श्राद्ध: श्रद्धा से पूर्वजों का स्मरण ,आज से 16 दिन चलने वाले महालय श्राद्ध शुरू, मृत्यु के अनुसार किसका श्राद्घ कब
अपने-अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा रूपी नैवेद्य
अर्पण करने वाला पावन पर्व श्राद्ध 8 सितंबर सोमवार से आरम्भ होगा जो 24
सितंबर तक चलेगा।
सभी सनातन धर्मावलंबी अपनी कुलपंरपरा के प्रति श्रद्धा रखने वाले लोग भाद्रपद पूर्णिमा से अपने दिवंगतों के लिए तिलांजलि, तर्पण-पिंडदान आदि करेंगें। मान्यता है है कि इस कर्म से द्वारा पितृऋण से मुक्ति मिलती है।
पुत्र-पौत्रादि का यह कर्तव्य होता है कि वै अपने माता-पिता तथा पूर्वजों के निमित्त श्रद्धापूर्वक ऐसे शास्त्रोक्त कर्म करें जिससे उन मृत प्राणियों को परलोक अथवा अन्य लोक में भी सुख प्राप्त हो सके।
वे मन के सामान तीव्र गति से वंशजों के घर जा पहुंचते हैं अंतरिक्ष गामी पितृगण श्राद्ध में ब्राह्मणों के शरीर में प्रविष्ट होकर भोजन करते हैं, पितृगण भी भोजन कर तृप्त होते हैं फिर आशीर्वाद देकर पितृलोक जाते हैं।
सभी सनातन धर्मावलंबी अपनी कुलपंरपरा के प्रति श्रद्धा रखने वाले लोग भाद्रपद पूर्णिमा से अपने दिवंगतों के लिए तिलांजलि, तर्पण-पिंडदान आदि करेंगें। मान्यता है है कि इस कर्म से द्वारा पितृऋण से मुक्ति मिलती है।
पुत्र-पौत्रादि का यह कर्तव्य होता है कि वै अपने माता-पिता तथा पूर्वजों के निमित्त श्रद्धापूर्वक ऐसे शास्त्रोक्त कर्म करें जिससे उन मृत प्राणियों को परलोक अथवा अन्य लोक में भी सुख प्राप्त हो सके।
वे मन के सामान तीव्र गति से वंशजों के घर जा पहुंचते हैं अंतरिक्ष गामी पितृगण श्राद्ध में ब्राह्मणों के शरीर में प्रविष्ट होकर भोजन करते हैं, पितृगण भी भोजन कर तृप्त होते हैं फिर आशीर्वाद देकर पितृलोक जाते हैं।
पितरों के आने का दिन
पुराणों के अनुसार बारह महीने की बारह अमावस्या,
सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के प्रारम्भ की चारों तिथियां, मनुवों के
आरम्भ की चौदह मन्वादि तिथियाँ, बारह संक्रांतियां, बारह वैधृति योग, बारह
व्यतिपात योग, श्राद्धपक्ष की तिथियां पांच अष्टका, पांच अन्वष्टका और पांच
पूर्वेद्युह ये श्राद्ध करने के छियानवे अवसर हैं।
पितृरूपी विष्णु के पसीने से तिल की और रोम से कुश की उत्पत्ति मानी जाती है अतः तर्पण और अर्घ्य के समय तिल और कुश का प्रयोग किया जाता है।
परिवार की मृत सौभाग्यवती स्त्रियों का श्राद्ध नवमी को,सन्यासियों का एकादशी, आत्महत्या, शस्त्र, विष, दुर्घटना, सर्पदंश वज्रघात, अग्नि से जले हुए, हिंस्र पशु का शिकार हुए, आत्महत्या या हमले का शिकार हुए दिवंगत जनों के लिए श्राद्ध का दिन चतुर्दशी नियत है। जिनकी मृत्यु तिथि मालूम नहीं हो हो उनके लिए अमावस्या के दिन श्राद्ध किया जाता है।
पितृरूपी विष्णु के पसीने से तिल की और रोम से कुश की उत्पत्ति मानी जाती है अतः तर्पण और अर्घ्य के समय तिल और कुश का प्रयोग किया जाता है।
परिवार की मृत सौभाग्यवती स्त्रियों का श्राद्ध नवमी को,सन्यासियों का एकादशी, आत्महत्या, शस्त्र, विष, दुर्घटना, सर्पदंश वज्रघात, अग्नि से जले हुए, हिंस्र पशु का शिकार हुए, आत्महत्या या हमले का शिकार हुए दिवंगत जनों के लिए श्राद्ध का दिन चतुर्दशी नियत है। जिनकी मृत्यु तिथि मालूम नहीं हो हो उनके लिए अमावस्या के दिन श्राद्ध किया जाता है।
16 दिन चलने वाले महालय श्राद्ध शुरू
16 दिन चलने वाले महालय श्राद्ध आज (सोमवार) से शुरू
हो रहे हैं। मध्याह्न काल में पूर्णिमा आने के कारण सोमवार चतुर्दशी के दिन
पूर्णिमा का श्राद्ध रहा।
श्राद्ध पक्ष का समापन 24 सितंबर को पितृ विसर्जनी अमावस्या के साथ होगा। इस बार 16 दिन के श्राद्ध 17 दिन में संपन्न होंगे। तिथियों में उलटफेर के चलते अनंत चतुर्दशी सोमवार के दिन उन पुरखों का श्राद्ध होगा जिनका निधन पूर्णिमा के दिन हुआ है।
पूर्णिमा का स्नान नौ सितंबर (मंगलवार) को होगा। उसी दिन प्रतिपदा का श्राद्ध होगा। अगले दिन से प्रतिदिन श्राद्ध पड़ रहे हैं। श्राद्ध पक्ष में जिस तिथि को पितर ब्रह्मलीन हुए हों। उसी तिथि को श्राद्ध तर्पण किया जाता है।
ऐसे करें प्रसन्न
ज्योतिषाचार्य दीप्ति श्रीकुंज ने बताया कि पितरों के निमित्त तिल, जौ, अक्षत, कुशा, गंगाजल आदि के साथ तर्पण किया जाता है। ब्राह्मण भोजन कराकर पितरों के निमित्त वस्त्र, फल और दक्षिणा दी जाती है। मान्यता है कि ब्राह्मण को भोजन कराने के लिए पलाश और महुए के पत्तों का प्रयोग किया जाए। इन पर भोजन करने से पितृ प्रसन्न होते हैं।
क्रोध न करें
श्राद्ध पक्ष में मध्याह्न तिथि ली जाती है। जो तिथि दोपहर में हो उसी तिथि का श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध करने वाले को पवित्रता बनाए रखना जरूरी है। यदि क्रोध करेंगे तो पितृ असंतुष्ट हो जाएंगे।
पैसा न हों पास तो बहा दें आंसू
पितरों के ऋण से मनुष्य कभी मुक्त नहीं होता। श्राद्ध करने के लिए पास में पैसा न हों तो भी दक्षिण दिशा की ओर मुख कर आंसू बहा दें, पितृ तृप्त हो जाएंगे। अंजुलि भर जल अंगूठे से होते हुए छोड़ देने अथवा निश्वांस से भी पितरों की तृप्ति का विधान धर्म ग्रंथों में वर्णित है।
पितरों के कनागत केवल भारत में ही नहीं होते बल्कि इन्हीं दिनों पूरी दुनिया मृत पुरखों को किसी न किसी रूप में याद करती हैं। चीन में इसी अश्विन के महीने में नदियों के तट पर जाकर सूखा आटा दक्षिण की ओर मुख कर पुरखों के लिए हवा में उड़ाया जाता है।
जर्मनी में जुलाई-अगस्त में पुरखों की याद में नदियों के तट पर जाकर मोमबत्ती जलाई जाती हैं। थाइलैंड, मलेशिया और इंडोनेशिया में मुस्लिम नागरिक भी पुरखों को सितंबर में नदियों के तट पर जाकर जल देते हैं। इन तीनों देशों के नागरिक उतने लीटर जल चढ़ाते हैं जितने वर्ष पुरखों को मरे हुए बीत गए हों।
रूस और आसपास के तमाम देशों में सितंबर-अक्तूबर में पुरखों को जल देने की परंपरा है। यह जल घरों की छतों पर जाकर चांद को दिया जाता है। मान्यता है कि चांद के माध्यम से यह जल उनके पुरखों तक पहुंचता है। दुनिया के अनेक देशों में किसी न किसी रूप में पितरों को याद किया जाता है। मुख्य बात यह है कि सभी का संबंध जल से जुड़ा हुआ है।
माता का ऋण नहीं उतरता
मान्यता है कि गया और बद्रीनाथ के ब्रह्मकपाली में श्राद्ध करने के बाद पितृगण भगवान के लोक को चले जाते हैं। माता का ऋण अलबत्ता फिर भी नहीं उतरता। श्राद्ध पक्ष में जिसे माता की तिथि याद न हो वह नवमी के दिन माता का श्राद्ध कर सकता है।
इसके बावजूद माता का ऋण उतरता नहीं। शास्त्रों की व्याख्या है कि माता का ऋण केवल मातृ-गया में माता का श्राद्ध करने से उतर सकता है। मातृ-गया गुजरात में सिद्धपुर के पास पाटन तीर्थ पर स्थित है। जो श्रद्धालु यहां जाकर माता का श्राद्ध कर देते हैं वे मातृ ऋण से मुक्त हो जाते हैं।
श्राद्ध पक्ष का समापन 24 सितंबर को पितृ विसर्जनी अमावस्या के साथ होगा। इस बार 16 दिन के श्राद्ध 17 दिन में संपन्न होंगे। तिथियों में उलटफेर के चलते अनंत चतुर्दशी सोमवार के दिन उन पुरखों का श्राद्ध होगा जिनका निधन पूर्णिमा के दिन हुआ है।
पूर्णिमा का स्नान नौ सितंबर (मंगलवार) को होगा। उसी दिन प्रतिपदा का श्राद्ध होगा। अगले दिन से प्रतिदिन श्राद्ध पड़ रहे हैं। श्राद्ध पक्ष में जिस तिथि को पितर ब्रह्मलीन हुए हों। उसी तिथि को श्राद्ध तर्पण किया जाता है।
ऐसे करें प्रसन्न
ज्योतिषाचार्य दीप्ति श्रीकुंज ने बताया कि पितरों के निमित्त तिल, जौ, अक्षत, कुशा, गंगाजल आदि के साथ तर्पण किया जाता है। ब्राह्मण भोजन कराकर पितरों के निमित्त वस्त्र, फल और दक्षिणा दी जाती है। मान्यता है कि ब्राह्मण को भोजन कराने के लिए पलाश और महुए के पत्तों का प्रयोग किया जाए। इन पर भोजन करने से पितृ प्रसन्न होते हैं।
क्रोध न करें
श्राद्ध पक्ष में मध्याह्न तिथि ली जाती है। जो तिथि दोपहर में हो उसी तिथि का श्राद्ध किया जाता है। श्राद्ध करने वाले को पवित्रता बनाए रखना जरूरी है। यदि क्रोध करेंगे तो पितृ असंतुष्ट हो जाएंगे।
पैसा न हों पास तो बहा दें आंसू
पितरों के ऋण से मनुष्य कभी मुक्त नहीं होता। श्राद्ध करने के लिए पास में पैसा न हों तो भी दक्षिण दिशा की ओर मुख कर आंसू बहा दें, पितृ तृप्त हो जाएंगे। अंजुलि भर जल अंगूठे से होते हुए छोड़ देने अथवा निश्वांस से भी पितरों की तृप्ति का विधान धर्म ग्रंथों में वर्णित है।
पितरों के कनागत केवल भारत में ही नहीं होते बल्कि इन्हीं दिनों पूरी दुनिया मृत पुरखों को किसी न किसी रूप में याद करती हैं। चीन में इसी अश्विन के महीने में नदियों के तट पर जाकर सूखा आटा दक्षिण की ओर मुख कर पुरखों के लिए हवा में उड़ाया जाता है।
जर्मनी में जुलाई-अगस्त में पुरखों की याद में नदियों के तट पर जाकर मोमबत्ती जलाई जाती हैं। थाइलैंड, मलेशिया और इंडोनेशिया में मुस्लिम नागरिक भी पुरखों को सितंबर में नदियों के तट पर जाकर जल देते हैं। इन तीनों देशों के नागरिक उतने लीटर जल चढ़ाते हैं जितने वर्ष पुरखों को मरे हुए बीत गए हों।
रूस और आसपास के तमाम देशों में सितंबर-अक्तूबर में पुरखों को जल देने की परंपरा है। यह जल घरों की छतों पर जाकर चांद को दिया जाता है। मान्यता है कि चांद के माध्यम से यह जल उनके पुरखों तक पहुंचता है। दुनिया के अनेक देशों में किसी न किसी रूप में पितरों को याद किया जाता है। मुख्य बात यह है कि सभी का संबंध जल से जुड़ा हुआ है।
माता का ऋण नहीं उतरता
मान्यता है कि गया और बद्रीनाथ के ब्रह्मकपाली में श्राद्ध करने के बाद पितृगण भगवान के लोक को चले जाते हैं। माता का ऋण अलबत्ता फिर भी नहीं उतरता। श्राद्ध पक्ष में जिसे माता की तिथि याद न हो वह नवमी के दिन माता का श्राद्ध कर सकता है।
इसके बावजूद माता का ऋण उतरता नहीं। शास्त्रों की व्याख्या है कि माता का ऋण केवल मातृ-गया में माता का श्राद्ध करने से उतर सकता है। मातृ-गया गुजरात में सिद्धपुर के पास पाटन तीर्थ पर स्थित है। जो श्रद्धालु यहां जाकर माता का श्राद्ध कर देते हैं वे मातृ ऋण से मुक्त हो जाते हैं।
श्राद्ध: श्रद्धा से पूर्वजों का स्मरण
भारत एक ऐसा देश है, जहां सन्तानें पीढ़ी दर पीढ़ी अपने
स्वर्गवासी पूर्वजों का स्मरण करती हैं। यह परम्परा निरंतर चलती रहती है।
पारिवारिक संस्था के प्रति आस्था और अपने पूर्वजों के प्रति आदर पितृपक्ष
का ध्येय है। पितृपक्ष पर आलेख
श्रद्धया दीयते यत् तत् श्रद्धम् अर्थात् श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए, उसे श्राद्ध कहते हैं। भारतीय परम्परा में अपने पूर्वजों को नमन करना, उनके प्रति कृतज्ञ भाव रखना, साथ ही अगली पीढ़ी को अपने पूर्वजों से परिचित कराने की व्यवस्था को श्राद्ध कहा गया है। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष के पंद्रह दिन पितृपक्ष कहे जाते हैं। इन पंद्रह दिनों में परिवार का वातावरण अत्यंत सादा और सात्विक होता है। कोई नया कार्य आरम्भ नहीं किया जाता। अपने स्वर्गीय पूर्वजों का स्मरण कर सभी प्राणियों को दान दिया जाता है। साथ ही किसी प्रकार का मांगलिक उत्सव नहीं मनाया जाता। आश्विन मास का कृष्ण पक्ष पूर्णतया श्रद्धेय पितरों को समर्पित होता है। इसका उद्देश्य भावी पीढ़ी को परिवार श्रृंखला से भावनात्मक आधार पर जोड़ना भी है। साथ ही पितरों के आदर्शों और उनके नैतिक बल से प्रेरणा ग्रहण कर जीवन संघर्ष में उपलब्धियां प्राप्त करना है।
पितृपक्ष के पंद्रह दिनों में अपने पूर्वजों का श्राद्ध उनकी मृत्यु तिथि पर किया जाता है। जिनका देहांत पूर्णिमा को होता है, उनका श्राद्ध भाद्रपद की पूर्णिमा के दिन करने की व्यवस्था है। इसी दिन से महालय का प्रारम्भ माना जाता है। प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार प्रत्येक माह की अमावस्या को पितरों का स्मरण कर श्राद्ध करना चाहिए। कुछ स्मृतियों में इस बात का भी उल्लेख है कि श्राद्ध प्रतिदिन हो। अपने पितरों का स्मरण कर गाय, कुत्ता और पक्षियों को भोजन पदार्थ देना अनिवार्य है। इससे परिवार पितृदोष से मुक्त रहता है। संतानें योग्य और आज्ञाकारी बनती हैं। गया तीर्थ और सिद्धपुर नामक स्थानों पर भी श्राद्ध करने की व्यवस्था है। कुछ लोगों का मानना है कि इन तीर्थस्थलों पर श्राद्ध करने के बाद फिर किसी प्रकार के श्राद्ध की आवश्यकता नहीं होती। यह धारणा दोषपूर्ण है। श्राद्ध का मुख्य उद्देश्य अपने पूर्वजों को निरंतर याद रखना और समय-समय पर कृतज्ञता स्वरूप दान करना है। यह श्रृंखला खंडित नहीं होनी चाहिए।
श्राद्ध की विधि: श्राद्ध करने वालों को पितृपक्ष में अत्यंत सादा और पवित्र जीवन जीना चाहिए। प्रतिदिन स्नानादि से निवृत्त होकर अपने पितरों का स्मरण कर तर्पण करें। किसी भी भोग-विलास की वस्तु या पदार्थ का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यदि श्राद्ध के समय पुत्री का पुत्र भी उपस्थित हो और दोपहर का समय हो तो वह अधिक पवित्र माना जाता है। क्रोध, पलायन और अतिशीघ्रता ये तीन दोष हैं, जो श्राद्ध के समय नहीं करने चाहिए। श्राद्ध के लिए भोजन घर पर बनाया गया हो और दान सामग्री श्राद्ध करने वाले की रुचि की होनी चाहिए। बाहर से आई भोजन सामग्री का दान निष्फल होता है।
पंच बलि विधि: श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों का स्मरण कर प्रत्येक प्राणिमात्र के प्रति श्रद्धा प्रकट की जाती है। इस जग में कोई भी हमसे अलग नहीं है। सब हमारे लिए हितकारी हों और हम सबके लिए कल्याण का हेतु बनें, मन में यह भाव रखते हुए पंच बलि दी जाती है। एक बड़े थाल में पांच पत्ते रखे जाते हैं और उन पत्तों पर श्राद्ध के निमित्त बनी भोजन सामग्री के अंश परोसे जाते हैं। इसके बाद हाथ में जल लेकर अक्षत, पुष्प आदि के साथ संकल्प लिया जाता है, जो इस प्रकार है- ‘मैं अमुक पुत्र अमुक अपने अपने माता/पिता की आत्मा के लिए तथा उनके उत्तम गुण ग्रहण करने के लिए शुद्ध मन और तन से पंचबलि अर्पित करता हूं। मेरे पितरों का आत्मिक संरक्षण सदा मेरे साथ रहे।’ इस संकल्प के साथ सबसे पहले गोबलि दी जाती है। एक पत्ते में भोजन सामग्री रख कर तीन बार ‘गोभ्यो नम:’ का जाप किया जाता है, फिर वह भोजन सामग्री गाय को खिला दी जाती है। भोजन सामग्री देकर गाय पर स्नेह से हाथ अवश्य फेरें। इसके बाद कुत्ते के लिए श्वान बलि, कौओं के लिए काक बलि, विभिन्न देवी-देवताओं के लिए देवादि बलि और अंत में पिपीलिकादि बलि दी जाती है, जो चीटियों के लिए होती है। जब पंचबलि पूर्ण हो जाती है तो किसी पवित्र और विद्वान ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है। शाम के समय किसी निर्धन को भोजन देना चाहिए, साथ ही वस्त्र दान का भी बहुत महत्व है।
ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद पूरे परिवार के साथ बैठ कर पितरों और ईश्वर का स्मरण कर उनके आशीष की कामना करते हुए भोजन ग्रहण करें। पितृपक्ष में अपनी सन्तानों को अपने पूर्वजों के उत्तम गुणों से अवश्य अवगत कराएं तथा उन्हें प्रेरित करें कि वे सात्विक आदर्शों, परिश्रम, मर्यादाओं और धर्म के अनुकूल आचरण करें। यदि पितृपक्ष में श्राद्ध नियमानुसार और श्रद्धा के साथ किया जाता है तो परिवार की उन्नति होती है और सन्तानें योग्य बनती हैं।
श्रद्धया दीयते यत् तत् श्रद्धम् अर्थात् श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए, उसे श्राद्ध कहते हैं। भारतीय परम्परा में अपने पूर्वजों को नमन करना, उनके प्रति कृतज्ञ भाव रखना, साथ ही अगली पीढ़ी को अपने पूर्वजों से परिचित कराने की व्यवस्था को श्राद्ध कहा गया है। आश्विन मास के कृष्ण पक्ष के पंद्रह दिन पितृपक्ष कहे जाते हैं। इन पंद्रह दिनों में परिवार का वातावरण अत्यंत सादा और सात्विक होता है। कोई नया कार्य आरम्भ नहीं किया जाता। अपने स्वर्गीय पूर्वजों का स्मरण कर सभी प्राणियों को दान दिया जाता है। साथ ही किसी प्रकार का मांगलिक उत्सव नहीं मनाया जाता। आश्विन मास का कृष्ण पक्ष पूर्णतया श्रद्धेय पितरों को समर्पित होता है। इसका उद्देश्य भावी पीढ़ी को परिवार श्रृंखला से भावनात्मक आधार पर जोड़ना भी है। साथ ही पितरों के आदर्शों और उनके नैतिक बल से प्रेरणा ग्रहण कर जीवन संघर्ष में उपलब्धियां प्राप्त करना है।
पितृपक्ष के पंद्रह दिनों में अपने पूर्वजों का श्राद्ध उनकी मृत्यु तिथि पर किया जाता है। जिनका देहांत पूर्णिमा को होता है, उनका श्राद्ध भाद्रपद की पूर्णिमा के दिन करने की व्यवस्था है। इसी दिन से महालय का प्रारम्भ माना जाता है। प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार प्रत्येक माह की अमावस्या को पितरों का स्मरण कर श्राद्ध करना चाहिए। कुछ स्मृतियों में इस बात का भी उल्लेख है कि श्राद्ध प्रतिदिन हो। अपने पितरों का स्मरण कर गाय, कुत्ता और पक्षियों को भोजन पदार्थ देना अनिवार्य है। इससे परिवार पितृदोष से मुक्त रहता है। संतानें योग्य और आज्ञाकारी बनती हैं। गया तीर्थ और सिद्धपुर नामक स्थानों पर भी श्राद्ध करने की व्यवस्था है। कुछ लोगों का मानना है कि इन तीर्थस्थलों पर श्राद्ध करने के बाद फिर किसी प्रकार के श्राद्ध की आवश्यकता नहीं होती। यह धारणा दोषपूर्ण है। श्राद्ध का मुख्य उद्देश्य अपने पूर्वजों को निरंतर याद रखना और समय-समय पर कृतज्ञता स्वरूप दान करना है। यह श्रृंखला खंडित नहीं होनी चाहिए।
श्राद्ध की विधि: श्राद्ध करने वालों को पितृपक्ष में अत्यंत सादा और पवित्र जीवन जीना चाहिए। प्रतिदिन स्नानादि से निवृत्त होकर अपने पितरों का स्मरण कर तर्पण करें। किसी भी भोग-विलास की वस्तु या पदार्थ का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यदि श्राद्ध के समय पुत्री का पुत्र भी उपस्थित हो और दोपहर का समय हो तो वह अधिक पवित्र माना जाता है। क्रोध, पलायन और अतिशीघ्रता ये तीन दोष हैं, जो श्राद्ध के समय नहीं करने चाहिए। श्राद्ध के लिए भोजन घर पर बनाया गया हो और दान सामग्री श्राद्ध करने वाले की रुचि की होनी चाहिए। बाहर से आई भोजन सामग्री का दान निष्फल होता है।
पंच बलि विधि: श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों का स्मरण कर प्रत्येक प्राणिमात्र के प्रति श्रद्धा प्रकट की जाती है। इस जग में कोई भी हमसे अलग नहीं है। सब हमारे लिए हितकारी हों और हम सबके लिए कल्याण का हेतु बनें, मन में यह भाव रखते हुए पंच बलि दी जाती है। एक बड़े थाल में पांच पत्ते रखे जाते हैं और उन पत्तों पर श्राद्ध के निमित्त बनी भोजन सामग्री के अंश परोसे जाते हैं। इसके बाद हाथ में जल लेकर अक्षत, पुष्प आदि के साथ संकल्प लिया जाता है, जो इस प्रकार है- ‘मैं अमुक पुत्र अमुक अपने अपने माता/पिता की आत्मा के लिए तथा उनके उत्तम गुण ग्रहण करने के लिए शुद्ध मन और तन से पंचबलि अर्पित करता हूं। मेरे पितरों का आत्मिक संरक्षण सदा मेरे साथ रहे।’ इस संकल्प के साथ सबसे पहले गोबलि दी जाती है। एक पत्ते में भोजन सामग्री रख कर तीन बार ‘गोभ्यो नम:’ का जाप किया जाता है, फिर वह भोजन सामग्री गाय को खिला दी जाती है। भोजन सामग्री देकर गाय पर स्नेह से हाथ अवश्य फेरें। इसके बाद कुत्ते के लिए श्वान बलि, कौओं के लिए काक बलि, विभिन्न देवी-देवताओं के लिए देवादि बलि और अंत में पिपीलिकादि बलि दी जाती है, जो चीटियों के लिए होती है। जब पंचबलि पूर्ण हो जाती है तो किसी पवित्र और विद्वान ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है। शाम के समय किसी निर्धन को भोजन देना चाहिए, साथ ही वस्त्र दान का भी बहुत महत्व है।
ब्राह्मण को भोजन कराने के बाद पूरे परिवार के साथ बैठ कर पितरों और ईश्वर का स्मरण कर उनके आशीष की कामना करते हुए भोजन ग्रहण करें। पितृपक्ष में अपनी सन्तानों को अपने पूर्वजों के उत्तम गुणों से अवश्य अवगत कराएं तथा उन्हें प्रेरित करें कि वे सात्विक आदर्शों, परिश्रम, मर्यादाओं और धर्म के अनुकूल आचरण करें। यदि पितृपक्ष में श्राद्ध नियमानुसार और श्रद्धा के साथ किया जाता है तो परिवार की उन्नति होती है और सन्तानें योग्य बनती हैं।
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