बांग्लादेश: 'मीरपुर के कसाई' जमात नेता अब्दुल कादिर मुल्ला को फांसी दी गई
| ढाका, 13 दिसम्बर 2013 | अपडेटेड: 03:14 IST
बांग्लादेश में 1971 के मुक्ति संग्राम के दौरान मानवता विरोधी अपराध के
लिए दोषी ठहराए गए जमात-ए-इस्लामी नेता अब्दुल कादिर मुल्ला को गुरुवार रात
फांसी दे दी गई.
देश की सर्वोच्च अदालत ने इस कट्टरपंथी इस्लामी नेता की सजा-ए-मौत को
बरकरार रखा था, जिसके बाद उसे फांसी देने का रास्ता साफ हो गया था. 65 साल
का मुल्ला 'मीरपुर के कसाई' के तौर पर बदनाम था.
बांग्लादेश में चुनाव में एक महीने से भी कम वक्त बचा है. मुल्ला को फांसी दिए जाने के बाद देश में हिंसक प्रदर्शनों का सिलसिला दोबारा शुरू हो सकता है और हालात बिगड़ सकते हैं. हालांकि सरकार अपनी ओर से सब कुछ काबू में रखने की पूरी कोशिश करेगी.
एक जेल अधिकारी ने पीटीआई को बताया कि मुल्ला को ढाका केंद्रीय कारागार में स्थानीय समय के मुताबिक रात 10.01 बजे फांसी दी गई. इससे पहले प्रधान न्यायाधीश मुजम्मिल हुसैन ने उसकी सजा पर पुनरीक्षा याचिका खारिज कर दी थी.
मुल्ला की याचिका खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐसे समय आया जब दो दिन पहले ही आखिरी क्षण में मुल्ला को राहत देते हुए बड़े ही नाटकीय तौर पर उनकी फांसी टाल दी गई थी. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से उच्च सुरक्षा वाले ढाका केन्द्रीय कारागार में बंद मुल्ला को सजा देने के मार्ग का आखिरी अवरोध हट गया था.
बांग्लादेश में चुनाव में एक महीने से भी कम वक्त बचा है. मुल्ला को फांसी दिए जाने के बाद देश में हिंसक प्रदर्शनों का सिलसिला दोबारा शुरू हो सकता है और हालात बिगड़ सकते हैं. हालांकि सरकार अपनी ओर से सब कुछ काबू में रखने की पूरी कोशिश करेगी.
एक जेल अधिकारी ने पीटीआई को बताया कि मुल्ला को ढाका केंद्रीय कारागार में स्थानीय समय के मुताबिक रात 10.01 बजे फांसी दी गई. इससे पहले प्रधान न्यायाधीश मुजम्मिल हुसैन ने उसकी सजा पर पुनरीक्षा याचिका खारिज कर दी थी.
मुल्ला की याचिका खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐसे समय आया जब दो दिन पहले ही आखिरी क्षण में मुल्ला को राहत देते हुए बड़े ही नाटकीय तौर पर उनकी फांसी टाल दी गई थी. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से उच्च सुरक्षा वाले ढाका केन्द्रीय कारागार में बंद मुल्ला को सजा देने के मार्ग का आखिरी अवरोध हट गया था.
बांग्लादेश: इस्लामी नेता कादर मुल्ला को फाँसी
गुरुवार, 12 दिसंबर, 2013 को 23:09 IST तक के समाचार
बांग्लादेश में कट्टरपंथी
इस्लामी नेता अब्दुल कादर मुल्ला को फाँसी दे दी गई है. देश की सर्वोच्च
न्यायालय ने कट्टरपंथी इस्लामी नेता अब्दुल कादर मुल्ला की मौत की सज़ा को
बरक़रार रखा था और गुरुवार देर शाम उन्हें फाँसी दे दी गई.
बांग्लादेश के गृह मंत्रालय ने बीबीसी को क़ादर
मुल्ला की फाँसी की पुष्टि करते हुए बताया कि उन्हें गुरुवार को रात दस बज
ढाका के सेंट्रल जेल में फाँसी दी गई. कादर मुल्ला को फाँसी दिए जाने को लेकर देश भर में सुरक्षा सुबह से ही कड़ी कर दी गई थी, इसके बावजूद उन्हें फाँसी देने के बाद बांग्लादेश के कुछ शहरों में हिंसा की खबरें मिली हैं. विपक्षी कार्यकर्ताओं और पुलिस के बीच हुए संघर्ष में कम से कम पांच लोगों के मारे जाने की ख़बर है.
क़ादर मुल्ला की पार्टी का कहना है कि उनकी फाँसी राजनीति से प्रेरित है.
याचिका रद्द
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट के जज ने मौत की सज़ा पर उनकी पुनर्विचार याचिका को रद्द कर दी थी.अब्दुल कादर मुल्ला को मंगलवार को ही फाँसी दी जानी थी लेकिन उन्हें अंतिम समय में राहत मिल गई.
कादर मुल्ला को फाँसी दिए जाने को लेकर देश भर में सुरक्षा सुबह से ही कड़ी कर दी गई थी, इसके बावजूद उन्हें फाँसी देने के बाद बांग्लादेश के कुछ शहरों में हिंसा की खबरें मिली हैं.
साल 1971 में पाकिस्तान से आज़ादी के लिए हुए युद्ध में मानवता के ख़िलाफ़ अपराध करने के मामले में अब्दुल कादर मुल्ला को इसी साल फ़रवरी में अदालत ने आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई थी.
जमात-ए-इस्लामी पार्टी के शीर्ष नेता कादर मुल्ला आरोपों को नकारते रहे हैं.
कादर मुल्ला पर चले मुक़दमे के विरोध में जमात-ए-इस्लामी ने व्यापक प्रदर्शन किए. उनके समर्थक सरकार पर राजनीतिक साज़िश का आरोप लगाते रहे हैं.
जमात-ए-इस्लामी पार्टी के क्लिक करें कई शीर्ष नेता युद्ध अपराध मुक़दमे के सिलसिले में जेल में है.
प्रदर्शन
मुल्ला उन पांच नेताओं में से हैं जिन्हें बांग्लादेश के अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायाधिकरण ने फ़ांसी की सज़ा दी है. इस न्यायधिकरण की स्थापना 1971 के संघर्ष के दौरान हुए अत्याचारों की जांच के लिए साल 2010 में की गई थी. कुछ अनुमानों के मुताबिक 1971 के अत्याचारों में 30 लाख लोगों की मौत हुई थी.मुल्ला जमात-ए-इस्लामी के सहायक महासचिव थे. मुल्ला को शुरुआत में आजीवन कारावास की सज़ा दी गई थी लेकिन बाद में उन्हें ढाका के उपनगर मीरपुर में निहत्थे नागरिकों और बुद्धिजीवियों की हत्या का दोषी पाया गया था.
इसके बाद हज़ारों प्रदर्शनकारियों ने मांग की थी कि उन्हें फांसी दी जाए. बांग्लादेश की संसद ने इसके बाद क़ानून में बदलाव किया ताकि सरकार इस न्यायाधिकरण के फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील कर सके.
इसी साल सितंबर में सुप्रीम कोर्ट ने मुल्ला की सज़ा को फाँसी में बदल दिया था.
इस विशेष अदालत पर मानवाधिकार समूहों ने सवाल उठाए हैं और कहा है कि यह अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरी नहीं उतरती है.
क़ादर मुल्लाः छात्र नेता से 'युद्ध अपराधी' तक
साल 1971 में पाकिस्तान के
विभाजन और बांग्लादेश की स्थापना के विरोधी रहे अब्दुल कादर मुल्ला को
बांग्लादेश की सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सज़ा सुनाई थी और उन्हें गुरूवार
देर शाम फांसी हो गई.
अभियोजन पक्ष के मुताबिक़ क़ादर मुल्ला चरमपंथी
संगठन अल बदर के सदस्य थे और उन्हें मुक्ति संग्राम के दौरान 344 नागरिकों
की हत्या और अन्य अपराधों में दोषी क़रार दिया गया था.युद्ध अपराध न्यायाधिकरण ने पांच फरवरी 2013 में उन्हें युद्ध अपराध के छह में से पांच आरोपों में दोषी पाया था.
हालांकि जमात-ए-इस्लामी अपने नेताओं पर लगे युद्ध अपराधों के आरोपों को राजनीति से प्रेरित बताती है.
मानवाधिकार संगठन भी युद्ध अपराधों के इन मुकदमों की प्रक्रिया पर सवाल उठाते रहे हैं.
65 वर्षीय मुल्ला बांग्लादेश की सबसे बड़ी धार्मिक पार्टी के जमात-ए-इस्लामी के उप महासचिव थे और छात्र जीवन से ही राजनीति में सक्रिय रहे थे.
इस्लामी छात्र संघ
वर्ष 1966 में जब मुल्ला फरीदपुर के राजेन्द्र कॉलेज में विज्ञान की पढ़ाई कर रहे थे तो उसी दौरान जमात-ए-इस्लामी की छात्र शाखा से जुड़े.तब इसे इस्लामी छात्र संघ के नाम से जाना जाता था और क़ादर मुल्ला इसके अध्यक्ष चुने गए.
स्नातक होने के बाद साल 1968 में उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए ढाका विश्वविद्यालय का रुख़ किया. इस दौरान वह इस्लामी छात्र संघ की शहीदुल्लाह हॉल इकाई के अध्यक्ष चुने गए.
साल 1971 में जमात के नेताओं ने पूर्वी पाकिस्तान (मौजूदा बांग्लादेश) की आज़ादी का विरोध किया. उनका तर्क था कि किसी मुस्लिम देश को तोड़ना इस्लाम के ख़िलाफ़ है.
इस्लामी छात्र संघ का सदस्य होने के नाते क़ादर मुल्ला मुक्ति संग्राम के दौरान चरमपंथी संगठन अल बदर से जुड़े.
बांग्लादेश के संस्थापक और तत्कालीन राष्ट्रपति शेख मुजीबुरर्हमान की 1975 में हत्या और सैन्य तख्तापलट के बाद बनी नई सरकार ने क्लिक करें जमात को फिर से राजनीति में आने की इजाज़त दे दी.
इसके बाद क़ादर मुल्ला राजनीति में सक्रिय हो गए और 2010 आते-आते वह पार्टी के सहायक महासचिव बन गए.
साल 2009 में शेख हसीना सरकार ने 1971 की लड़ाई के दौरान हुए युद्ध अपराधों के अभियुक्तों पर मुकदमा चलाने लिए युद्ध अपराध न्यायाधिकरण का गठन किया.
क़ादर मुल्ला के ख़िलाफ़ 18 दिसंबर 2011 को याचिका के रूप में आरोप दायर किए गए. यह आरोप 1973 में बने क़ानून की धारा 9 (1) के तहत लगाए गए.
उन पर मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तानी सेना का साथ देने और ढाका के मीरपुर इलाक़े में लोगों पर ज्यादतियां करने, बलात्कार (नाबालिगों के साथ बलात्कार) और जनसंहार के आरोप लगाए गए. 'राजकार मिलिशिया' के सदस्य के तौर पर उन पर 344 नागरिकों की हत्या का आरोप लगाया गया.
सज़ा
1973 अधिनियम की धारा 20 (3) के तहत युद्ध अपराध न्यायाधिकरण ने पाँच फरवरी 2013 को क़ादर मुल्ला को उम्रकैद की सजा सुनाई. इसके अतिरिक्त उन्हें 15 साल की और सज़ा सुनाई गई.इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ देश व्यापक प्रदर्शन हुए जिसे बाद में 'शाहवाग आंदोलन' का नाम दिया गया. प्रदर्शनकारी क़ादर मुल्ला के लिए मौत की सज़ा की मांग कर रहे थे.
क्लिक करें प्रदर्शनकारियों ने युद्ध अपराध में दोषी करार दिए गए लोगों को मौत की सज़ा दिए जाने और जमात ए इस्लामी पर प्रतिबंध लगाने की मांग की.
इसके विरोध में जमात-ए-इस्लामी ने भी देशभर में हिंसक प्रदर्शन शुरू कर दिए. उसके कार्यकर्ता दोषी पाए गए अपने नेताओं को रिहा करने की मांग कर रहे थे.
तीन मार्च 2013 को सरकार ने क़ादर मुल्ला को मौत की सज़ा देने की अपील की जबकि इसके अगले ही दिन क़ादर मुल्ला ने रिहाई की अपील की.
आख़िरकार देश की सर्वोच्च अदालत ने 17 सितंबर 2013 को क़ादर मुल्ला को मुक्ति संग्राम के दौरान मीरपुर इलाक़े में हज़रत अली लस्कर और उनके परिजनों ही हत्या के जुर्म में मौत की सज़ा सुनाई.
युद्ध अपराध न्यायाधिकरण ने पाच अन्य मामलों में क़ादर को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई थी.
बांग्लादेश में कई नेताओं पर मंडरा रहा है मौत का साया
शुक्रवार, 13 दिसंबर, 2013 को 08:43 IST तक के समाचार
बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी
नेता अब्दुल कादर मुल्ला को फांसी दिए जाने के बाद भी कई और नेता हैं
जिन्हें युद्ध अपराधों में मौत की सज़ा सुनाई जा चुकी है.
ये सभी मामले 1971 में पाकिस्तान से बांग्लादेश की
आज़ादी के लिए लड़े गए युद्ध के समय के हैं, जिनसे जुड़े मामले एक युद्ध
अपराध न्यायाधिकरण में चले.एक नज़र उन लोगों पर जिन्हें युद्ध अपराध प्राधिकरण की सुनवाई के दौरान सज़ाएं सुनाई जा चुकी हैं लेकिन उनके मामले सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं.
दिलावर हुसैन सईदी- मौत की सज़ा
उन्होंने फांसी की सज़ा के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील की है.
सईदी पर मुक्ति संग्राम के दौरान अल बदर संगठन के साथ मिलकर कई तरह के अत्याचार करने का आरोप था, जिसमें हिन्दुओं को जबरन इस्लाम क़बूलवाना भी शामिल था.
सईदी इस समय 72 साल के हैं और उनके आलोचक कहते हैं कि युद्ध के दौरान बांग्लादेशी हिंदुओं की संपत्ति लूटने और उन पर कब्जा करने के लिए एक छोटा दल तैयार किया.
उनके समर्थक कहते हैं कि दूसरे अभियुक्तों की तरह वो भी इस्लामी विद्वान हैं और कई सामाजिक संगठनों से जुड़े हुए हैं.
अली अहसान मोहम्मद मुजाहिद- मौत की सजा
अभियोजन पक्ष का कहना था कि मोहम्मद मुजाहिद ने बांग्लादेश की आज़ादी का समर्थन करने वाले नेताओं और बुद्धिजीवियों की हत्या के लिए एक मिलिशिया का नेतृत्व किया था.
मुजाहिद 1971 में छात्र नेता थे और उन लोगों में से थे जो संयुक्त पाकिस्तान का समर्थन करते थे.
बांग्लादेश को आज़ादी मिलने के बाद जमात के अन्य नेताओं की तरह वह भी भूमिगत हो गए थे. लेकिन 1977 में एक सैन्य तख़्तापलट के बाद जनरल ज़ियाउर रहमान के सत्ता में आने के बाद वो मुख्यधारा में लौट आए.
बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी की सरकार में 2001-2006 के दौरान मुजाहिद समाज कल्याण मंत्री भी बने.
सलाहुद्दीन कादिर चौधरी- मौत की सजा
उन्हें 23 मामलों में दोषी ठहराया गया. उन पर भी सैकड़ों हिंदुओं को जबरन इस्लाम कबूलवाने का आरोप था.
अभियोजन पक्ष के वकीलों का कहना था कि उन्होंने युद्ध के दौरान चटगांव के अपने पैतृक घर का इस्तेमाल प्रताड़ना देने के लिए किया.
उनकी पार्टी ने उन पर लगाए गए आरोपों को राजनीतिक साज़िश बताया है.
उनके वकीलों का कहना है कि वो अदालत के फैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील करेंगे.
मोहम्मद कमरुज़्ज़मा- मौत की सजा
युद्ध अपराध अदालत ने पाया कि उन्होंने पाकिस्तानी सेना के साथ मिलकर सुहागपुर गांव में करीब 120 किसानों को मौत के घाट उतार दिया. इसके बाद इस गांव को विधावाओं का गांव कहा जाने लगा.
सुनवाई के दौरान तीन विधावाओं ने कमरुज़जमा के ख़िलाफ़ गवाही दी.
उन पर मानवता के ख़िलाफ़ अपराध के सात मामले थे, जिनमें से पांच में उन्हें दोषी पाया गया.
ग़ुलाम आज़म- 90 साल की जेल
युद्ध अपराध अदालत ने युद्ध से जुड़े पाँच मामलों में जमात-ए-इस्लामी के 90 वर्षीय नेता गुलाम आज़म को मानवता के खिलाफ अपराध के लिए दोषी ठहराया है.ग़ुलाम आज़म को युद्ध के दौरान हज़ारों लोगों की हत्या और बलात्कार के मामलों में शामिल होने के लिए 90 साल की सज़ा सुनाई गई है. आज़म 1969 से 2000 तक जमात-ए-इस्लामी के नेता थे. कई लोग उन्हें अपना आध्यात्मिक नेता मानते हैं.
उनके सहयोगी उन्हें लेखक और इस्लामी विद्वान मानते हैं. आज़म ने पाकिस्तान से बांग्लादेश की आज़ादी का कड़ा विरोध किया था. उनका कहना था कि इससे मुसलमान समुदाय बंट जाएगा.
मोतिउर रहमान निजामी- फैसले का इंतजार
मोतिउर रहमान निजामी जमात-ए-इस्लामी के नेता हैं. उन पर अल बदर ग्रुप को संगठित करने का आरोप है, जिसने 1971 में बांग्लादेश के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी.निजामी बांग्लादेश की संसद के लिए दो बार निर्वाचित हुए हैं. उन्होंने 2001-06 के बीच गठबंधन सरकार के मंत्री के तौर पर भी काम किया है. उन पर हत्या, युद्ध अपराध जैसे कई मामले चल रहे हैं. अभी फैसले का इंतजार है.
निजामी ने करीब 20 किताबें लिखी हैं, जिनमें से अधिकतर इस्लाम के बारे में ही हैं.
उनके खिलाफ मामले में अभी फैसला नहीं आया है.
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