Tuesday, 27 January 2015

KIRAN BEDI RUN AWAY FROM INTERVIEW BY RAVISH KUMAR :::: किरण बेदी जी, काश कुछ और वक्त मिल पाता : रवीश कुमार :::: सूचना के अधिकार के तहत राजनीतिक दलों से चंदे और खर्चे का हिसाब मांगने के सवाल पर किरण बेदी पलट चुकी हैं।

KIRAN BEDI RUN AWAY FROM INTERVIEW BY RAVISH KUMAR :::: किरण बेदी जी, काश कुछ और वक्त मिल पाता : रवीश कुमार :::: सूचना के अधिकार के तहत राजनीतिक दलों से चंदे और खर्चे का हिसाब मांगने के सवाल पर किरण बेदी पलट चुकी हैं।

KIRAN BEDI RUN AWAY FROM INTERVIEW BY RAVISH KUMAR -BHUPESH KUMAR MANDAL

रवीश कुमार के टफ सवाल : दिल्ली के दंगल में किरण बेदी की दावेदारी
जनवरी 28, 2015

Ravish Kumar talk with Kiran Bedi




 



नई दिल्ली: पार्टियों को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता लाने के लिए अगर जरूरत महसूस हुई तो और कानून बनाए जाएंगे। दिल्ली में बीजेपी की मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार किरण बेदी ने बुधवार को एनडीटीवी के रवीश कुमार के साथ बातचीत में इस बात को कहा हालांकि वह इस सवाल को टालती नज़र आईं कि पार्टियों को मिलने वाले चंदे की जानकारी पूरी तरह से पारदर्शी है। इस चर्चा के दौरान किरण बेदी ने कहा कि वह राजनीति की छात्र रही हैं और राज मिलने पर केंद्र सरकार के साथ मिलकर दिल्ली के विकास के लिए काम करेंगी।

उन्होंने कहा कि वह स्पेशलिस्ट हैं और जिस तरह से उन्होंने नौकरी की है उसी तरह से वह राजनीति करेंगी। उन्होंने कहा कि वह लोगों को नौकरी देने और अनियमित कॉलोनियों को नियमित करने के लिए काम करेंगी हालांकि जब उनसे पूछा गया कि इसके लिए उनके पास क्या रणनीति या योजना है तो वह सवाल को टाल गईं।

किरण बेदी जी, काश कुछ और वक्त मिल पाता : रवीश कुमार
Ravish Kumar, Last Updated: जनवरी 28, 2015 12:13 PM IST


नई दिल्ली: सुबह के 5 बज रहे थे तभी सुशील का फोन आया कि बैकअप प्लान किया है आपने। सुशील मेरे शो के इंचार्ज हैं। बैक अप प्लान? हो सकता है कि आधा घंटा न मिले। इंटरव्यू के लिए तैयार होकर चाय पी ही रहा था कि सुशील के इस सवाल ने डरा दिया। प्राइम टाइम एक घंटे का होता है और अगर पूरा वक्त न मिला तो बाकी के हिस्से में क्या चलाऊंगा। हल्की धुंध और सर्द भरी हवाओं के बीच मेरी कार इन आशंकाओं को लिए दफ्तर की तरफ दौड़ने लगी।

गाज़ीपुर से निज़ामुद्दीन पुल तक कांग्रेस, बीजेपी, आम आदमी पार्टी के होर्डिंग तमाम तरह के स्लोगन से भरे पड़े थे। सियासी नारों में सवालों की कोई जगह नहीं होती है। नारे जवाब नहीं होते हैं। मैं दफ्तर पहुंच गया। कैमरामैन मोहम्मद मुर्सलिन अपने साज़ों-सामान के साथ बाहर मेरा इंतज़ार कर रहे थे। जिस रास्ते से राष्ट्रपति ओबामा को सिरी फोर्ट आडिटोरियम पहुंचना था उसी से लगा है उदय पार्क जहां किरण बेदी रहती हैं। इसलिए हम सुरक्षा जांच के कारण जल्दी पहुंच जाना चाहते थे ताकि हमारी वजह से किरण बेदी को इंतज़ार न करना पड़े।

किरण बेदी समय पर ही बाहर आईं। इतनी तेज़ी से घर से निकलीं कि दुआ सलाम का भी ठीक से वक्त नहीं मिला। हम उनके साथ-साथ बल्कि पीछे-पीछे भागते चले गए। वैसे इनकी फुर्ती देखकर अच्छा लगा कि वे इस उम्र में भी फिट हैं। इसीलिए मेरा पहला सवाल ही यही था कि क्या आप राजनीति में खुद को फिट महसूस करने लगी हैं। जवाब में किरण बेदी खुद को पोलिटिकल साइंस का विद्यार्थी बताने लगीं। मुझे हैरानी हुई कि पोलिटिकल साइंस का स्टुडेंट और टीचर होने से ही क्या कोई राजनेता बनने की क्वालिटी रखता है या फिर इतनी जल्दी राजनीति में फिट हो जाता है। खैर किरण बेदी इस जवाब के बहाने अपने अतीत में चली गईं। उन्हें लग रहा था कि अतीत में जाने से कोई उन पर सवाल नहीं कर सकता। उनका अतीत ज़रूर अच्छा रहा होगा, लेकिन राजनीति तो आज के सवालों पर नेता का नज़रिया मांगती है।

दस मिनट ही इंटरव्यू के लिए मिला। मुश्किल से बारह मिनट हुआ, लेकिन मैंने बीस मिनट के लिए कहा, लेकिन वो भी नहीं मिला फिर इस भरोसे शुरू कर दिया कि नेता एक बार कहते हैं फिर इंटरव्यू जब होने लगता है कि पांच दस मिनट ज्यादा हो जाता है। मगर समय की पाबंद किरण बेदी बीच-बीच में घड़ी भी देखती रही हैं और इंटरव्यू के बीच में यह सोचने लगा कि प्राइम टाइम अब किसी और विषय पर करना होगा। सिर्फ किरण बेदी का इंटरव्यू चलाने का प्लान फेल हो चुका है। सुशील की बात सही निकली है। यह सब सोचते हुए मेरा ध्यान सवालों पर भी था। मेरे सवाल भी किरण बेदी के दिए वक्त की तरह फिसलते जा रहे थे। रात ढाई बजे तक जागकर की गई सारी तैयारी अब उस कागज में दुबकने लगी, जिसे मैं कई बार मोड़कर गोल कर चुका था।

हम दोनों भाग रहे थे। वो अपने वक्त के कारण और मैं अपने सवालों के कारण। सब पूछना था और सब जानना था। ऐसा कभी नहीं होता। आप पंद्रह मिनट में किसी नेता को नहीं जान सकते। किरण बेदी का पुलिसिया अंदाज़ देखकर हैरान था। इसलिए मैं बीच बीच में एक्सेलेंट बोल रहा था, मुलेठी का ज़िक्र किया। गला खराब होने पर मुलेठी खाई जाती है। देखने के लिए इस टोका-टाकी के बीच बेदी एक राजनेता की तरह बाहर आती हैं या अफसर की तरह। मुझे किरण बेदी में आज से भी बेहतर राजनेता का इंतज़ार रहेगा।

आपने इंदिरा गांधी की कार उठाई थीं। उनका पीछा करते-करते ये सवाल क्यों निकल आया पता नहीं। लेकिन किरण बेदी क्यों ठिठक गईं ये भी पता नहीं। नहीं, मैंने नहीं उठाई थी। बिजली की गति से मैं यह सोचने लगा कि तो फिर हमें बचपन से किसने बताया कि इंदिरा गांधी की कार किरण बेदी ने उठा ली थी। पब्लिक स्पेस में धारणा और तथ्य बहुरुपिये की तरह मौजूद होते हैं। अलग-अलग समय में इनके अलग-अलग रूप होते हैं। किरण बेदी ने कहा कि मैंने कार नहीं उठाई थी। निर्मल सिंह ने उठाई थी जो एसीपी होकर रिटायर हुए। तो फिर निर्मल सिंह हीरो क्यों नहीं बने। दुनिया निर्मल सिंह की तारीफ क्यों नहीं करती है। कोई राजनीतिक पार्टी निर्मल सिंह को टिकट क्यों नहीं देती है।

इस इंटरव्यू की कामयाबी यही रही कि एक पुराना तथ्य उन्हीं की जुबानी पब्लिक स्पेस में आ गया। किरण बेदी ने कहा कि कार निर्मल सिंह ने उठाई मगर मैंने निर्मल सिंह पर कोई कार्रवाई नहीं की। मैंने कोई दबाव स्वीकार नहीं किया, पर सवाल उठता है कि पीएमओ की कार का चालान होने के लिए कोई किरण बेदी या निर्मल सिंह पर दबाव क्यों डालेगा। किरण बेदी ने खुद कहा कि वह कार इंदिरा गांधी की नहीं थी। प्रधानमंत्री की नहीं थी। जिस वक्त निर्मल सिंह ने कार का चालान किया उसमें इंदिरा गांधी नहीं थी। जब मैंने किरण बेदी से पूछा कि क्या वो कार प्रधानमंत्री के काफिले में चलने वाली कार थी। तो जवाब मिला कि नहीं। तब वो कहती हैं कि वो कार पीएमओ की कार थी। कोई भी अंदाज़ा लगा सकता है कि प्रधानमंत्री के दफ्तर में कितनी कारें होती होंगी।

बहुत दिनों से चला आ रहा एक मिथक टूट गया। अब हम इस सवाल के बाद फिर से भागने लगे। हम सबको समझना चाहिए कि चुनाव के वक्त नेता के पास बिल्कुल वक्त नहीं होता। किसी नेता इंटरव्यू के लिए वक्त दिया उसका शुक्रगुज़ार होना चाहिए। हर कोई करता है। तीस मिनट का समय देकर पांच मिनट कर देता है या अंत समय में इंटरव्यू देने से मना कर देता है। इस लिहाज़ से मैं उस वक्त हर बचे हुए समय में एक और सवाल कर लेना चाहता था।

आखिरी सवाल था सूचना के अधिकार से जुड़ा। जिसकी चैंपियन किरण बेदी भी रही हैं। अरुणा राय, शेखर सिंह, अरविंद केजरीवाल, जयप्रकाश नारायण इस बात को लेकर लड़ते रहे हैं कि राजनीतिक दलों को बताना चाहिए कि उन्हें चंदा कौन देता है और कितने पैसे मिलते हैं। जब ये सवाल हम प्राइम टाइम में पूछा करते थे कि ये सभी नाम जिनमें किरण बेदी भी शामिल हैं बीजेपी और कांग्रेस पर खूब हमला करते थे, लेकिन बीजेपी में आकर किरण बेदी ने तुरंत सर्टिफिकेट दे दिया कि पार्टी में फंडिंग की प्रक्रिया पूरी तरह से पारदर्शी है। मुझे यह भी पूछना चाहिए था कि क्या बीजेपी अपने नेताओं को फंडिंग की प्रक्रिया की कोई फाइल दिखाती है। क्या किरण बेदी को ऐसी कोई फाइल दिखाई गई। पर खैर। जवाब यही मिला कि सूचना के अधिकार के तहत राजनीतिक दलों से चंदे और खर्चे का हिसाब मांगने के सवाल पर किरण बेदी पलट चुकी हैं।

पूरा इंटरव्यू इतने कम समय और इतनी रफ्तार के साथ हुआ कि मुझे भी पता नही चला कि मैंने क्या पूछा और उन्होंने क्या जवाब दिया। हम बस मोहम्मद और सुशील के साथ यही बात करते रहे कि कितने मिनट की रिकार्डिंग हुई है। अब हमें कितना और शूट करना होगा। किरण बेदी के पीछे भागते-भागते मेरा दिमाग़ इसमें भी अटका था कि कहीं कैमरे संभाले मोहम्मद गिर न जाएं। कैमरामैन की आंख लेंस में होती है। भागते हुए शूट करना आसान नहीं होता। शुक्रिया मोहम्मद मुर्सलिन। ट्वीटर पर इस इंटरव्यू को ट्रेंड करते हुए अच्छा भी लगा और डर भी। इस इंटरव्यू को लेकर ट्वीटर की टाइम लाइन पर डब्लू डब्लू एफ का मैच शुरू हो गया है। मैं इसे लेकर थोड़ा आशंकित रहता हूं। मैं सुपर जर्निलिस्ट नहीं हूं। मुझे इस सुपर शब्द से ताकत की बू आती है। मुझे ताकत या पावर पसंद नहीं है।

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