#Editorial: जन धन के दावे और हकीकत
इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जहां भी जाते हैं जन धन योजना का जिक्र करने से नहीं चूकते। वे गर्व से बताते हैं कि किस तरह उनकी सरकार अगले साल छब्बीस जनवरी तक साढ़े सात लाख बैंक खाते खोलना चाहती थी लेकिन लगभग आठ करोड़ खाते तो नवंबर के अंत तक ही खुल चुके हैं। वे बताते हैं कि कैसे इस योजना के तहत बैंक खाता खुलवाने वाले को पांच हजार के ओवरड्राफ्ट की सुविधा मिलेगी, एक लाख रुपए के दुर्घटना बीमा और तीस हजार रुपए के जीवन बीमा का लाभ मिलेगा। लेकिन वे यह बताना भूल जाते हैं कि ये सभी लाभ उन्हें ही मिलेंगे जिनके पास रुपे डेबिट कार्ड होगा और जिनके खातों में छह महीनों में कम से कम एक बार पैसों का लेन-देन होगा। सच्चाई यही है कि अभी तक जितने बैंक खाते खुले हैं उनमें से छह करोड़ खातों में एक भी पैसा नहीं है और लगभग आधे लोगों के पास रुपे डेबिट कार्ड नहीं है। यानी ये लोग प्रधानमंत्री जन धन योजना का लाभ नहीं उठा सकते हैं।
यह बात हम नहीं कह रहे हैं। केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने दस पेज का एक नोट तैयार किया है। इसमें बताया गया है कि लक्ष्य से कहीं अधिक संख्या में बैंक खाते जरूर खोले जा रहे हैं लेकिन इसमें संगति का अभाव है। जहां बैंक खातों को प्राथमिकता के आधार पर खोला जाना चाहिए वहां रफ्तार सुस्त दिखाई दे रही है। सरकार की तरफ से तैयार किया गया नोट बताता है कि तैंतीस जिले ऐसे हैं जहां पचास फीसद जनता तक भी पहुंचा नहीं जा सका है।
अरुणाचल में 29 फीसद, अंडमान-निकोबार में 38 फीसद जनता तक ही सरकार पहुंच पाई है। केरल और गोवा में शत-प्रतिशत लोगों तक पहुंचने में जरूर कामयाबी हासिल हुई है। मोदी आस्ट्रेलिया में जोर-शोर से बता रहे थे कि जन धन योजना के तहत छह हजार करोड़ रुपए जमा हुए हैं। लेकिन सच तो यह है कि 7.5 करोड़ खातों में से 5.7 करोड़ खातों में शून्य बैंलेंस है। यानी करीब तीन चौथाई खाताधारकों के खातों में एक भी पैसा नहीं है।
इसके अलावा एक अन्य समस्या यह है कि 4.4 करोड़ रुपे कार्ड अभी तक दिए गए हैं जो खुद लक्ष्य का तैंतालीस फीसद है। लेकिन इसमें से भी 1.5 करोड़ कार्ड ही एक्टीवेट किए गए हैं। परेशानी यह है कि जब तक ये कार्ड एक्टीवेट नहीं होंगे तब तक इन्हें दुर्घटना बीमा के तहत लाभ नहीं दिया जा सकता। बैंकों के सामने सबसे बड़ी समस्या यही है कि उन्हें खाताधारकों को कार्ड देने हैं और साथ ही कार्ड को एक्टीवेट भी करना है। इस योजना के तहत सबसे बड़ी चुनौती सुदूर ग्रामीण इलाकों तक पहुंचने की रही है।
ऐसे चौहत्तर हजार गांवों तक पहुंचने का लक्ष्य था लेकिन अक्तूबर के अंतिम सप्ताह तक सिर्फ 2827 गांवों तक पहुंचा जा सका है। एक लाख तीस हजार बिजनेस कारस्पोंडेट (बीएस) ऐसे दुर्गम इलाकों में लगाने का लक्ष्य था जहां हजार से डेढ़ हजार परिवार रहते हैं। इनमें से 1 लाख 15 हजार बीएस तो रख लिए गए हैं लेकिन करीब चौदह हजार परिवारों तक पहुंचना बाकी है। ये बीएस एक तरह से चलते-फिरते बैंकों का काम करेंगे जहां बैंक खोलना संभव नहीं है। इन बीएस को कमीशन दिया जाएगा और हर महीने एक निश्चित तनख्वाह दिए जाने का प्रस्ताव है।
प्रधानमंत्री ने पंद्रह अगस्त को लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए सभी तक बैंकिंग सुविधा पहुंचाने का वादा किया था। इसके कुछ दिन बाद जन धन योजना घोषित कर दी गई। यों पहली बार इस तरह की पहल नहीं हुई।
इससे पहले, यूपीए सरकार ने वित्तीय समावेशन के नाम से नोफ्रिल यानी मामूली रकम से खुल जाने वाले खाते खोलने का अभियान चलाया था। पर बाद में पाया गया कि बहुत सारे नोफ्रिल खाते निष्क्रिय रहे। यही जन धन योजना में भी देखने में आया है।
जिस तरह से जन धन योजना का प्रचार-प्रसार किया गया उससे लोगों को लगा कि हर किसी को पांच हजार रुपए का ओवरड्राफ्ट निकालने का मौका मिलेगा। तब आशंका भी जाहिर की गई थी कि पहले से ही वित्तीय संकट से रूबरू हो रहे बैंकों को सत्तर हजार करोड़ रुपए के संभावित घाटे की तरफ धकेला जा रहा है। अब कहा जा रहा है कि ओवरड्राफ्ट के लिए सख्त नियम बनाए जाएंगे। छह महीनों तक जिनके खाते ठीक ढंग से चलन में होंगे वही इस सुविधा के हकदार होंगे। यानी आसान शब्दों में कहा जाए तो जिन लोगों ने पांच हजार रुपए के ओवरड्राफ्ट के लालच में खाते खुलवाए हैं उन्हें कम से कम छह महीने इंतजार करना पड़ेगा।
उधर विपक्ष इसे अभी से मुद््दा बना रहा है। झारखंड के विधानसभा चुनावों के लिए प्रचार कर रहे राहुल गांधी लोगों से पूछ रहे हैं कि जन धन योजना के तहत खाता खुलवाने के बाद उनके खाते में पांच हजार रुपए जमा हुए हैं या नहीं। राहुल का इस तरह से तथ्यों को तोड़ना अगर गलत है तो मोदी की तरफ से भी पांच हजार के ओवरड्राफ्ट का बिना शर्तों के प्रचार-प्रसार करना भी उतना ही गलत है। दोनों अपने-अपने तरीके से राजनीति करते ही नजर आ रहे हैं।
जन धन योजना की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जोर-शोर से कहा था कि खाता खुलवाने वालों को तीस हजार रुपए का जीवन बीमा कवर मिलेगा। इस उम्मीद में भी बहुत-से लोगों ने अपने खाते खोले, लेकिन अब साफ किया गया है कि इस योजना का फायदा अठारह से साठ साल के लोगों को ही मिलेगा। वित्त मंत्रालय का कहना है कि उनसठ साल की उम्र में अगर किसी ने खाता खुलवाया तो उसे केवल एक साल के लिए इसका फायदा मिलेगा। बताया गया है कि केंद्र और राज्य सरकार के सेवानिवृत्त कर्मचारी इसके दायरे में नहीं आएंगे। एक घर से एक ही सदस्य इसका फायदा उठा सकेगा। आयकर देने वाले और यहां तक कि टीडीएस देने वाले भी इसके दायरे से बाहर रखे गए हैं।
इसके अलावा जिस किसी के पास भारत सरकार की तरफ से प्रायोजित बीमा योजना की पालिसी होगी उन्हें भी जन धन योजना के तहत तीस हजार रुपए की जीवन बीमा योजना का लाभ नहीं मिल सकेगा। यहां तक कि किसी भी तरह की जीवन बीमा पालिसी रखने वाले भी हाशिए पर रखे गए हैं। जानकारों का कहना है कि इन शर्तों के लागू होने पर पचास फीसद खाताधारकों को ही इस योजना का लाभ मिल सकेगा। सवाल उठता है कि एक परिवार से केवल एक सदस्य को इसका लाभ दिया जा रहा है। जन धन योजना के तहत खाता खुलवाने वाले ज्यादातर परिवार वालों में पति-पत्नी दोनों ही कमाते हैं। ऐसे में एक को हाशिए पर डालना कहां तक उचित है?
जन धन योजना के तहत एक लाख रुपए का दुर्घटना बीमा लाभ भी दिया गया है। लेकिन यह प्रावधान 31 मार्च, 2015 तक के लिए ही है। इसके बाद इस योजना की समीक्षा करने की बात कही गई है, यानी इस योजना को इसी रूप में आगे जारी रखे जाने की सौ फीसद गारंटी नहीं है। जानकारों का कहना है कि ये दो योजनाएं जन धन योजना के तहत बैंक खाता खुलवाने का एक बड़ा आकर्षण थीं और अगर दोनों में ही लाभ को संकुचित कर दिया जाता है तो फिर मोदी की मनपंसद योजना को झटका लग सकता है।
जानकारों का यह भी कहना है कि जितनी बड़ी संख्या में बैंक खाते खोले जा रहे हैं उस संख्या पर भी संदेह करने के कारण हैं। बहुत-से लोगों ने पहले से ही बैंक खाता होने के बाद भी नया खाता खुलवा दिया है। इस तरह दोहरे खाते खुल गए हैं। कागजों में तो सबके खाते खुल जाएंगे लेकिन क्या इस योजना का लाभ वास्तव में उस गरीब आदमी तक पहुंच पाएगा जो मोदी की नजर में बैंक की सीढ़ियां नहीं चढ़ सकता था, जिसका खाता खुलता नहीं था और जो विकास से वंचित था।
दरअसल, जन धन योजना का असली मकसद तो सबसिडी को सीधे नकदी के रूप में देना है। सीधे जरूरतमंद के बैंक खाते में डालना है। इसमें कोई बुराई भी नहीं है लेकिन सरकार की नीयत साफ होनी चाहिए। कॉरपोरेट जगत को तो सरकार ने पिछले वित्तीय साल में पौने छह लाख करोड़ रुपए कर-रियायतों के रूप में दिए। जबकि कॉरपोरेट जगत सबसिडी को ऐसी खैरात के रूप में देखता है जो केवल गरीब को दी जाती है। कॉरपोरेट जगत को मिलने वाली सरकारी मदद को ‘इंसेटिव’ कहा जाता है!
सरकार का कहना है कि सबसिडी जरूरतमंद तक पहुंचती नहीं है, एक रुपया पहुंचाने में ढाई रुपए खर्च हो जाते हैं। यह तर्क अपनी जगह सही है, लेकिन खाद्य सुरक्षा कानून के तहत देश की सड़सठ फीसद आबादी को तीन रुपए किलो की दर से मिलने वाले चावल, दो रुपए किलो की दर से गेहूं और एक रुपए किलो की दर से मिलने वाले मोटे अनाज को भी नकदी के रूप में दिए जाने की योजना सरकार बना रही है। जानकारों का कहना है कि ऐसा करना किसानों के हित में नहीं होगा।
अभी सरकार को हर साल खाद्य सुरक्षा कानून के लिए छह करोड़ बीस लाख टन अनाज चाहिए। यह अनाज सरकार सरकार किसानों से खरीदती है और हर साल न्यूनतम समर्थन मूल्य में इजाफा भी करती है। अब अगर सरकार सवा लाख करोड़ रुपए की खाद्य सुरक्षा योजना में सबसिडी सीधे नकद रूप में जरूरतमंदों को दी गई, तो फिर सवाल उठता है कि क्या सरकार किसानों से अनाज खरीदना कम कर देगी? तब जरूरतमंद को सबसिडी मिलेगी और वह सीधे बाजार से अनाज खरीद सकेगा। जानकारों का कहना है कि ऐसा करने पर किसानों के हित मारे जाएंगे। हैरत की बात है कि एक तरफ तो भारतीय जनता पार्टी किसानों को उनकी उपज की लागत से पचास फीसद ज्यादा मूल्य देने की बात अपने घोषणापत्र में कर चुकी है तो दूसरी तरफ उसकी सरकार किसानों के हितों को जोखिम में डाल रही है
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