व्यक्तिगत स्वतंत्रता:समलैंगिकों पर किसी को एतराज़ क्यों?
रविवार, 15 दिसंबर, 2013 को 07:15 IST तक के समाचार
समलैंगिक दुनिया के हर समाज में
हर दौर में मौजूद रहे हैं. मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास की प्रक्रिया
में जो भी नैतिक मूल्य सभ्य समाज का हिस्सा बनें, उनमें समलैंगिकों को कभी
भी अच्छी नज़र से नहीं देखा गया.
दुनिया के लगभग सभी धर्मों ने समलैंगिकता को न
केवल ग़ैरकुदरती कहा है बल्कि कुछ मजहबों में समलैंगिकता के लिए सज़ा की भी
बात कही गई है. चूंकि लोकतंत्र निजी आज़ादी, बराबरी और अपनी बात कहने के
अधिकार की गारंटी देता है इसलिए लंबे समय से ये बहस जारी है कि समलैंगिकता
भी व्यक्तिगत अधिकार के दायरे में आती है या नहीं.और क्या इसे स्वीकार न करने से व्यक्ति के निजी अधिकारों का उल्लंघन तो नहीं होता है. मानव समाज और संस्कृति विकास की एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया का हिस्सा हैं. वक्त के साथ साथ व्यक्ति की सोच और उसके मूल्य भी बदलते हैं और समाज भी बदल जाता है.
समलैंगिकता हमेशा से मौजूद रही है लेकिन उसे समाज में स्वीकृति प्राप्त नहीं थी इसलिए समलैंगिक रुझान रखने वाले लोग भेदभाव और सामूहिक अपमान के डर से सामने नहीं आते थे. समलैंगिक आंदोलन यूरोप और अमेरिका में समान अधिकार के लिए लंबे समय से संघर्ष करती रही है.
धीरे धीरे इसे समाज की एक हकीकत और दो व्यक्तियों के बीच इसे एक कुदरती यौन रुझान के रूप में स्वीकार किया जाने लगा. यूरोप के अधिकांश देश और अमेरिका की ज्यादातर राज्यों में समलैंगिक होने के आधार पर भेदभाव और अपमान का सिलसिला अब बंद हो चुका है. कई देशों में एक ही लिंग के दो लोगों के बीच की शादी को को वैधता मिल चुकी है.
निजी आजादी
भारत का संविधान व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देता है. संविधान के अनुसार कोई दो वयस्क मनुष्य गोपनीयता में आपसी इच्छा के साथ यौन संबंध बनाने का अधिकार रखते हैं. चार साल पहले दिल्ली हाई कोर्ट ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए ही समलैंगिकों के बीच सेक्स को अपराध की श्रेणी से निकाल दिया था.
दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा था कि आईपीसी की धारा 377 व्यक्ति की स्वतंत्रता और आपसी सहमति से किसी को पसंद करने की आज़ादी के अधिकार को नुकसान पहुंच रहा था. हाईकोर्ट का ये फ़ैसला संविधान और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के मुद्दे पर एक ऐतिहासिक मिसाल था.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फ़ैसले को खारिज करते हुए समलैंगिकों के आपसी सहमति से बनाए गए यौन संबंधों को फिर से अपराध की श्रेणी में डाल दिया है. लगता है सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फ़ैसले से वक्त पीछे धकेल सा दिया है. इस फ़ैसले पर हर तरफ से आलोचना हो रही है.
सामाजिक सवालों पर हमेशा चुप्पी साध लेने वाली कुछ सियासी पार्टियों ने भी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर अफ़सोस जताया है. केवल भारत के कुछ धार्मिक संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट की सराहना की है. उनकी तारीफ़ समझ में आती है क्योंकि वे समलैंगिक होने के सख़्त ख़िलाफ़ हैं.
अल्पसंख्यक
समलैंगिक, भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यकों की तरह ही एक अल्पसंख्यक हैं जो इंसानी रिश्तों और यौन संबंधों को वैसी ही नज़र से देखते हैं जैसा कि पारंपरिक तौर पर देखा जाता है. उनका यह विचार किसी धर्म, संविधान और किसी विचारधारा या किसी अन्य व्यक्ति की आजादी का खंडन नहीं करता है.
समलैंगिक होना दो इंसानों के बीच आपसी रज़ाममंदी और कुदरती आकर्षण से पैदा होने वाला एक मानवीय और भावनात्मक रिश्ता है. ऐसे संबंधों से किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता आहत नहीं होती और न ही किसी कानून का उल्लंघन होता है. वास्तव में कई लोगों के लिए यह रीति रिवाजों से परे है और उनके लिए समलैंगिकों के ऐसे यौन संबध अस्वीकार्य हैं.
क्योंकि वे इस रिश्ते को प्रकृति के नियमों के ख़िलाफ़ मानते हैं. उन्हें यह सोच रखने और समलैंगिकता को स्वीकार न करने का पूरा हक है लेकिन अगर कोई व्यक्ति किसी दूसरे की आज़ादी और जिंदगी में दख़ल दिए बग़ैर अपने तरीके से अपनी ज़िंदगी अपनी मर्जी से जीने की कोशिश कर रहा हो तो उसे भी ज़िंदगी जीने का अधिकार है.