#FarmersSuicide : किसान आत्महत्या के घटते आंकड़ों की कहानी ; किसान आत्महत्या: 5 बदतर राज्यों की तस्वीर ; कैसे तैयार होते हैं आंकड़े? ; किसानों की आत्महत्या के आंकड़े कैसे कम हुए?
8 August 2015
किसान आत्महत्या के घटते आंकड़ों की कहानी
राज्य के आंकड़ों के मुताबिक़, 2006 से 2010 के बीच हर साल औसतन 1,555 किसानों ने आत्महत्याएं की थीं. 2011 में यह संख्या शून्य हो गई. 2012 में ये महज़ चार बताई गई. 2013 में ये फिर से शून्य हो गई.
पश्चिम बंगाल ने भी इसी तरीक़े को 2012 में अपना लिया. इसके बाद दूसरे राज्यों में भी आंकड़ों के हेरफेर का सिलसिला शुरू हो गया. दरअसल किसानों की आत्महत्या राजनीतिक तौर पर नुकसान पहुंचाने वाला मुद्दा बन गया है.
ऐसे में एनसीआरबी के ओर से किसानों की आत्महत्या को नए फ़ॉरमेट में बताने से राज्य सरकारों के लिए किसानों की आत्महत्या को कम करके बताना और आसान हो गया है. जो नई कैटेगरी, सब-कैटेगरी शामिल की गई हैं, वह इस तरह से हैं - भूमि वाले किसान, ठेके पर खेती करने वाले किसान, खेतिहर मज़दूर इत्यादि.
कोई बड़ा बदलाव नहीं
एनसीआरबी के मुताबिक नए सिरे से कोई नया वर्ग नहीं बनाया गया है, बस 19 सालों से प्रकाशित सूची में थोड़ा बदलाव किया गया है.
खेती-किसानी में स्वरोजगार का वर्ग ऐसा ही एक वर्ग है. पहले कभी खेतिहर मज़दूरों को एनसीआरबी के आंकड़े या फिर कहीं और भी, स्वरोजगार में शामिल नहीं माना गया. दरअसल खेतिहर मज़दूरों की सबसे बड़ी पहचान ही यही है कि उनका स्वरोजगार नहीं है. वे काम की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह तक भटकते रहते हैं.
बहरहाल, नए फॉरमेट का असर 2014 के आंकड़ों पर भी पड़ा है. अखिल भारतीय किसान सभा की उपाध्यक्ष माला रेड्डी कहती हैं, "एनसीआरबी ने 2014 में, ठेके पर खेती करने वालों को खेतिहर मज़दूर मान लिया है."
ठेके पर खेती करने वाले किसानों के अलावा किसानों की आत्महत्या के नवीनतम आंकड़ों में दूसरी मुश्किलें भी हैं. मसलन "अन्य" वर्ग में आत्महत्या के मामले में भारी बढ़ोतरी देखने को मिली है.
दांव पर विश्वसनीयता
बीते 19 सालों से एनसीआरबी के आंकड़ों से सटीक आंकड़े भले नहीं मिलते हों, लेकिन मोटा मोटी अंदाज़ा मिल जाता था. लेकिन अब यह विश्वसनीयता भी दांव पर है.
सरकार ने किसानों की आत्महत्या को नए सिरे से क्यों वर्गीकृत किया? क्या इन आंकड़ों से सरकार को शर्मसार होना पड़ता था? या फिर सरकार द्वारा एकत्रित आंकड़े ही तस्वीर को बढ़ा चढ़ाकर पेश करने वाले होते थे?
एनसीआरबी का कहना है कि फॉरमेट में बदलाव एक रूटीन प्रक्रिया है. एजेंसी की ओर से कहा गया है, "विभिन्न साझेदारों के अनुरोध को देखते हुए यह एक नियमित प्रक्रिया है." लेकिन सरकार या किसी दूसरी एजेंसी की ओर से फॉरमेट में बदलाव का कोई आधिकारिक अनुरोध का रिकॉर्ड नहीं मिलता. हालांकि ऐसा लगता है कि एजेंसी ने कृषि मंत्रालय के 2013 के अनुरोध के मुताबिक यह बदलाव किया है. उस वक्त शरद पवार देश के कृषि मंत्री थे.
इस बदलाव के पीछे क्या तर्क हो सकता है - पहले सारी कैटेगरी एक ही जगह थी, तो अब हम सबको अलग अलग करके इसे तर्कसंगत बना रहे हैं. पहले के आंकड़ों में सभी किसान नहीं थे. लेकिन यह तर्क काम नहीं करेगा क्योंकि 2013 के आंकड़ों में खेती किसानी में स्वरोजगार अलग से स्पष्ट था.
खेतिहर मज़दूर स्वरोजगार के दायरे में नहीं आ सकते. संसद में सालों तक उठने वालों सवालों के बीच सरकार ने केवल किसानों की आत्महत्या के एनसीआरबी के आंकड़ों का हवाला दिया है, किसी दूसरे वर्ग की आत्महत्याओं को उसमें शामिल नहीं किया है.
किसका है फ़ायदा?
किसानों की लगातार बढ़ती मुश्किलों (आत्महत्या उसका एक पहलू भर है) पर सरकार की प्रतिक्रिया क्या है? सरकार का ध्यान समस्या का सामना करने पर नहीं है बल्कि किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों को नगण्य ठहराने के लिए हथकंडे अपनाने पर है.
किसानों की आत्महत्या के मामलों को शून्य बताना उसी हथकंडे का हिस्सा है. इस साल आंकड़ों के साथ खेल कहीं ज़्यादा बेहतर तरीके से हुआ है. इसकी एक वजह तो यह है कि अगर हम आंकड़ों को नहीं जानेंगे तो कोई समस्या नहीं रहेगी.
गिनती के तरीके को बदलिए, आंकड़े ही बदल जाएंगे. और देश भर में चुप्पी भी देखने को मिलेगी.
किसान आत्महत्या: 5 बदतर राज्यों की तस्वीर
भारत
के महराष्ट्र, तेलंगाना सहित आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और
छत्तीसगढ़ में किसानों की आत्महत्या के सबसे ज़्यादा मामले रिपोर्ट होते
हैं.
बीते एक दशक से देश भर में होने वाली किसानों की आत्महत्या में दो तिहाई हिस्सेदारी इन्हीं राज्यों की है.नए तौर तरीकों से किसानों की आत्महत्या के मामले की गिनती के बावजूद 2014 में किसानों की कुल आत्महत्या में 90 फ़ीसदी से ज़्यादा मामले इन्हीं पांच बड़े राज्यों में सामने आए हैं.
बीते 20 साल में महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा 63,318 तक पहुंच गया है. बीते साल देश भर में किसानों की कुल आत्महत्या में 45 फ़ीसदी से ज़्यादा मामले इस राज्य में दर्ज़ किए गए.
आत्महत्याएं घटी नहीं हैं
इन पांच राज्यों में "अन्य" वर्ग में आत्महत्या के मामले में भारी बढ़ोत्तरी देखने को मिली है. 2014 के 12 महीनों में इस वर्ग में होने वाली मौत तो दोगुनी से भी ज़्यादा हो गई है.
2013 में पूरे भारत में "अन्य" वर्ग में होने वाली आत्महत्या के 24,809 मामले दर्ज हुए थे, जो 2014 में बढ़कर 41, 216 हो गए हैं. अन्य वर्ग में होने वाली आत्महत्या के मामले इतने ज़्यादा हैं जबकि इस वर्ग से 15,735 मौतों को हटाकर एक नई कैटेगरी दिहाड़ी मज़दूरों की बनाई गई है.
2014 में देश में आत्महत्या के सभी मामलों में एक तिहाई हिस्सेदारी (लगभग 31.3 फ़ीसदी) इसी अन्य वर्ग की है. पांच बड़े राज्यों में यह आंकड़ा 16,234 का रहा है, जबकि 2013 में इसकी संख्या 7,107 थी.
बदलते आंकड़ों का सच
इसके अलावा "अन्य" में एक स्वरोजगार वाला वर्ग भी बनाया गया है. इससे आंकड़े किस कदर प्रभावित होते हैं, इसे समझने के लिए किसानों की आत्महत्या और स्वरोज़गार के मामलों को जोड़कर देखकर देखना होगा.छत्तीसगढ़ का ही उदाहरण देखिए, 2009 में यहां किसानों की आत्महत्या के 1,802 मामले दर्ज हुए थे जबकि स्वरोजगार के अन्य वर्ग में यह संख्या 861 थी.
2013 में जैसे ही किसानों की आत्महत्या के मामले शून्य दर्ज किया गया, स्वरोजगार के मामलों में आत्महत्या की संख्या 2077 हो गई. छत्तीसगढ़ में 2013 में, सभी आत्महत्याओं में अन्य एवं स्वरोजगार की हिस्सेदारी 60 फ़ीसदी तक थी.
किसान आत्महत्या: कैसे तैयार होते हैं आंकड़े?
किसानों
की आत्महत्या से जुड़े सालाना आंकड़े राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो
(एनसीआरबी) जारी करता है. लेकिन ये आंकड़ों जिस तरह से जुटाए जाते हैं, वह
समस्या को कहीं ज़्यादा गंभीर बना रहे हैं.
दरअसल, एनसीआरबी आकंड़ा
संग्रह करने की मशीनरी नहीं हैं, बल्कि यह राज्य सरकारों से मिले आंकड़ों
को एकत्रित करके उसे टेबुलर फॉर्म में जारी करती है. इस लिहाज से देखें तो
एनसीआरबी का इन आंकड़ों में अपना कोई हित नहीं है.हालांकि इन आंकड़ों को पेश करने के तौर तरीकों में बदलाव से राज्य सरकारों को आंकड़ों में हेरफेर करने का प्रोत्साहन जरूर मिलता है. राज्यों में बैठे अधिकारियों के लिए आंकड़ों में हेरफेर का काम आसान हो जाता है.
एनसीआरबी के मुताबिक आंकड़े पुलिस स्टेशनों के आधिकारिक आंकड़ों पर आधारित होते हैं. अप्राकृतिक मौतों के मामले ज़िला स्तरीय क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो में दर्ज किए जाते हैं. जिसे पहले राज्य क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो तक भेजा जाता है और उसके बाद उसे नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो भेजा जाता है.
कांस्टेबल की भूमिका अहम
लेकिन हकीकत यह है कि किसी भी राज्य के किसी भी ज़िले के पुलिस स्टेशन में सबसे निचले पायदान वाला कांस्टेबल यह तय करता है कि मरने वाला कौन था- किसान था, या फिर ठेके वाला किसान था या फिर खेतिहर मज़दूर था. यह जानकारी जुटाना सर्वे करने के लिए प्रशिक्षित लोगों के लिए भी मुश्किल काम है.एनसीआरबी ने यह भी बताया है कि बीते साल उसके प्रशिक्षकों ने राज्य के क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अधिकारियों को एक महीने तक कठोर प्रशिक्षण दिया है. यह वैसे लोग थे जो राज्य की राजधानियों में स्थित थे, इनमें स्थानीय स्तर के पुलिस स्टेशन पर तैनात पुलिसकर्मी नहीं थे.
एनसीआरबी की ओर से कहा गया है, "हमने राज्यस्तरीय कर्मचारियों से अनुरोध किया था कि वे जिला स्तरीय और पुलिस स्टेशन के स्तर पर अधिकारियों को प्रशिक्षण दें." लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या राज्य क्राइम ब्यूरो के अधिकारी ऐसा कर पाते हैं? ऐसा कभी नहीं हो पाता है?
हमने महाराष्ट्र के विदर्भ और कर्नाटक के मांड्या जैसे इलाकों के पुलिस स्टेशन से संपर्क किया. इन इलाकों में किसानों की आत्महत्या के ज़्यादा मामले सामने आए हैं. यहां के पुलिसकर्मी चकित थे. आंध्र प्रदेश पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, "हमें तो ऐसी किसी भी ऐसे सर्कुलर की जानकारी नही है जिसमें हमें आंकड़े संग्रह करने या फिर उसे कैसे करने के बारे में कहा गया है."
तहसीलदार की ज़िम्मेदारी
तेलंगाना के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा, "इस तरह के वर्गीकरण का काम पुलिस कांस्टेबल का नहीं है बल्कि यह काम तहसीलदार का है. कोई किसान है अथवा नहीं है, इसका फ़ैसला राजस्व विभाग करता है. एफ़आईआर की कॉपी तहसीलदार के पास जाती है. पुलिसकर्मी आत्हत्या की वजह को लिखते हैं."इसका मतलब है कि वर्गीकरण का काम या तो राजस्व विभाग करता है या फिर राज्य की राजधानी में स्थित स्टेट क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो. जब कोई संदेह होता है तब तेलंगाना के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के मुताबिक, "इंट्री अन्य के वर्ग में किया जाता है." ऐसा हज़ारों मामलों में होता है.
किसानों की आत्महत्या से सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्य महाराष्ट्र के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से जब जानकारी मांगी गई तो उन्होंने केवल 2006 में जारी राज्य सरकार के सर्कुलर का जिक्र किया जिसमें खेती पर संकट की बात शामिल थी. एक अधिकारी ने कहा, "उस सर्कुलर के मुताबिक़ किसी भी किसान की आत्महत्या करने पर उसे ज़िला अधिकारी के पास सूचित करना था." उस अधिकारी ने हमें सर्कुलर की प्रति भी भेजी.
कर्नाटक पुलिस का कहना है कि वह आंकड़ों के नई वर्गीकरण व्यवस्था से चक्कर में पड़ गई है. स्थानीय पुलिस स्टेशनों में एफ़आईआर में इन चीजों के उल्लेख के लिए निर्देश नहीं दिए गए हैं. मध्य प्रदेश के शीर्ष पुलिस अधिकारी ने कहा कि क्षेत्र में तैनात कांस्टेबल को ये आंकड़े एकत्रित करने हैं, इसके बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है.
नई प्रक्रिया की मुश्किल
एनसीआरबी की रिपोर्ट से भी ज़ाहिर होता है कि नई प्रक्रिया से उलझन पैदा हो रही है.इस रिपोर्ट के दूसरे पैराग्राफ़ में किसानों की आत्महत्या के मामले में लिखा गया है, "किसानों में वे लोग शामिल हैं जिनके पास भूमि भी हो और वे खेतों में काम भी करते हैं. इनमें वो भी शामिल हैं जो अपने खेतों में मज़दूरों से काम कराते हैं. इनमें खेतिहर मज़दूर शामिल नहीं हैं." ऐसे में खेतिहर मज़दूर स्व-रोजगार में कैसे शामिल हो सकता है?
जरा उन किसानों पर भी ध्यान दीजिए, जो दूसरों की जमीन पर ठेके पर खेती करते हैं. ज़मीन के किराए के तौर पर एक शुल्क चुकाने के साथ वे अनाज का एक हिस्सा में मालिक को देते हैं. भारत में ठेके पर खेती अमूमन गैर आधिकारिक तौर पर ही होते हैं, उनका कोई दस्तावेज़ या आंकड़ा नहीं रखा जाता है. यही वजह है कि इन किसानों को बैंक से कर्ज भी नहीं मिल पाता.
ऐसे किसान महाजनों के कर्जे में फंसे होते हैं और आत्महत्या करने के लिए मज़बूर होते हैं. लेकिन पहचान निश्चित नहीं होने से ऐसे किसानों को आत्महत्या करने वालों की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता.
नए प्रावधान के तहत ऐसे किसानों की आत्महत्या को गिन पाना और भी मुश्किल हो जाएगा. एनसीआरबी के नई उप सूची में भी इन किसानों को शामिल करने में मुश्किल होगी. यह नवीनतम आंकड़ों में जाहिर भी हुआ है. पूरे भारत में 2014 के दौरान 6,710 खेतिहर मज़दूरों ने आत्महत्या की है. जो किसानों की आत्महत्या से एक हज़ार से भी ज़्यादा हैं.
पूरी प्रक्रिया में समस्या
अब आंध्र प्रदेश का ही उदाहरण ही लीजिए. आंकड़ों के मुताबिक 2014 में राज्य भर में केवल 160 किसानों ने आत्महत्या की है, जबकि इसी दौरान इससे तीन गुणा ज़्यादा खेतिहर मज़दूरों ने आत्महत्या की है.राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की प्रतिक्रिया के मुताबिक, "यह माना जाता है कि संबंधित पुलिस स्टेशन को अप्राकृतिक मौत के छानबीन के दौरान मृतक के बारे में ये जानकारी लिखनी चाहिए यह खेतिहर मज़दूर था या किसान." हालांकि ब्यूरो समस्या को भांपते हुए यह भी कह रहा है, "ब्यूरो संबंधित राज्यों से स्पष्टीकरण मांगेगा."
दरअसल, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो को मालूम है कि पूरी प्रक्रिया में समस्या है. वरिष्ठ अधिकारी भी मानते हैं कि ठेके पर खेती करने वाला वही किसान गिना जाएगा, जिसके आंकड़े दर्ज होंगे. लेकिन साथ ही वह कहते हैं, "प्रत्येक राज्य में ठेके पर खेती को लेकर किसी विस्तृत अध्ययन को लेकर फिलहाल एनसीआरबी का कोई इरादा नहीं है."
किसानों की आत्महत्या के आंकड़े कैसे कम हुए?
महज आंकड़ों की बात करें तो भारत में 1995 से 2014 के बीच किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा तीन लाख पार कर चुका है.
लेकिन
साल 2014 के आंकड़ों को पिछले 19 साल के आंकड़े के साथ मिलाकर नहीं देखा
जा सकता, क्योंकि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने किसानों की
आत्महत्या की गिनती के तरीक़े में बदलाव किया है.ये नए तरीक़े का असर है कि 2014 में किसानों की आत्महत्या के मामले कम हो गए. यह आंकड़ा 5,660 पर आ कर टिक गया. साल 2013 में यह 11,772 का था. तो यह गिरावट कैसे दर्ज की गई?
पड़ताल करने पर पता चलता है कि एनसीआरबी ने किसानों की आत्महत्या के ज़्यादातर मामलों को नए वर्ग में शिफ्ट कर दिया है.
यह इससे भी ज़ाहिर होता है कि एक तरफ किसानों की आत्महत्या के मामले कम हुए हैं तो दूसरी तरफ़ अन्य वर्ग में दर्ज आत्महत्या के मामले बढ़े हैं. यह आप बीबीसी हिंदी के ग्राफिक्स में भी देख रहे हैं.
आंकड़ों पर सवाल
एनसीआरबी ने 2014 में हज़ारों भूमिहीन किसानों की आत्महत्या के मामले को खेतिहर मज़दूर वर्ग में प्रदर्शित किया है. इससे भी किसानों की आत्महत्या के मामले को कम दर्शाने में मदद मिली है.
एनसीआरबी ने खुद ही माना है कि उसके नए आकंड़ों की विश्वसनीयता की जांच नहीं हो सकी है. एजेंसी ने टालमटोल के अंदाज़ में कहा है कि वे इस डाटा का निरीक्षण करेंगे.
इसके साथ ही निचले स्तर के पुलिस स्टेशनों के पुलिसकर्मियों को भी नए तौर तरीक़ों का प्रशिक्षण नहीं दिया गया है. इनसे ही आंकड़े एकत्रित कराए जाते हैं.
इसके अलावा इन आंकड़ों के मुताबिक 2014 में 12 राज्यों और छह केंद्र शासित प्रदेशों में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की. इनमें खेती-किसानी वाले तीन बड़े राज्य - पश्चिम बंगाल, राजस्थान और बिहार, शामिल हैं.
आंकड़ें जारी, जांच बाद में
2010 में कोई भी बड़ा राज्य ऐसा नहीं था, जिसमें किसानों ने आत्महत्याएं नहीं की थीं. तब तीन केंद्र शासित प्रदेशों में किसी किसान की आत्महत्या का मामला सामने नहीं आया था.बहरहाल, अब इन तीनों राज्यों की ओर से यही कहा जा रहा है कि इनके लाखों किसानों में एक भी किसान ने 2014 में आत्महत्या नहीं की यानी किसी भी कारण से किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की.
2014 में एनसीआरबी ने दुर्घटना से होने वाली मौत और आत्महत्या के मामलों के लिए किस तरह से जानकारी जुटाई है, इसको लेकर भी स्पष्टता का अभाव है. आत्महत्या की वजह वही बताए जा रहे हैं, जिसका हवाला सरकारें हमेशा से देती रही हैं - ये आत्महत्याएं तनाव की वजह से हो रही हैं.
किसानों की आत्महत्या की वजहों को लेकर तब भी स्पष्टता का अभाव है जबकि 1995 से अब तक 3, 02, 116 किसान आत्महत्या कर चुके हैं.
बहरहाल, आंकड़ों की प्रस्तुति पर उठते सवालों के बीच यह भी एक हक़ीक़त है कि 2014 में खेती-किसानी के सभी मामलों में आत्महत्या की संख्या 12, 360 है जो 2013 की तुलना में अधिक ही है, कम नहीं.
इतने कम समय में आंकड़ों में इतना ज़्यादा अंतर चौंकाने वाला है. इस मसले पर ख़ुद एनसीआरबी ने भी कहा है कि वह संबंधित राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों से स्पष्टीकरण मांगेगा. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या स्पष्टीकरण से तस्वीर साफ़ हो जाएगी?
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