जी-20 से क्या हासिल हुआ?
यूरोज़ोन में मंदी पलटकर आ रही है,जी-20 का ख़राब रिकॉर्ड,यह 'मुक्त-बाज़ार' ढांचे की वक़ालत करते हैं. ये वही ढांचा है जो 2008 की महामंदी के दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्था को संकट से निकालने में नाकाम रहा था.,यह वैश्विक अर्थव्यवस्था की गाड़ी को आगे ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सकता
जी-20 से क्या हासिल हुआ?
ऑस्ट्रेलिया
में हाल ही में संपन्न हुए जी-20 सम्मेलन में वैश्विक अर्थव्यवस्था को
अगले 5 साल में 2.1 प्रतिशत की दर से बढ़ाने पर सहमति बनी है. जी-20 में
दुनिया की सबसे बड़ी 19 अर्थव्यवस्थाएं और यूरोपीय संघ शामिल है.
अगर
आर्थिक वृद्धि का यह लक्ष्य हासिल हो पाया तो अर्थव्यवस्था में 2 ट्रिलियन
डॉलर (1236.50 खरब रुपए से ज़्यादा) बढ़ेंगे और 'लाखों नौकरियां' पैदा
होंगी.लेकिन इसके लिए 800 'नए उपायों' में से कितनों पर सही तरीक़े से काम हो पायगा, कहना मुश्किल है. व्यापार, श्रम क़ानून, शोध-विकास, और सरकारी आधारभूत ढांचा जैसे उपायों में से कितने ज़मीन पर उतरेंगे, पता नहीं.
विश्लेषण
जी-20 के सदस्य दुनिया के 85 फ़ीसदी उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार हैं, लेकिन इनकी आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्थाएं अलग हैं और नीतियां लागू करने का तरीक़ा भी अलग है.सबसे अहम यह है कि ये उपाय मुख्य रूप से 'मुक्त-बाज़ार' ढांचे की वक़ालत करते हैं. ये वही ढांचा है जो 2008 की महामंदी के दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्था को संकट से निकालने में नाकाम रहा था.
इस ढांचे को बहुत अर्थशास्त्री संकट की मुख्य वजह मानते हैं.
भारत ने इनमें से कुछ नीतियों का विरोध किया है, जिनमें रुपए को पूंजी खाते पर परिवर्तनीय बनाना और बैंकिंग को नियंत्रण मुक्त करना शामिल है.
यही वजह यह है कि विकसित देशों के मुक़ाबले भारत मंदी से बेहतर ढंग से निपट पाया.
हालांकि, विडंबना यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जी-20 के आधिकारिक बयान का ही साथ दिया.
मंदी की आहट
यूरोज़ोन में मंदी पलटकर आ रही है, अमरीकी अर्थव्यवस्था में हल्का सुधार है लेकिन चीन, ब्राज़ील और रूस की आर्थिक गति ढीली है.ऐसे में उभरती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में भारत ही उम्मीद की एक किरण है. लेकिन ब्रिस्बेन में मोदी के हस्तक्षेप से यह उम्मीद हल्की और कमज़ोर पड़नी तय है.
हालांकि भारत को अब 'पांच नाज़ुक' उभरते बाज़ारों में से एक में नहीं रखा जाता- जिनमें ब्राज़ील, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ़्रीका और तुर्की हैं.
लेकिन भारत का पूरा आर्थिक आकार इतना कम और निर्माण उद्योग इतना छोटा है कि यह वैश्विक अर्थव्यवस्था की गाड़ी को आगे ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा सकता.
भारत की हालिया प्रगति ने बहुत कम नौकरियां पैदा की हैं और यह 'मुक्त बाज़ार ढांचा' आदर्श नहीं हो सकता, क्योंकि यह कमज़ोर और रोज़गारविहीन दोनों साबित हो चुका है.
जी-20 का ख़राब रिकॉर्ड
ब्रिस्बेन सम्मेलन में 2025 तक महिलाओं के लिए 10 करोड़ नौकरियां पैदा करने और महिला-पुरुषों के बीच काम में भागीदारी के अंतर को 25 फ़ीसदी कम करने का वायदा किया गया है, जो अति आशावाद और दूर की कौड़ी लगता है.साल 2008 में जी-20 की स्थापना से इसके रिकॉर्ड को देखा जाए तो जिन नीतियों और उपायों पर सहमति बनी है उनमें से ज़्यादातर पर ध्यान नहीं दिया जाएगा.
उदाहरण के लिए 2010 में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का अनुमान था कि जी-20 अपने सभी बड़े संकल्पों को पूरा कर दे.
उस स्थिति में वैश्विक प्रगति 2.5 फ़ीसदी (जिससे 1.5 ट्रिलियन या करीब 927.67 ख़रब रुपये बढ़ते) और 3 करोड़ नई नौकरियां मिलतीं. लेकिन व्यवहार में जो हुआ वह सबसे ख़राब स्थिति के करीब था.
ब्रिस्बेन सम्मेलन यूक्रेन संकट, पश्चिमी अफ़्रीका में इबोला महामारी, दक्षिण चीन सागर में सीमा विवाद के साए में हुआ है. पश्चिमी देशों की 'ख़री-खोटी' से नाराज़ रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन तो सम्मेलन ख़त्म होने से पहले ही मॉस्को लौट गए.
हाशिये पर भारत
सम्मेलन में यूं तो सिर्फ़ आर्थिक विकास पर चर्चा होनी थी, लेकिन यह जलवायु परिवर्तन पर एक बयान के साथ ख़त्म हुआ जिसका मेज़बान देश के दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री टोनी एबॉट ने जमकर विरोध किया और कोयले से बिजली बनाने के ज़ोरदार वकालत की.कोयला जलवायु संकट पैदा करने और वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत है.
इसने हाल ही अमरीका-चीन के बीच किए गए समझौते को नई गति दी और ग्रीन क्लाइमेट फंड के लिए अमरीका ने 300 करोड़ डॉलर और जापान ने 150 करोड़ डॉलर देने का संकल्प लिया.
इस बयान में यह भी दिखा कि भारत सम्मेलन में हाशिए पर है क्योंकि दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक होने के बावजूद इसने उत्सर्जन की मात्रा की अधिकतम सीमा तय करने का विरोध किया.
साथ ही भारत अपने तर्क, कि हर देश का जलवायु उत्तरदायित्व उसके प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के हिसाबसे तय होना चाहिए, के समर्थन में किसी को जुटा नहीं सका.
चीन की चुनौती
अगर ब्रिस्बेन सम्मेलन की सकारात्मक विशेषताओं को दृढ़ता से देखा जाता रहे और इनके पीछे मज़बूत राजनीतिक समर्थन न हो तो इससे जी-20 की साख पर गंभीर संकट आ सकता है.विश्व के रईस औद्योगिक लोकतंत्रों के मज़बूत गठबंधन जी-7 के विपरीत जी-20 एक अलग तरह का समूह है जिसमें चीन और रूस जैसे अधिनायकवादी और भारत जैसे ग़रीब देश भी हैं.
ब्रिस्बेन में भारत का योगदान मुख्यतः कर वंचन से लड़ने और 'टैक्स हैवन्स' को सार्वजनिक करने की मांग तक सीमित रहा. जी-20 सदस्य कर से जुड़ी जानकारियां साझा करने पर सहमत हो गए हैं लेकिन आलोचकों का मानना है कि यह काफ़ी नहीं है क्योंकि यह जानकारियां सार्वजनिक नहीं होंगी.
जहां तक मोदी-एबॉट की द्विपक्षीय वार्ता का सवाल है यह मुख्यतः पहले की गई आर्थिक, शैक्षिक और परमाणु सहयोग संधियों को दोहराने तक ही सीमित रही. इसका मुख्यतः नया तत्व संयुक्त नौसैनिक अभ्यासों के ज़रिए 'सामुद्रिक' सुरक्षा पर सहयोग को लेकर किया गया समझौता है.
भारत, अमरीका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच पहले किए गए अभ्यासों की तरह इससे भी चीन को ऐतराज होने की आशंका है, जो ऐसे सहयोग को पश्चिम की 'चीन को घेरने' की नीति मानता है.
अमरीका की अपनी हालिया यात्रा के दौरान मोदी ने राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ एक संयुक्त बयान जारी किया था, जिसमें दक्षिण चीन सागर के इलाके को संभावित संघर्ष की जगह बताया गया था.
इससे चीन नाराज़ हो गया था जिसके इस क्षेत्र में जापान और दक्षिण एशियाई देशों के साथ परस्पर विरोधी दावे हैं. हालांकि इस समय भारत चीन के साथ दुश्मनी मोल लेने को इच्छुक नहीं है.
इसका अर्थ यह हुआ कि भारत को चीन के साथ संबंधों में बेहद संतुलन बनाकर चलना होगा- जो अपने आप में एक चुनौती है.
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