क्या मोदी की नीति 'दागो और भागो' वाली है ?
कहा
जाता है कि फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति वलेरी जीस्कार दस्तां यूरोपीय संघ
के विचार से रोमांचित थे, लेकिन इसकी बारीकियों ने उन्हें बोर कर दिया था.
भारत
के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बिखरी हुई परियोजनाओं को उनकी दृष्टि
मानें तो उनकी इस दृष्टि के बारे में भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है.दरअसल, उनकी सोच में सामंजस्य की कमी उनकी धुन में नज़र आती है जिसे सैन्य शब्दावली में 'दागो और भागो' कहा जा सकता है.
इसका मतलब यह है कि वह यहां-वहां गोलियों की बौछार कर रहे हैं और फिर सबकुछ छोड़कर अगले विचार के लिए बढ़ जाते हैं लेकिन उसकी बारीकी उन्हें बोर करती है.
अब काले धन का ही मामला ले लीजिए. चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने इस बारे में बहुत कुछ कहा था और इसकी नाकामी के बारे में अब उनके सहयोगियों को जवाब देना पड़ रहा है.
काला धन
इस पचड़े में पड़े बगैर कि कितना काला धन है, कितनी जल्दी वापस आएगा आदि (इसमें हमारे बोर होने की संभावना है) लेकिन उन्हें एक विचारक के तौर पर खोजने की बात दिमाग में रखिए.सत्ता संभालने के तुंरत बाद मोदी ने दो शानदार परियोजनाएं दागी- स्वच्छ भारत अभियान और मेक इन इंडिया.
जब पहली परियोजना की घोषणा हुई तो इसने मुझे भ्रम में डाल दिया. क्या वह भारत की सड़कछाप संस्कृति को बदलने की कोशिश कर रहे थे, गांधी की तरह अपने व्यक्तिगत उदाहरण से हमें शर्मसार कर रहे थे?
इस योजना के पहले दिन की उनकी तस्वीरें तो यही संदेश दे रही थीं. या फिर इसका लक्ष्य आडंबर नहीं था. या फिर यह पिछली सरकारों की शौचालय बनाने की विभिन्न योजनाओं को दिया गया महज़ एक नाम है?
स्वच्छ भारत
अख़बारों में आए विज्ञापनों से तो ऐसा ही लगता है. तो फिर यह क्या है? इससे आख़िर हासिल क्या हो रहा है? कितनी संख्या में शौचालयों का निर्माण हुआ या फिर कितने भारतीयों को सभ्य बनाया गया?अवश्य ही यह अभियान नाकाम हो गया है क्योंकि मेरी तरह अधिकारी भी भ्रमित हैं और उनकी समझ में नहीं आ रहा है कि इसे कैसे लागू किया जाए.
अगर अवसरवादी हस्तियों के झाड़ू पकड़ने पर प्रधानमंत्री की बधाई वाले ट्वीट से भारत की सफाई होती तो हमारे शहर टोक्यो नहीं तो सिंगापुर तो बन ही गए होते. वे आज भी गंदे ही हैं तो इसके लिए सरकार नहीं हम ही जिम्मेदार हैं.
मेक इन इंडिया
लेकिन उन्हें समाज सुधार में कूदने को किसने कहा था? कम से कम उनके समर्थकों ने तो ऐसा नहीं किया था.अब मेक इन इंडिया को ही लीजिए. ये क्या है? यह कैसे काम करेगा? भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर का कहना था कि इसका कोई ख़ास महत्व नहीं है. शायद. लेकिन आपको मानना पड़ेगा कि इसका लोगो शानदार है. और इसका नाम भी सही लगता है.
मुकेश अंबानी ने इस योजना के लॉन्च होने के मौके पर कहा था यह मेड इन इंडिया नहीं है यह मेक इन इंडिया है. जो इसकी तात्कालिकता को दिखाता है.
मोदी के विरोधियों सहित सभी को मानना पड़ेगा कि नामकरण में मोदी को महारत हासिल है.शहरी नवीकरण मिशन के लिए अमरुत ( अटल मिशन फ़ॉर रिजूविनेशन एंड अर्बरन ट्रांसफ़ॉरमेशन) नाम जेएनयूआरएम से बेहतर है.
विदेश नीति
तो फिर विस्फोटक शुरुआत और अख़बारों में पूरे पन्ने के विज्ञापनों के बाद मेक इन इंडिया का क्या हुआ? वास्तव में मुझे पता नहीं है. और कम ही लोग मानेंगे कि उन्हें पता है.अगर विनिर्माण क्षेत्र अब भी लड़खड़ा रहा है तो आरबीआई गवर्नर ने इसी संदर्भ में सच्चाई बयां की थी.
दागो और भागो.
जिस एक बात के लिए पूरी दुनिया में मोदी की तारीफ हुई वह है उनकी ऊर्जावान विदेश नीति.उन्होंने अमरीका के साथ उस समझौते को सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचाया जिसे पूरा करने में उनकी पार्टी ने मनमोहन सिंह की राह में रोड़े अटकाए थे.
कूटनीतिक सफलता
और फिर ऐसा प्रचार किया कि वियना कांग्रेस के बाद यह सबसे बड़ी कूटनीतिक सफलता है. बहुमत होने के कारण यह उनका विशेषाधिकार है. उनके विरोधियों को इस पर आंसू बहाना बंद करना चाहिए.लेकिन वास्तव में उनकी विदेश नीति क्या है? हमारे सबसे अहम और सबसे ख़तरनाक पड़ोसी पाकिस्तान के प्रति क्या क़दम उठाए गए. हम दोस्त हैं या दुश्मन?
भारत ने पाकिस्तान को शपथ ग्रहण समारोह में बुलाया, पेशावर हमले के बाद हमदर्दी जताई, खेल के मैदान में पाकिस्तान की जीतों पर बधाइयां दी, 'दो कश्मीरियों' के साथ पींगें बढ़ाने पर भौंहें तानी, सीमा पर फ़ायरिंग का पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब देने का वादा किया और अभी तो एक साल भी पूरा नहीं हुआ है.
कोई निरंतरता नहीं, कोई दृष्टि नहीं, कुछ भी नहीं. न कोई सोच.
'फ़ासीवादी शासन नहीं'
डेटा जर्नलिज्म वेबसाइट इंडिया स्पेंड में इस सप्ताह आए एक लेख के मुताबिक़ 'कमज़ोर, भ्रष्ट, अक्षम और कुनबापरस्त' मनमोहन सिंह सरकार और मजबूत, कठोर और साफ सुथरी मोदी सरकार का प्रदर्शन अपने कार्यकाल के पहले साल में क़रीब एक जैसा ही प्रदर्शन किया.अब यहां मैं यह बताऊंगा कि क्यों मोदी सरकार ने बेहतर काम किया है.
कुछ लोगों ने आशंका जताई थी कि वह देश में फ़ासीवादी शासन लाएंगे. वे गलत साबित हुए हैं. कई लोग ऐसे थे जो मानते थे कि वह आमूलचूल बदलाव लाएंगे और देश में नई जान फूकेंगे. उन्हें निराशा हुई है.
जिन लोगों ने उन्हें वोट दिया था उनमें से अधिकांश कुछ अधिक की अपेक्षा कर रहे थे. केंद्र सरकार में कुछ कम भ्रष्टाचार, घोटालों की कुछ कम कहानियां, मध्यवर्ग के जीवन स्तर में आंशिक सुधार और नेताओं से कुछ ज्यादा मनोरंजन की उम्मीद. इस मामले में उन्हें निराशा नहीं हुई है.