अवैध नियुक्तियों पर खुलासा देहरादून: न कोई परीक्षा हुई न इंटरव्यू, अर्जी लगाई और मनचाही नौकरी पाई
काश तमाम बेरोजगारों को ऐसे ही मिल पाती नौकरी, न उम्र देखी न योग्यता, जिसने जो पद मांगा वही दे डाला
डिप्टी रजिस्ट्रार से लेकर अर्दली तक की मनमानी नियुक्ति, कहानी 2001 से शुरु हुई, खुलासा आरटीआई में हुआ
देहरादून:न कोई विज्ञप्ति, न कोई परीक्षा और न ही कोई इंटरव्यू, सीधे सरकारी नौकरी। जी हां। ये सुनने में भले ही अटपटा लगा रहा हो, लेकिन बात सौ फीसदी सच है। ऐसा अजब गजब खेल कहीं और नहीं उत्तराखंड लोक सेवा अधिकरण में हुआ है। आरटीआई में हुए खुलासे में कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। नियम-कानूनों को रद्दी की टोकरी में स्वयंभू बने अधिकरण के अध्यक्ष एवं निबंधकों ने ये कारनामों कर दिखाए हैं। चहेतों को इस कदर नौकरियां दी गई कि मानों अधिकरण कोई निजी संस्था हो। चपरासी से लेकर बाबू और प्रशासनिक अधिकारी से लेकर डिप्टी रजिस्ट्रार तक को बायोडाटा पर ही नौकरी पर रखा गया। कर्मचारियों को रखने से पूर्व उन्हें दैनिक कर्मचारी और तदर्थ के रुप में रखा गया, बाद में मनमर्जी से ही उन्हें नियमित कर दिया गया। इसके लिए शासन से कहीं अनुमति नहीं ली गई। सिफारिशों पर रखे गए चहेतों को भारी भरकम वेतनमान भी खुद की ही मनमर्जी से दे डाले। यही नहीं कई कर्मियों को मांग पर प्रमोशन तक कर दिए। अवैध नियुक्तियों का यह कारनामा पूरे शासन के अफसरों को आईना दिखा रहा है।
उत्तराखंड बनने के बाद विभिन्न आयोगों, बोर्डाें एवं परिषदों के गठन में ऐसी लूट मची कि जो भी इनकी शरण में गया वह भव सागर पा हो गया। जी हां, ऐसे ही एक आयोग की बानगी हम आपको बता रहे हैं। वर्ष 2001 में अस्तित्व में आए उत्तराखंड लोक सेवा अधिकरण का उद्देश्य सरकारी कार्मिकों के सर्विस मैटर सुलझाने का है, लेकिन फिलहाल अधिकरण खुद के ही कर्मियों की अवैध नियुक्तियों को लेकर तमाम उलझनों में उलझा हुआ है। नियमों के विरुद्ध कर्मचारियों को दी गई नियुक्ति को लेकर आयोग कठघरे में है। देहरादून निवासी प्रमोद कपरुवाण शास्त्री द्वारा सूचना अधिकार अधिनियम के तहत मांगी गई सूचना में कई चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं। आरटीआई से खुलासा हुआ है कि अधिकरण ने कोई स्टाफ स्ट्रक्चर नहीं बनाया और न ही शासन से पदों के लिए कोई अनुमति मांगी है। हैरत की बात यह है कि सिफारिशों पर ही सारे चपरासी से लेकर प्रशासनिक अधिकारी तक रख लिए। इनके लिए न कभी कोई एक साथ रिक्तयों को भरने के लिए विज्ञप्ति निकाली गई और नहीं नहीं किसी पद के लिए साक्षात्कार लिए गए। जिसने जब आवेदन किया, तभी उसे बायोडाटा पर ही दैनिक एवं तदर्थ नियुक्ति दी गई। वर्ष 2001 से शुरु हुआ सिलसिला 2004 तक चला। चार वर्षों में 35 कर्मचारी सीधे भर्ती किए जाते रहे। नियुक्ति अस्थाई दी गई, लेकिन कुछ समय बाद ही समय-समय पर खुद ही अधिकरण ने नियमित कर दिया। अधिकरण में रखे गए अधिकांश चहेते कर्मियों के बायोडाटा भी आयोग के पास नहीं है। आवेदकों द्वारा चाही गई नौकरी के बाद आयोग की टिप्पणी एवं आदेशों की पड़ताल सब कुछ बयां कर रहे हैं। अधिकरण का यह कारनामा उन कर्मियों को आइना दिखा रहा है, जो तमाम विभागों में चयन प्रक्रिया से गुरजने के बाद भी 10 से लेकर 20 वर्षों से दैनिक कर्मचारी एवं संविदा पर कार्यरत है।
बायोडाटा पर ही मिल गई सरकारी नौकरी
आपने कभी सोचा कि नौकरी भी अर्जी पर मिल सकती है, वह भी सरकारी। लेकिन यह सपना लोक सेवा अधिकरण ने पूरा किया है। एक तरफ बायोडाटा दिया गए दूसरी तरफ नौकरी पर रखने का फरमान जारी किए जाते रहे। ऐसा एक पद पर नहीं तकरीबन 35 पदों पर यही सबकुछ चला है। जैसे-जैसे सिफारिशी अर्जियां आई वैसे-वैसे कर्मियों को सेवा पर रखा जाता रहा। इसके लिए कभी स्टाफ स्ट्रक्चर की जरुरत नहीं समझी गई। न ही शासन ने भर्ती किए गए कर्मियों पर ही आवश्यक दिशा-निर्देश देने की आवश्यकता समझी।
स्थाई नौकरी ही नहीं पदोन्नतियां भी दे दी
अधिकरण अपने आप में स्वयंभू संस्था बन गई है। जिसे चाहे सीधे नौकरी पर रख सकता है और जिसे चाहे पदोन्नति दे सकता है। इसके लिए आयोग को शासन से अनुमति लेने की जरुरत है। 2002 में बतौर आशुलिपिक के पद अस्थाई तौर पर नियुक्त की गई विनीता मैनी की पदोन्नति अधिकरण की पोल खोलने के लिए काफी है। इंटरमीडिएट पास विनीता को 5000-8000 वेतनान पर रखा गया। लेकिन कुछ दिनों बाद कागजों में हेराफेरी करके इस वेतनमान को 5500-9000 दर्शाया गया। यही नहीं 2005 में विनीता ने वैयक्तिक सहायक के 6500-10500 के पद पर पदोन्नति मांगी तो अधिकरण ने देर नहीं लगाई और सीधे पदोन्नति डाली। लेकिन अधिकरण में इससे कहीं अधिक शैक्षिक योग्यता रखने वाले कर्मी 3050-4590 के वेतनमान में काम कर रहे हैं। एमए, बीए, बीकॉम एलएलबी, बीएससी पास कर्मियों को भी विनीता मैनी मात दे रही है।
अवैध नियुक्तियों पर शासन क्यों है खामोश?
शासन में बैठे अफसर अधिकरण के आगे पानी भर रहे है। ऐसा नहीं कि आयोग में अवैध नियुक्तियों की भनक शासन को नहीं है, लेकिन कोई भी इस पर एक्शन लेने को तैयार नहीं है। इसे आयोग की दबंगई कहें या फिर अफसरों की मिलीभगत। सब कुछ खेले में हो रहा है और शासन मौन साधे हुए है। इस बारे में अभी तक अधिकरण का जवाब-तलब तक नहीं किया गया कि आखिर किस आधार पर नियमित नियुक्ति की गई हैं। यदि किसी विभाग ने ऐसा किया होता तो अब तक न जाने कहां-कहां से रोक लग जाती, तो अधिकरण के मामले में सचिव न्याय एवं विधि परामर्शी क्यों चुप हैं। इस पर तमाम सवाल उठ रहे हैं
डिप्टी रजिस्ट्रार तक कर दिया नियुक्त
लोक सेवा अधिकरण के चेयरमैन एवं निबंधक ने तृतीय, चतुर्थ और प्रशासनिक स्तर के पदों पर ही नियुक्तियां नहीं दी है, डिप्टी रजिस्ट्रार तक को रखा है। डिप्टी रजिस्ट्रार के पद पर नियुक्त किए गए सियाराम वर्मा की नियुक्ति को लेकर भी सवाल उठ खड़े हुए हैं। उनकी नियुक्ति को लेकर दिए गए लॉजिक किसी के गले नहीं उतर रहा है। महज उनके अनुभव का हवाला देकर उन्हें सीधे नियुक्ति दे दी गई, जो पूरी तरह अवैधानिक बताई जा रही है।
डिप्टी रजिस्ट्रार से लेकर अर्दली तक की मनमानी नियुक्ति, कहानी 2001 से शुरु हुई, खुलासा आरटीआई में हुआ
19-09-14
देहरादून:न कोई विज्ञप्ति, न कोई परीक्षा और न ही कोई इंटरव्यू, सीधे सरकारी नौकरी। जी हां। ये सुनने में भले ही अटपटा लगा रहा हो, लेकिन बात सौ फीसदी सच है। ऐसा अजब गजब खेल कहीं और नहीं उत्तराखंड लोक सेवा अधिकरण में हुआ है। आरटीआई में हुए खुलासे में कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। नियम-कानूनों को रद्दी की टोकरी में स्वयंभू बने अधिकरण के अध्यक्ष एवं निबंधकों ने ये कारनामों कर दिखाए हैं। चहेतों को इस कदर नौकरियां दी गई कि मानों अधिकरण कोई निजी संस्था हो। चपरासी से लेकर बाबू और प्रशासनिक अधिकारी से लेकर डिप्टी रजिस्ट्रार तक को बायोडाटा पर ही नौकरी पर रखा गया। कर्मचारियों को रखने से पूर्व उन्हें दैनिक कर्मचारी और तदर्थ के रुप में रखा गया, बाद में मनमर्जी से ही उन्हें नियमित कर दिया गया। इसके लिए शासन से कहीं अनुमति नहीं ली गई। सिफारिशों पर रखे गए चहेतों को भारी भरकम वेतनमान भी खुद की ही मनमर्जी से दे डाले। यही नहीं कई कर्मियों को मांग पर प्रमोशन तक कर दिए। अवैध नियुक्तियों का यह कारनामा पूरे शासन के अफसरों को आईना दिखा रहा है।
उत्तराखंड बनने के बाद विभिन्न आयोगों, बोर्डाें एवं परिषदों के गठन में ऐसी लूट मची कि जो भी इनकी शरण में गया वह भव सागर पा हो गया। जी हां, ऐसे ही एक आयोग की बानगी हम आपको बता रहे हैं। वर्ष 2001 में अस्तित्व में आए उत्तराखंड लोक सेवा अधिकरण का उद्देश्य सरकारी कार्मिकों के सर्विस मैटर सुलझाने का है, लेकिन फिलहाल अधिकरण खुद के ही कर्मियों की अवैध नियुक्तियों को लेकर तमाम उलझनों में उलझा हुआ है। नियमों के विरुद्ध कर्मचारियों को दी गई नियुक्ति को लेकर आयोग कठघरे में है। देहरादून निवासी प्रमोद कपरुवाण शास्त्री द्वारा सूचना अधिकार अधिनियम के तहत मांगी गई सूचना में कई चौंकाने वाले खुलासे हुए हैं। आरटीआई से खुलासा हुआ है कि अधिकरण ने कोई स्टाफ स्ट्रक्चर नहीं बनाया और न ही शासन से पदों के लिए कोई अनुमति मांगी है। हैरत की बात यह है कि सिफारिशों पर ही सारे चपरासी से लेकर प्रशासनिक अधिकारी तक रख लिए। इनके लिए न कभी कोई एक साथ रिक्तयों को भरने के लिए विज्ञप्ति निकाली गई और नहीं नहीं किसी पद के लिए साक्षात्कार लिए गए। जिसने जब आवेदन किया, तभी उसे बायोडाटा पर ही दैनिक एवं तदर्थ नियुक्ति दी गई। वर्ष 2001 से शुरु हुआ सिलसिला 2004 तक चला। चार वर्षों में 35 कर्मचारी सीधे भर्ती किए जाते रहे। नियुक्ति अस्थाई दी गई, लेकिन कुछ समय बाद ही समय-समय पर खुद ही अधिकरण ने नियमित कर दिया। अधिकरण में रखे गए अधिकांश चहेते कर्मियों के बायोडाटा भी आयोग के पास नहीं है। आवेदकों द्वारा चाही गई नौकरी के बाद आयोग की टिप्पणी एवं आदेशों की पड़ताल सब कुछ बयां कर रहे हैं। अधिकरण का यह कारनामा उन कर्मियों को आइना दिखा रहा है, जो तमाम विभागों में चयन प्रक्रिया से गुरजने के बाद भी 10 से लेकर 20 वर्षों से दैनिक कर्मचारी एवं संविदा पर कार्यरत है।
बायोडाटा पर ही मिल गई सरकारी नौकरी
आपने कभी सोचा कि नौकरी भी अर्जी पर मिल सकती है, वह भी सरकारी। लेकिन यह सपना लोक सेवा अधिकरण ने पूरा किया है। एक तरफ बायोडाटा दिया गए दूसरी तरफ नौकरी पर रखने का फरमान जारी किए जाते रहे। ऐसा एक पद पर नहीं तकरीबन 35 पदों पर यही सबकुछ चला है। जैसे-जैसे सिफारिशी अर्जियां आई वैसे-वैसे कर्मियों को सेवा पर रखा जाता रहा। इसके लिए कभी स्टाफ स्ट्रक्चर की जरुरत नहीं समझी गई। न ही शासन ने भर्ती किए गए कर्मियों पर ही आवश्यक दिशा-निर्देश देने की आवश्यकता समझी।
स्थाई नौकरी ही नहीं पदोन्नतियां भी दे दी
अधिकरण अपने आप में स्वयंभू संस्था बन गई है। जिसे चाहे सीधे नौकरी पर रख सकता है और जिसे चाहे पदोन्नति दे सकता है। इसके लिए आयोग को शासन से अनुमति लेने की जरुरत है। 2002 में बतौर आशुलिपिक के पद अस्थाई तौर पर नियुक्त की गई विनीता मैनी की पदोन्नति अधिकरण की पोल खोलने के लिए काफी है। इंटरमीडिएट पास विनीता को 5000-8000 वेतनान पर रखा गया। लेकिन कुछ दिनों बाद कागजों में हेराफेरी करके इस वेतनमान को 5500-9000 दर्शाया गया। यही नहीं 2005 में विनीता ने वैयक्तिक सहायक के 6500-10500 के पद पर पदोन्नति मांगी तो अधिकरण ने देर नहीं लगाई और सीधे पदोन्नति डाली। लेकिन अधिकरण में इससे कहीं अधिक शैक्षिक योग्यता रखने वाले कर्मी 3050-4590 के वेतनमान में काम कर रहे हैं। एमए, बीए, बीकॉम एलएलबी, बीएससी पास कर्मियों को भी विनीता मैनी मात दे रही है।
अवैध नियुक्तियों पर शासन क्यों है खामोश?
शासन में बैठे अफसर अधिकरण के आगे पानी भर रहे है। ऐसा नहीं कि आयोग में अवैध नियुक्तियों की भनक शासन को नहीं है, लेकिन कोई भी इस पर एक्शन लेने को तैयार नहीं है। इसे आयोग की दबंगई कहें या फिर अफसरों की मिलीभगत। सब कुछ खेले में हो रहा है और शासन मौन साधे हुए है। इस बारे में अभी तक अधिकरण का जवाब-तलब तक नहीं किया गया कि आखिर किस आधार पर नियमित नियुक्ति की गई हैं। यदि किसी विभाग ने ऐसा किया होता तो अब तक न जाने कहां-कहां से रोक लग जाती, तो अधिकरण के मामले में सचिव न्याय एवं विधि परामर्शी क्यों चुप हैं। इस पर तमाम सवाल उठ रहे हैं
डिप्टी रजिस्ट्रार तक कर दिया नियुक्त
लोक सेवा अधिकरण के चेयरमैन एवं निबंधक ने तृतीय, चतुर्थ और प्रशासनिक स्तर के पदों पर ही नियुक्तियां नहीं दी है, डिप्टी रजिस्ट्रार तक को रखा है। डिप्टी रजिस्ट्रार के पद पर नियुक्त किए गए सियाराम वर्मा की नियुक्ति को लेकर भी सवाल उठ खड़े हुए हैं। उनकी नियुक्ति को लेकर दिए गए लॉजिक किसी के गले नहीं उतर रहा है। महज उनके अनुभव का हवाला देकर उन्हें सीधे नियुक्ति दे दी गई, जो पूरी तरह अवैधानिक बताई जा रही है।
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