बुता में मोमिन, आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमां होंगे” मोमिन
की इसी शायरी को दोहरा दिया जसवंत सिंह ने जब हमने उनसे पूछा कि बीजेपी
छोड़ने के बाद आपने कांग्रेस का दामन क्यो नहीं थामा.
हाल ही में बाड़मेर से टिकट न मिलने के बाद अपनी
पार्टी के खिलाफ़ ही निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर खड़े होकर चर्चा में हैं
भारतीय जनता पार्टी के पूर्व नेता जसवंत सिंह. अटल बिहारी वाजपेयी के
कार्यकाल में जसवंत सिंह दो बार वित्त मंत्री रहे हैं और एक-एक बार रक्षा
और विदेश मंत्री भी. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में बाड़मेर सीट पर उनकी
दावेदारी पर कांग्रेस से भाजपा में आए सोनाराम चौधरी को तवज्जो दिए जाने के
बाद जसवंत उखड़ गए.
दिए एक ख़ास साक्षात्कार
में संघ का बीजेपी में भूमिका जैसे कई मुद्दों पर बोले साथ ही उन्होने ये
भी बताया कि क्यों अभी तक वो नरेंद्र मोदी को लेकर चुप रहे.
वो न सिर्फ राजनाथ सिंह की राजनीतिक विवशता पर
बोले बल्कि बीजेपी के प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया को भी आड़े हाथों लिया.
प्रत्याशियों के चुनाव और सीट के वितरण पर संघ के प्रभाव पर जसवंत सिंह ने
कहा कि "संघ इस चुनाव को अहमियत दे रहा है लेकिन इसकी कीमत, सड़क पर से
सारा कूड़ा करकट बटोरकर वह उन्हें बीजेपी के उम्मीदवार बना रहा है."
संवादादाता से बातचीत का विस्तृत ब्यौरा:
जसवंत जी स्वागत है आपका
शुक्रिया जनाब, आजकल स्वागत का अकाल सा पड़ा हुआ है, इसलिए जहां से भी स्वागत मिल जाए बहुत अच्छा लगता है.
आपके अलावा और भी कई लोग हैं जो पार्टी के टिकट वितरण से परेशान हैं ?
हां परेशान ज़रूर हैं , लेकिन मेरी परेशानी बिलकुल
अलग है. मैने बाड़मेर के अलावा चित्तौड़ या जोधपुर से टिकट की मांग की थी
लेकिन मुझे टिकट नहीं दिया, कोई बात नहीं, लेकिन उस नेता (सोनाराम चौधरी)
को टिकट दे दी जो इतने सालों से हमें गाली देते हुए आए हैं, हमारे ख़िलाफ़
रहे हैं और बीते विधानसभा चुनाव में बीजेपी से हारे हैं, आज उसी नेता को
आपने (भाजपा) अपना कैंडिडेट बना लिया. ये तर्क समझ नहीं आया.
जसवंत जी, पार्टी के टिकट वितरण से तो
आडवाणी जी भी नाराज़ थे, सुषमा स्वराज भी नाराज़ थीं लेकिन किसी ने पार्टी
नहीं छोड़ी. आपने ऐसा कदम क्यों उठाया ?
क्योंकि मेरे पास और कोई उपाय नहीं है. ये चुनाव
लड़ने के लिए मैंने बहुत प्रयत्न किया लेकिन मेरी आवाज़ सुनी नहीं और फ़िर
एक प्रकार से ढोंग होता कि मैं पार्टी में भी हूं और पार्टी के ख़िलाफ़
चुनाव भी लड़ रहा हूं, ये तर्कसंगत बात नहीं आती.
तो आप कांग्रेस के साथ क्यों नहीं गए, जब कांग्रेस के नेता वहां से यहां आ सकते हैं तो आपने ये विकल्प क्यों नहीं चुना?
(हंसते हुए) ये तो आप अन्याय करेंगे ये प्रश्न
पूछकर. कांग्रेस से मेरा क्या लेना-देना. इतने वर्षों में मैं भाजपा के
अलावा किसी दल में नहीं गया और सोचा भी नहीं... अब क्या ख़ाक मुसलमां होंगे
यहां आकर हम...
जसवंत जी, आप भारतीय जनता पार्टी के बारे
में बोले, आप वसुंधरा राजे के बारे में बोले, आप राजनाथ सिंह के खिलाफ़ भी
बोले लेकिन आप नरेंद्र मोदी पर अब तक चुप रहे ऐसा क्यों ?
भई उनका रोल क्या रहा है मुझे उसका ज्ञान नहीं और
जो चयन हुआ है वो राजस्थान में हुआ है. वसुंधरा राजे, सोनाराम का नाम
सेंट्रल कमेटी के सामने लाई और राजनाथ सिंह ने इस पर आखिरी फ़ैसला लिया.
भले ही वो इसे ‘राजनीतिक विवशता’ का नाम दे रहे
हैं लेकिन ये विवशता क्या है इसे वो खुल कर नहीं बता सकते. ये उनका फ़ैसला
है और अन्य किसी का इसमें हाथ नहीं है.
तो इसका मतलब आप नरेंद्र मोदी का समर्थन करते हैं, और अगर आप जीते तो भाजपा में वापस लौटेंगे, उन्हें समर्थन देंगे ?
ये बात बहुत दूर की बात है लेकिन मेरी भारतीय जनता पार्टी में लौटने की कोई इच्छा नहीं है.
आप नरेंद्र मोदी के बारे में नहीं बात कर
रहे हैं, वो तो भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं. उनके बारे में
क्या राय है आपकी ?
वो भाजपा का चुनाव हैं और पार्टी व्यक्ति विशेष की राजनीति में उलझ गई है. अच्छा होता कि वो इसमें नहीं उलझते.
पार्टी में आपकी न सुने जाने का कारण आपके
संघ के साथ तनावपूर्ण संबंधों को भी बताया जा रहा है. क्या ये सही है कि
रज्जू भैय्या पर की गई आपकी टिप्पणी का खामियाज़ा आप अब भुगत रहे हैं ?
मुझे याद नहीं कि मैंने कब रज्जू भैय्या के खिलाफ़
कुछ कहा. मेरे हमेशा उनसे पारिवारिक संबंध रहे और मेरे किसी पुराने बयान
को ढूंढ कर पेश किया गया है जिसका मेरे चुनाव से कोई सरोकार नहीं है. मेरे
बारे में फ़ैसला राजनाथ सिंह ने लिया है.
तो आप मानते हैं कि संघ की इस चुनाव में कोई भूमिका नही हैं ?
मैंने सुना है कि आरएसएस इस चुनाव को बहुत महत्ता
दे रहा है लेकिन इसके लिए वो क्या कीमत चुका रहे हैं. वो सड़क से सारा
कूड़ा करकट उठाकर भाजपा के प्रत्याशियों के रूप में आगे कर रहा है.
राम मंदिर का क्या होगा? क्या अब ये कोई मुद्दा नहीं है ?
मैंने तो आडवाणी जी से पहले ही कहा था कि एक राम
मंदिर और बन जाने से या न बनने से भगवान राम की महत्ता बढ़ या घट नहीं
जाएगी. ये मुद्दा है ही नहीं और विकास इससे बड़ा मुद्दा है.
क्या ये चुनाव आपके सम्मान का चुनाव है?
ये मेरे सम्मान से ज़्यादा मेरे अस्तित्व का चुनाव है और मेरे क्षेत्र के सम्मान का चुनाव है. मेरा सम्मान इस सबके आगे गौण है.
जसवंत सिंह ने इस पूरी बातचीत के दौरान नरेंद्र
मोदी से किसी भी तरह की नाराज़गी से इनकार किया और साथ ही खुद को संघ से
अलग जरूर माना लेकिन उनके ख़िलाफ़ नहीं माना.
जानिए क्या कहा था जसवंत सिंह ने रज्जू भैय्या के बारे में:
संघ को आँख दिखाकर बच पाते जसवंत सिंह?
भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज
जसवंत सिंह को अगर यह ग़लतफ़हमी थी कि वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आँखें
दिखाकर पार्टी में बने रह सकते हैं और मनचाही जगह से टिकट पा सकते हैं, तो
वह अब दूर हो गई है.
आख़िर कौन बीजेपी नेता है, जो यह कहने की हिम्मत कर सके कि सरसंघचालक की बात कोई ईश्वर की वाणी नहीं है कि उसे मान लिया जाए?
जसवंत सिंह ने नवंबर 2013 में
दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि पूर्व सरसंघचालक
प्रोफ़ेसर राजेंद्र सिंह उर्फ़ रज्जू भैया की बात “कोई श्रीकृष्ण उवाच,
ईश्वर की वाणी नहीं है...मैं (उनकी बात से) सहमत नहीं हूँ”?
संदर्भ था साल 1999 में एअर इंडिया के विमान का
अपहरण जिसे चरमपंथी कंधार ले गए थे. तब रज्जू भैया ने कहा था कि हिंदू
डरपोक होता है और विमान में सवार हिंदू युवकों को इकट्ठा होकर अपहरणकर्ताओं
को क़ाबू कर लेना चाहिए था.
इस पर जसवंत सिंह ने कहा था कि वो दिवंगत आरएसएस
प्रमुख की बात से सहमत नहीं है क्योंकि वो ईश्वर की वाणी नहीं है. संघ के
वरिष्ठ नेता भारतीय जनता पार्टी और उसके नेताओं पर कड़ी से कड़ी टिप्पणी
करने से नहीं चूके हैं पर आम तौर पर भारतीय जनता पार्टी के नेता संघ के
अधिकारियों पर कड़वी टिप्पणी करने से बचते हैं.
ख़ामियाज़ा?
पर जसवंत सिंह ने यह हिम्मत की और अब भारतीय जनता
पार्टी ने बाड़मेर से लोकसभा चुनाव लड़ने की उनकी ख़्वाहिश को पूरा नहीं
होने दिया. उनकी जगह काँग्रेस छोड़कर हिंदुत्ववादी पार्टी में आ पहुँचे
कर्नल सोनाराम को टिकट दे दिया गया.
पार्टी महासचिव अरुण जेटली ने जसवंत सिंह को
‘एडजस्ट’ करने की बात कहकर जैसे उनके ज़ख़्मों पर नमक छिड़क दिया और सिंह
ने कहा कि “मैं कोई मेज़ कुर्सी नहीं हूँ कि मुझे कहीं ‘एडजस्ट’ कर दिया
जाए”.
जिस लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी, और
दरअसल आरएसएस का सर्वस्व दाँव पर लगा हो, उससे ऐन पहले जसवंत सिंह ने आज़ाद
उम्मीदवार के तौर पर बाड़मेर से पर्चा दाख़िल करके बग़ावत का बिगुल बजा ही
दिया है.
यह पहले भी कई बार कहा जा चुका है कि 2014 का
चुनाव भारतीय जनता पार्टी नहीं बल्कि आरएसएस लड़ रहा है. पिछले दस साल से
संघ सत्ता की परिधि से बाहर रहा है और उसे इसका नुक़सान भी हुआ है. इसलिए
इस बार वह चाहता है कि किसी भी क़ीमत पर केंद्र में स्वयंसेवकों की सरकार
बने.
हालाँकि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार के दौरान जब संघ और विश्व हिंदू
परिषद जैसे आनुषांगिक संगठनों ने पर्दे के पीछे से सरकार पर नियंत्रण करने
की कोशिश की थी तो वाजपेयी ने एक बार इस्तीफ़ा देने की धमकी तक दे डाली थी.
वाजपेयी जैसा बूता
उस दौर में बीजेपी और संघ के
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रिश्तों में इतनी खटास आ गई थी कि संघ के बुज़ुर्ग नेता
दत्तोपंत ठेंगड़ी ने अटल बिहारी वाजपेयी की तुलना "घटिया राजनीतिज्ञ" से कर
दी. तभी रामलीला मैदान में भारतीय मज़दूर संघ की एक रैली में ठेंगड़ी ने
तत्कालीन वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा को खुलेआम अपराधी कहा था.
अटल बिहारी वाजपेयी संघ के कटाक्षों और हमलों के
सामने खड़े रहे चूँकि वो अटल बिहारी वाजपेयी थे, और उस दौर में सरसंघचालक
कोई क़द्दावर नेता नहीं बल्कि कुप्पहल्लि सीताराम सुदर्शन थे जिन्हें उनके
कार्यकाल में ही हटा दिया गया था.
पर जसवंत सिंह हों या मुरली मनोहर जोशी या
लालकृष्ण आडवाणी हों- इनमें वाजपेयी जैसा बूता नहीं है जो राजनीतिक
परिदृश्य के हर रंग में अपने प्रशंसक पा सके.
इस समय आरएसएस के विचार और कार्यक्रम को कमर कसकर
और पूरे उग्र भाव से लागू करने वाला अगर कोई नेता है, तो वो हैं नरेंद्र
दामोदर मोदी.
इसलिए मोदी की राह में रोड़ा बनने वाले हर बाहरी
या भीतरी तत्व को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बर्फ़ में लगाने में संकोच नहीं
करेगा- जैसा कि मुरली मनोहर जोशी और आडवाणी को किया.
किसकी बीजेपी?
बाड़मेर से जसवंत सिंह को टिकट न दिए जाने के एक
से अधिक कारण हो सकते हैं. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को स्वीकार कर चुके
पार्टी के नेता मानते हैं कि यह चुनाव लड़ने के लिए या अपना कोई तर्क सिद्ध
करने के लिए नहीं बल्कि जीतने और केंद्र में सरकार बनाने के लिए लड़ा जा
रहा है.
ऐसे में जीतने की संभावना वाले उम्मीदवारों को ही
टिकट दिया जा रहा है और इसके कारण बड़े-बड़े महारथियों को रथ से या तो उतार
दिया जा रहा है या फिर उन्हें समरक्षेत्र के अँधेरे कोनों में जाने को कह
दिया गया है.
बाड़मेर में जिन सोनाराम को टिकट दिया गया है वह
1996, 1998 और 1999 में काँग्रेस से चुनाव जीत चुके हैं. सिर्फ़ 2004 के
चुनावों में जसवंत सिंह के बेटे मानवेंद्र सिंह ने यहाँ से लोकसभा चुनाव
जीता. पिछले चुनावों में भी काँग्रेस प्रत्याशी ही बाड़मेर से जीते.
"राजनाथ सिंह और वसुंधरा राजे सिंधिया ने मेरे साथ ग़द्दारी की, मुझे धोखा दिया."
ये सभी जानते हैं कि जसवंत सिंह ने संघ की शाखाओं
में राजनीतिक दीक्षा नहीं ली. पर बीजेपी में सुषमा स्वराज जैसे कई नेता हैं
जो आरएसएस की परिधि से बाहर से राजनीति में आए और अब महत्वपूर्ण पदों पर
आसीन हैं.
आलोचना करने की हिम्मत
इनमें से कितने नेता हैं जो आरएसएस में “पूजनीय”
समझे जाने वाले अधिकारियों की खुलेआम आलोचना करने की हिम्मत कर सकें? अटल
बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सत्ता में
था तो आरएसएस अरुण जेटली जैसे नेताओं से बहुत ख़ुश नहीं था. पर जेटली हमेशा
संघ पर टिप्पणी करने से बचते रहे.
पर जसवंत सिंह ने न तो संघ के पुरोधाओं की परवाह
की और न ही अब ये कहने में संकोच किया कि “राजनाथ सिंह और वसुंधरा राजे
सिंधिया ने मेरे साथ ग़द्दारी की, मुझे धोखा दिया.”
साथ ही बाड़मेर में जसवंत सिंह के समर्थकों ने अटल
बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की तस्वीरों वाले पोस्टर लगा दिए हैं–
यानी संदेश सीधा है कि जिस भारतीय जनता पार्टी में जसवंत सिंह हैं उसके
नेता नरेंद्र मोदी नहीं हैं.
जसवंत सिंह एक और संदेश दे रहे हैं कि नरेंद्र
मोदी उस भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं जिसमें लालकृष्ण आडवाणी, मुरली
मनोहर जोशी या जसवंत सिंह जैसे क़द्दावरों की नहीं बल्कि आपराधिक
गतिविधियों में शामिल होने का आरोप झेल रहे (गुजरात के पूर्व गृहमंत्री और
नरेंद्र मोदी के दाहिने हाथ) अमित शाह की चलती है.