अंतरिक्ष की शक्ति बना भारत, GSLV-D5 प्रक्षेपण सफल II रूस ने नहीं दी थी भारत को क्रायोजेनिक तकनीक
Jan 06, 2014 at 09:42pm
नई दिल्ली। स्वदेशी
क्रायोजेनिक इंजन से लैस जीएसएलवी डी-5 का सफल प्रक्षेपण कर-इसरो के
वैज्ञानिकों ने देश को नए साल का बड़ा तोहफा दिया है। जीएसएलवी के सफल
प्रक्षेपण के बाद भारत-अमेरिका, रूस, जापान, चीन और फ्रांस के बाद स्वदेशी
क्रायोजेनिक तकनीक रखने वाला दुनिया का छठां मुल्क बन गया है। भारत भी अब
भारी उपग्रहों को उनकी कक्षा में स्थापित करने के बाजार में बड़ा खिलाड़ी बन
जाएगा। जीएसएलवी डी-5 ने दो टन भारी संचार उपग्रह जी सैट-14 को उसकी कक्षा
में स्थापित किया है। प्रधानमंत्री समेत देश की कई बड़ी शख्सियतों ने
वैज्ञानिकों को इस सफलता के लिए बधाई दी है।
रविवार
शाम घड़ी के कांटे जैसे ही 4 बजकर 18 मिनट पर पहुंचे-आसमान पर धुंए की इस
लकीर ने हिंदुस्तान की सुनहरी कामयाबी की कहानी लिख दी। धुंए की ये लकीर
आंध्रप्रदेश के श्रीहरिकोटा के सतीश धवन स्पेस सेंटर से छोड़े गए जीएसएलवी
डी-5 राकेट से निकल रही थी, जिसे ऊपर-और ऊपर उठने की ताकत दे रहा था
स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन। 49.13 मीटर लंबा और 414.75 टन भारी जीएसएलवी-डी 5
अपने साथ दो टन भारी संचार उपग्रह जीसैट-14 को उसकी कक्षा में स्थापित
करने के लिए ले गया।
हालांकि
इससे भी बड़ी कामयाबी स्वदेशी क्रायोजेनिक तकनीक की सफलता है, जिसने भारत
को व्यवसायिक उपग्रहों के प्रक्षेपण के बाजार में बड़े खिलाड़ी के तौर पर
स्थापित कर दिया है। 350 करोड़ रुपए की लागतवाला महत्वाकांक्षी स्पेस
प्रोजेक्ट तीन साल पहले लगातार दो असफलता झेल चुका था। पिछले ही साल 19
अगस्त को उड़ान से सिर्फ 74 मिनट पहले लीकेज होने पर जीएसएलवी डी-5 की
लांचिंग टाल दी गई, लिहाजा उड़ान से पहले इसरो के वैज्ञानिकों के जो चेहरे
बेचैन दिख रहे थे, वो कामयाब प्रक्षेपण के बाद खुशी से खिल उठे।
इसरो
ने देश के सियासी नेतृत्व को भी दुनिया के सामने गर्व करने का मौका दिया
है। इस सफलता पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने बधाई पैगाम में कहा कि
वैज्ञानिकों और तकनीक के क्षेत्र में ये देश का एक और महत्वपूर्ण कदम है।
बीजेपी
के पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी, लोकसभा में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज
समेत देश की कई बड़ी शख्सियतों ने इसरो को इस सफलता के लिए बधाई दी।
दरअसल,
जीएसएलवी-डी 5 की सफल उड़ान के बाद भारत क्रायोजेनिक इंजन तकनीक वाले
चुनिंदा देशों के क्लब में शामिल हो गया है। अब भारत भारी उपग्रहों को
अंतरिक्ष में स्थापित करने के बाजार में बड़ा खिलाड़ी बन जाएगा। चंद्रयान-2
और भविष्य के मानव रहित स्पेस मिशन में ये सफलता बड़ा किरदार निभाएगी।
क्रायोजेनिक इंजन में शून्य से बेहद कम तापमान में ईंधन जलता है। इसमें
ऑक्सीजन और हाइड्रोजन का बतौर ईंधन इस्तेमाल होता है। दुनिया का कोई भी देश
भारत को क्रायोजेनिक तकनीक देने को राजी नहीं था। लिहाजा, इसरो ने खुद
स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का विकास किया। हालांकि 15 अप्रैल 2010 को
स्वदेशी इंजन वाले जीएसएलवी-डी3 की उड़ान नाकाम हो गई थी।
पिछली
गलतियों से सबक लेकर इसरो ने जीएसएलवी डी-5 के इंजन में कई किस्म के सुधार
किए, इसके बाद ही रविवार को इसका सफल प्रक्षेपण किया जा सका।
पढ़ें: क्रायोजेनिक तकनीक की क्या है खासियत
नई दिल्ली। जीएसएलवी डी5
की सफल उड़ान ने भारत के लिए अंतर्राष्ट्रीय उपग्रह लांचिंग बाजार में नए
दरवाजे खोल दिए हैं। अब भारी उपग्रहों को स्थापित करने के लिए भारत को
विदेशी स्पेस एजेंसियों की शरण में नहीं जाना पड़ेगा। यही नहीं भारत खुद
दुनिया के तमाम देशों के भारी उपग्रहों को जियोस्टेश्नरी सैटेलाइट यानी
लगातार धरती के खास इलाके के ऊपर बने रहने वाले उपग्रह को लांच कर सकेगा।
मगर ये सफलता आसानी से नहीं मिली है। क्रोयोजेनिक तकनीक में महारत हासिल
करने से पहले कई बार नाकामी मिली, क्योंकि ये तकनीक बहुत पेचीदा है।
जीएसएलवी-
डी5 बड़े उपग्रह लांच करने के बाजार में पैर जमाने की भारत की अब तक की
तमाम कोशिशों का मीठा फल। भारत की ये कोशिश स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन पर
टिकी थी। वो तकनीक जिसे जीएसएलवी डी-5 से पहले हासिल करने में भारत को
नाकामी-ही-नाकामी हाथ लगी। 15 अप्रैल 2010 में स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन
वाला जीएसएलवी डी-3 आसमान में ही विस्फोट से टुकड़े-टुकड़े हो गया था।
जीएसएलवी
डी-3 की नाकामी ने इसरो को साफ पैगाम दिया कि उपग्रह लांचिंग के
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बड़ा खिलाड़ी बनने के लिए काफी कुछ किए जाने की
जरूरत है। इसके बाद से ही इसरो स्वदेशी क्रायोजेनिक तकनीक में सुधार के
अभियान में जुट गया। अबतक की नाकामियों से ये भी साफ हो गया था कि
क्रायोजेनिक इंजन को बनाना आसान नहीं है।
दरअसल,
इसकी वजह क्रायोजेनिक इंजन में इस्तेमाल होने वाली पेचीदा तकनीक है।
क्रायोजेनिक इंजन शून्य से बहुत नीचे यानी क्रायोजेनिक तापमान पर काम करते
हैं। माइनस 238 डिग्री फॉरेनहाइट (-238'F) को क्रायोजेनिक तापमान कहा जाता
है। इस तापमान पर क्रायोजेनिक इंजन का ईंधन ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैसें तरल
यानी लिक्विड बन जाती हैं। लिक्विड ऑक्सीजन और लिक्विड हाइड्रोजन को
क्रायोजेनिक इंजन में जलाया जाता है। लिक्विड ईंधन जलने से इतनी ऊर्जा पैदा
होती है जिससे क्रायोजेनिक इंजन को 4.4 किलोमीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार
मिल जाती है।
क्रायोजेनिक
इंजन की तकनीक का विकास द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हुआ। तब सबसे ज्यादा
ऊर्जा पैदा करने वाले और आसानी से मुहैया ऑक्सीजन और हाइड्रोजन को ईंधन के
तौर पर सबसे बेहतर पाया गया। मुश्किल ये थी इंजन में ये गैस के तौर पर
इस्तेमाल नहीं हो सकती थीं, क्योंकि तब उन्हें रखने के लिए इंजन बड़ा बनाना
पड़ता, जबकि रॉकेट उड़ाने के लिए इसका छोटा होना जरूरी शर्त है।
क्रायोजेनिक
तकनीक का इस्तेमाल करते हुए छोटा इंजन, इसरो के वैज्ञानिक इसी पहेली का हल
तलाश रहे थे। शुरुआत में रूस ने इस मामले में भारत की मदद की थी। लेकिन
बाद में अंतर्राष्ट्रीय दबाव में उसने हाथ पीछे खींच लिए।
हालांकि
रूस से क्रायोजेनिक तकनीक लेने की भारत की कोशिशें नाकाम हो गईं। लेकिन
उससे मिली शुरुआती मदद से भारतीय वैज्ञानिकों को क्रायोजेनिक तकनीक समझने
में मदद मिली। दरअसल, 1990 में भारत को रूस से सात क्रायोजेनिक इंजन मिले
थे। जीएसलएवी के पहले के छह अभियानों में रूसी इंजन लगे थे। लेकिन, 2010
में जीएसएलवी डी-3 की नाकाम उड़ान में स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन था। इसके
साथ ही सात जीएसएलवी अभियान में से नाकाम अभियान की संख्या चार हो गई। चार
नाकाम उड़ानों में हर बार असफलता की वजह अलग रही। 2010 में इंजन का फ्यूल
बूस्टर टर्बो पंप नाकाम हो गया था। बाकी मामलों में कभी फैब्रिकेशन की चूक
हुई, कभी गुणवत्ता आड़े आ गई।
अप्रैल
2010 में जीएसएलवी डी-3 की नाकामी के बाद इसरो ने स्वदेशी क्रायोजेनिक
इंजन की पूरी डिजाइन में ही बुनियादी फेरबदल किया है। इसरो जहां पहले
सीई-20 क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल कर रहा था, अब उसने सीई 7.5 इंजन का
विकास किया है। इस इंजन के फ्यूल बूस्टर टर्बो पंप को दोबारा डिजाइन किया
गया है। यही नहीं रॉकेट में क्रायोजेनिक इंजन को और सुरक्षा देने के लिए
जीएसएलवी डी-5 की डिजाइन में भी बदलाव किया गया। सबसे खास बात ये है कि 27
मार्च 2013 को जीएसएलवी डी-5 में लगे स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का पहली बार
हाई एल्टीट्यूड टेस्ट किया गया। इसके बावजूद 19 अगस्त 2013 को बिल्कुल
आखिरी वक्त पर जीएसएलवी डी-5 के सेकेंड स्टेज में लांचिग से ठीक 74 मिनट
पहले लीकेज का पता लगा। अगर इस लीकेज का पता नहीं चलता तो डी-5 रॉकेट का
हाल भी डी-3 रॉकेट की तरह ही हो सकता था। लेकिन पिछली असफलताओं से इसरो के
वैज्ञानिक सीख चुके थे कि उन्हें कौन सी गलतियां नहीं करनी है। इसीलिए
रविवार को हुई सफल उड़ान किताबों में जिक्र की जा सकने वाली क्रायोजेनिक
रॉकेट की सटीक उड़ानों में से एक रही।
रूस ने नहीं दी थी भारत को क्रायोजेनिक तकनीक
नई दिल्ली। क्रायोजेनिक
इंजन तकनीक में सक्षम होना भारत के लिए आसान नहीं था। पहले ये तकनीक भारत
को रूस से मिलने वाली थी लेकिन परमाणु परीक्षण के बाद भारत के लिए इस तकनीक
के सारे रास्ते बंद हो गए। भारत पर पाबंदी लगा दी गई। दलील दी गई कि भारत
इस तकनीक का इस्तेमाल मिसाइल बनाने में करेगा। लेकिन भारत ने हार नहीं मानी
और तब शुरू हुई क्रायोजेनिक तकनीक तैयार करने की जद्दोजहद।
क्रायोजेनिक
इंजन तकनीक पर भारत ने 1992 से ही काम करना शुरू कर दिया था। रूस
क्रायोजेनिक इंजन बनाने में भारत की मदद कर रहा था। शुरुआती अनुबंध के
मुताबिक रूस को क्रायोजेनिक तकनीक भारत को सौंपनी थी। लेकिन अमेरिका के
दबाव में रूस ने भारत को तकनीक नहीं दी। उस वक्त अमेरिका जैसे शक्तिशाली
देशों ने ये दलील दी कि भारत क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल मिसाइल बनाने
में करेगा। 1998 में भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया। भारत पर पूरी
तरह से पाबंदी लगा दी। तकनीक हस्तांतरण तो दूर रूस ने पहले से तैयार
क्रायोजेनिक इंजन को भी देने से इंकार कर दिया।
भारत
क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल मिसाइल बनाने में करेगा, ये दलील तो सिर्फ
बहाना था। इस तकनीक को भारत को नहीं सौंपने की असल वजह थी अरबों डॉलर के
मुनाफे का अंतरिक्ष कारोबार। क्रायोजेनिक इंजन तकनीक का इस्तेमाल जियो
सिंक्रॉनस सैटलाइट लॉन्च के लिए किया जाता है। अंतरिक्ष में संचार उपग्रह
भेजने का कारोबार बहुत ही मुनाफे वाला है। अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस और
जापान का स्पेस कारोबार में एकछत्र राज है। अभी तक सिर्फ इन्हीं पांच देशों
के पास क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक है।
क्रायोजेनिक
ईंजन तकनीक बेहद अहम तकनीक है। खासतौर पर अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र
में। ये ईंजन तरल ऑक्सीजन और तरल हाइड्रोजन का इस्तेमाल किया जाता है।
क्रायोजेनिक ईंजन के जरिए हम अंतरिक्ष में भेजे जाने वाले उपग्रह के वजन को
बढ़ा सकते हैं। उपग्रह के हर किलोग्राम वजन की कीमत करोड़ों में होती है और
इस ईंजन के साथ बूस्टर के इस्तेमाल की भी जरूरत नहीं पड़ती। जाहिर है इस
तकनीक के जरिए सैटलाइट भेजने में खर्च कम आता है।
विकसित
देश नहीं चाहते हैं कि इस मुनाफे के धंधे में कोई और सेंध लगाए। कम खर्च
पर सैटलाइट भेजने वाले भारत जैसे देश के उत्थान से विकसित देश घबराए हुए
हैं। यही वजह है कि अंतरिक्ष तकनीक को विकसित देश भारत को नहीं सौंपना
चाहते।
राह
में आ रही सभी अड़चनों से घबराए बगैर हिंदुस्तान के सैकड़ों वैज्ञानिक
दिन-रात तमिलनाडु के महेंद्रगीरी में जुट गए। उनका सिर्फ एक ही लक्ष्य था
देसी क्रायोजेनिक इंजन तैयार करना। काम बहुत मुश्किल था। भारत के
वैज्ञानिकों को असंभव को संभव करना था। बाहर से सभी रास्ते बंद हो चुके थे।
भारत सरकार ने भी अपनी पूरी ताकत झोंक दी। पैसे की कोई कमी नहीं रखी गई।
अरबों रुपए का बजट तैयार किया गया।
वैज्ञानिकों
ने कामयाबी का पहला स्वाद चखा 10 फरवरी, 2002 को। इस दिन भारत ने पहली बार
क्रायोजेनिक इंजन का परीक्षण किया। ये इंजन सिर्फ कुछ सेकेंडों के लिए ही
चला। आठ महीने बाद 4 सितंबर, 2002 को एक बार फिर परीक्षण किया गया। इस बार
इंजन 1000 सेकेंडों तक चला। इस बार के परीक्षण ने साबित कर दिया कि इंजन का
डिजाइन कारगर है। आखिरकार कई परीक्षणों के दौर से गुजरने के बाद 12 मार्च,
2003 को वो दिन आया जब क्रायोजेनिक इंजन को कमर्शियल तौर पर बनाने की
सहमति पर मुहर लगा दी गई।
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