मुख्तार माई(सामूहिक बलात्कार पीड़िता) :'पाकिस्तान में महिलाओं को इंसाफ़ नहीं''...इस घटना के बाद मैंने दो बार ख़ुदकुशी करने की कोशिश की क्योंकि...
साल
2002 में अपने भाई के कथित जुर्म की सज़ा के तौर पर सामूहिक बलात्कार का
निशाना बनाई गई पाकिस्तान की मुख्तार माई का कहना है कि उनके देश में
महिलाओं को कभी न्याय नहीं मिल सकता.
दक्षिणी पंजाब के मीरावाला गांव
में मुख़्तार माई से सामूहिक बलात्कार किया गया था. सामूहिक बलात्कार का
यह आदेश कथित तौर पर गांव के बड़े-बूढों ने दिया था. मुख़्तार का जुर्म ये
था कि उसके भाई के कथित तौर पर किसी महिला से अवैध संबंध थे.इसके बाद मुख़्तार माई ने जब अदालत के ज़रिए इंसाफ़ की लड़ाई लड़ने का फ़ैसला किया तो वो पाकिस्तान और दुनियाभर की सुर्खियों में आ गईं.
मुख़्तार से बात की.
मुझे सब कुछ याद है. मैं इसे नहीं भूल सकती- यह हमेशा मेरी ज़िंदगी का हिस्सा रहेगा. यह घटना 2002 में हुई थी. मुझे हरेक चीज़ याद है, यहां तक कि हादसे का समय भी.वे मेरे माता-पिता के घर पर बैठे हुए थे और उन्होंने मेरे भाई के किए की माफ़ी मांगने के लिए मुझे चुना. मुझे दुख है कि उन्होंने मुझे चुना लेकिन मैं ये भी नहीं चाहती थी जो कुछ मेरे साथ हुआ वह मेरी किसी बहन के साथ होता.
इस घटना के बाद मैंने दो बार ख़ुदकुशी करने की कोशिश की क्योंकि मुझे लगा कि मुझे कोई इंसाफ़ नहीं मिलेगा. जो कुछ मेरे साथ हुआ वो 'इज्जत के नाम' पर हत्या का ही एक रूप था.
सम्मान एक ज़हरीला शब्द है. यहां सम्मान सिर्फ़ मर्दों के लिए है, महिलाओं के लिए नहीं. किसी भी हाल में उन्हें ही ज़िम्मेदार ठहराया जाता है. महिलाओं के सम्मान का मालिक पिता, भाई और ससुर हैं.
एक लड़की का अपना घर तक नहीं होता; पहले वह उसके पिता का घर होता है, फिर उसके पति का आख़िर में उसके बेटे का घर.
जो कुछ मेरे साथ हुआ, वह व्यवस्था का एक हिस्सा है. इसमें बेटा और बेटी में अंतर है: एक, दूसरे से बेहतर है.
बेटा-बेटी में अंतर
यह माँ से शुरू होता है. जब कुछ पकाया जाता है, खाना पहले बाप और बेटे को दिया जाता है और अगर कुछ बच जाता है तो उसे लड़की को दिया जाता है.खुदा ने महिला और पुरुष दोनों को ही अधिकार दिए हैं, लेकिन जागरूकता की कमी, समाज की झूठी परंपराओं और क़ानून नहीं होने से ऐसा हो रहा है.
मनपंसद जीवनसाथी चुनने पर लड़कियों को मार दिया जाता है.
उन लड़कियों को कभी इंसाफ़ नहीं मिलता, क्योंकि हत्यारा पिता होता है और बचाने वाली माँ- यही व्यवस्था और उसका दुष्चक्र. क्यों कभी किसी औरत को इंसाफ़ नहीं मिलता- क्या औरत इंसान नहीं है?
इंसाफ़ का इंतज़ार
12 साल के बाद आज भी मैं इंसाफ़ के लिए अदालतों में अपील कर रही हूं. अदालत कहती है कि आपको चार गवाहों की ज़रूरत है- मेरे पास तो गवाही के लिए पूरा गांव है- फिर भी इंसाफ नहीं.सबसे बड़ी समस्या सामंतवादी सोच है. जब पुलिस लोगों की नहीं सुनती तो वे इंसाफ़ के लिए गांव के बड़े-बुजुर्गों के पास जाते हैं. और ये 'बड़े' लोग वैसा ही फ़ैसला करते हैं, जैसा कि उन्होंने मेरे लिए किया.
हालाँकि 2002 के बाद से मेरे गांव में फिर वैसी घटना नहीं हुई. अब फ़ैसलों के लिए 'बड़े' लोगों की पंचायत भी नहीं है.
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