Saturday, 25 April 2015

#MannKiBaat on #FarmerSuicide :'मर जवान, मर किसान' से 'जो बना वो किया तक' ...एक और जहां आंधी, तूफान, बारिश और बाढ़ तो दूसरी ओर कीमतों को तय करने के तौर तरीके और ख़राब मार्केटिंग

#MannKiBaat on :'मर जवान, मर किसान' से 'जो बना वो किया तक' ...एक और जहां आंधी, तूफान, बारिश और बाढ़ तो दूसरी ओर कीमतों को तय करने के तौर तरीके और ख़राब मार्केटिंग

नरेंद्र मोदी, मनमोहन सिंह
"कांग्रेस ने लाल बहादुर शास्त्री के नारे 'जय जवान, जय किसान' को 'मर जवान, मर किसान' में बदलकर रख दिया है लेकिन गुजरात के किसानों के मन में अपनी ज़िंदगी ख़त्म करने का ख़्याल तक नहीं आया."
यूपीए की पिछली 'भ्रष्ट', 'अक्षम' और 'राष्ट्र विरोधी' सरकार के दौरान जब किसान खुदकुशी कर रहे थे तो नरेंद्र मोदी ने 30 मार्च, 2014 को ये बातें कहीं थीं.

"ये समस्या बहुत पुरानी है, इसकी जड़ें गहरी हैं और ये दूर दूर तक फैला हुआ है. हमारे किसानों को मरने नहीं दिया जाएगा. सरकारें (पिछली) जो कुछ कर सकती थीं, वे कर रही हैं. हमें इस बारे में मिलकर सोचने और इसका हल निकालने के लिए साथ काम करने की जरूरत है."

पढ़ें विस्तार से

किसान, आत्महत्या
एनडीए की 'राष्ट्रभक्त', 'सक्षम' और 'साफ़-सुथरी सरकार' के शासन में जब किसान अपनी जान ले रहे थे तो 23 अप्रैल, 2015 को नरेंद्र मोदी के सुर कुछ इस तरह निकले.

भारत में किसानों की आत्महत्या की ख़बरें सुर्खियों में हैं और यह एक असामान्य घटना है क्योंकि दर्शकों को खेती-किसानी की ख़बरें दिलचस्प नहीं लगतीं और ऐसी ख़बरों को अंग्रेजी के टेलीविज़न चैनल बहुत कम तवज्जो देते हैं.
जो सबसे बड़ा बदलाव हुआ है कि एक किसान ने महान कही जानी वाली राष्ट्रीय मीडिया के सामने खुद को फांसी पर लटका लिया.
आम आदमी पार्टी की एक रैली के दौरान हुई इस घटना के बाद से ही रिपोर्टिंग जारी है.

देखने की जरूरत

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पहले पहल तो ऐसा कोई सामने नहीं आया जिसे उस किसान की मौत के लिए जवाबदेह ठहराया जा सके.

आम आदमी पार्टी ने बीजेपी को ज़िम्मेदार ठहराया और बीजेपी ने 'आप' और कांग्रेस दोनों को. लेकिन लंबे अरसे में जो नतीजे आएंगे, उसकी आहट अभी से साफ़ सुनी जा सकती है.
ये एक ऐसा मुद्दा है जिसे बीजेपी नज़रअंदाज नहीं कर सकती और इसे देखने की ज़रूरत है और प्रधानमंत्री के बयान से इसका अंदाज़ा मिलता है.
जब ये मामला लोकसभा में पहुंचा तो राजनाथ सिंह ने एक बहस में किसानों की मौत को राजनीतिक रंग न देने की सलाह दी. लेकिन इस मुद्दे को राजनीतिक रंग किसने दिया.

राजनीति का हिस्सा

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किसानों की खुदकुशी को चुनावी मुद्दा बनाने के बाद बीजेपी और मोदी को अब इसकी शिकायत नहीं करनी चाहिए.

और किसी भी सूरत में अगर ये मुद्दा किसी लोकतांत्रिक राजनीति का हिस्सा नहीं हो सकता है तो क्या होना चाहिए.
जुलाई, 2012 में भारत में खुदकुशी के मामलों के अध्ययन के हवाले से बीबीसी की एक स्टोरी में साल 2010 में 19 हज़ार लोगों की खुदकुशी की बात कही गई थी.
इसलिए मोदी इस लिहाज़ से सही हैं कि यह एक पुरानी और हर तरफ फैली समस्या है.
लेकिन जब वो दूसरी सरकारों पर जान बूझकर किसानों की जान लेने के आरोप लगाते हैं तो उन्हें इस बात का ख़्याल रखना चाहिए.

किसानों की खुदकुशी

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इंटेलीजेंस ब्यूरो ने मोदी सरकार के लिए दिसंबर में 'किसानों की खुदकुशी के मामलों की बाढ़' नाम से एक रिपोर्ट लिखी थी.

रिपोर्ट में 'गुजरात, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में किसानों की आत्महत्या की घटनाओं' के अलावा 'महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक और पंजाब में ऐसे मामले बढ़ने' की बात कही गई है.
रिपोर्ट में डावांडोल मॉनसून, कर्ज़ों का बकाया, बढ़ते ऋण, फसल की कम पैदावार, अनाज की कम कीमत पर ख़रीद और फसलों की लगातार नाकामी को किसानों की खुदकुशी के लिए ज़िम्मेदार बताया गया है.
रिपोर्ट में किसानों की परेशानी को पानी के सवाल, आर्थिक नीतियों, गैर-कृषि कर्जों के मुद्दे और आयात-निर्यात की कीमतों की खामी से जोड़ा गया है.

फसल की उपज

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रिपोर्ट के अनुसार किसानों की खुदकुशी के दो वजहें हैं- पहला प्राकृतिक और दूसरा मानव निर्मित.
एक और जहां आंधी, तूफान, बारिश और बाढ़ जैसे कारण फसल की उपज को ख़राब करते हैं तो दूसरी ओर कीमतों को तय करने के तौर तरीके और ख़राब मार्केटिंग जैसी मानव निर्मित चुनौतियां उपज के बाद के नुकसान का रास्ता बनाती हैं.
इसलिए सरकार की अपनी ही रिपोर्ट के मुताबिक उनकी ज़िम्मेदारी बनती है और मोदी ये सीखेंगे कि इसके नतीजों से बचने का कोई रास्ता नहीं होगा.

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