Tuesday, 18 November 2014

I am Uttarakhand and i am on lot of pain...Help me my child from politics::::पलायन और तेज़:14 वर्षों में अब तक क़रीब 3000 गांव पूरी तरह से उजड़ चुके हैं.::उत्तराखंडः क्यों दरक रही हैं उम्मीदें?

I am Uttarakhand and i am on lot of pain...Help me my child from politics
पलायन और तेज़:14 वर्षों में अब तक क़रीब 3000 गांव पूरी तरह से उजड़ चुके हैं.उत्तराखंडः क्यों दरक रही हैं उम्मीदें?
19-11-2014

पलायन और तेज़

पहाड़ के ‘पानी और जवानी’ को पहाड़ में ही रोका जाएगा- सरकारों ने वादा ज़रूर किया लेकिन पलायन का हाल यह है कि पहाड़ के गांव के गांव ख़ाली हो गए हैं.
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जितना पलायन आज़ादी के बाद से 2000 में राज्य बनने तक में नहीं हुआ था उससे ज़्यादा इन 14 वर्षों में हुआ है. 2000 से अब तक क़रीब 3000 गांव पूरी तरह से उजड़ चुके हैं.

उत्तराखंडः क्यों दरक रही हैं उम्मीदें?

19 नवंबर 2014
uttarakhand_farm_farmer
लंबे आंदोलन के बाद आठ नवंबर 2,000 को उत्तराखंड राज्य का निर्माण हुआ था. राज्य वासियों को उम्मीद थी कि नए राज्य में विकास होगा और लोगों को रोज़गार के लिए पलायन नहीं करना पड़ेगा.
लेकिन 14 साल में यह पलायन बढ़ा ही है.
विकास के नाम पर अंधाधुंध निर्माण से पहाड़ खोखले होने लगे हैं और उम्मीदें दरकने लगी हैं, लेकिन क्यों?

पढ़िए, पूरी रिपोर्ट

"लगता तो ऐसा है कि उत्तराखंड में एक और आंदोलन होगा, ज़रूर होगा तभी पहाड़ के लोगों का कुछ हो सकता है वर्ना आज तो पहाड़वासियों के लिए कोई भी नहीं सोच रहा, सभी लूटने में ही लगे हुए हैं."
देहरादून के 48 वर्षीय संजय बलूनी हताशा ज़ाहिर करते हैं.

हताशा

उत्तराखंड
संजय की मां सुशीला बलूनी अलग राज्य के आंदोलन की अग्रिम पंक्ति की नेता रही हैं.
राज्य के हालात पर बात करते हुए उनके आंसू ही छलक पड़ते हैं, "क्या हमने इसी तरह के राज्य के लिए लड़ाई लड़ी थी. गोलियों और डंडों का सामना किया था और लड़कों ने क़ुर्बानी दी थी."
उत्तराखंड में आज जिस भी व्यक्ति से बात करें वह छला हुआ महसूस करता है. उसे लगता है कि इससे बेहतर तो उत्तर प्रदेश में ही थे. अलग राज्य का फ़ायदा ही क्या हुआ.
लेकिन, ऐसा नहीं है कि अलग राज्य का किसी को फ़ायदा ही नहीं हुआ.
फ़ाइल फोटो
उत्तराखंड ओपन यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर गोविंद सिंह कहते हैं, "नए राज्य का सबसे ज़्यादा फ़ायदा नौकरशाहों, ठेकेदारों और नेताओं ने उठाया है. दूसरी बात यह है कि प्रदेश का इतना ज़्यादा राजनीतिकरण हो गया है कि यहां हर आदमी नेता है और हर नेता मुख्यमंत्री पद का दावेदार."

पलायन और तेज़

पहाड़ के ‘पानी और जवानी’ को पहाड़ में ही रोका जाएगा- सरकारों ने वादा ज़रूर किया लेकिन पलायन का हाल यह है कि पहाड़ के गांव के गांव ख़ाली हो गए हैं.
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि जितना पलायन आज़ादी के बाद से 2000 में राज्य बनने तक में नहीं हुआ था उससे ज़्यादा इन 14 वर्षों में हुआ है. 2000 से अब तक क़रीब 3000 गांव पूरी तरह से उजड़ चुके हैं.
विकास हुआ है, लेकिन राजधानी देहरादून में मॉल खुलने और अपार्टमेंट बनने को ही विकास का पैमाना नहीं कहा जा सकता है.
उत्तराखंड
देहरादून ही नहीं हल्द्वानी, हरिद्वार, उधमसिंहनगर और कोटद्वार जैसे मैदानी इलाक़ों में चमक-दमक दिखती है. साक्षरता दर में उत्तराखंड का स्थान 13वां है और यहां 19 विश्वविद्यालय भी हैं, लेकिन ये सभी देहरादून और आसपास ही केंद्रित हैं.
उत्तराखंड के दुर्गम भूगोल, आपदा संवेदनशीलता और जनसांख्यिक वितरण को देखते हुए गुणवत्तापूर्ण विकास को सबके लिए सुलभ बनाना एक चुनौती है.
यही वजह थी कि बद्रीनाथ और केदारनाथ में अनियंत्रित निर्माण हुआ जिसकी क़ीमत 2013 में भीषण आपदा के रूप में चुकानी पड़ी.

मुख्यमंत्री की स्वीकारोक्ति

दून लाइब्रेरी और शोध केंद्र में रिसर्च स्कॉलर चंद्रशेखर तिवारी कहते हैं, "सवाल नीति नियंताओं की इच्छाशक्ति का है. पर्यावरण के लिहाज़ से यह राज्य बहुत ही नाज़ुक है. भूस्खलन, भूधंसाव, बाढ़, बादल फटने़ व भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं के क़हर से यहां तबाही होती रहती है. बावजूद इसके यहां मीलों लंबी सुरंग आधारित जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण हो रहा है, सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है."
हरीश रावत
"इसके अलावा नदियों के किनारे और संवेदनशील स्थानों पर हो रहे अनियंत्रित खनन तथा उच्च हिमालयी क्षेत्रों में दुर्लभ पादप प्रजातियों के चोरी-छिपे दोहन जैसे महत्वपूर्ण सवाल हैं जिन पर सख़्ती से नियंत्रण करने की आवश्यकता है."
राज्य के 14 वर्ष पूरे होने के अवसर पर मुख्यमंत्री हरीश रावत ने स्वीकार किया कि, "उत्तराखंड में पहाड़ी राज्य का सपना हम पूरा नहीं कर पाए."
वह शायद पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने कमी की बात क़ुबूल की है. लेकिन इस स्वीकारोक्ति के बावजूद वह शायद जानते होंगे कि जवाबदेही से नहीं बचा जा सकता.
राज्य प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी कर रहे युवा पुनीत डबराल कहते हैं, "नेताओं को पहाड़ के युवाओं की परवाह नहीं है चाहे वो कोई भी हो, किसी भी दल का हो. उन्हें पहाड़ की याद तभी आती है जब चुनाव होते हैं. उनके बेटे-बेटियों के लिए तो विधायक और सांसद की सीट तैयार है. हमारे लिए क्या है. सरकारी भर्तियों में हर दिन कोई न कोई घोटाला सामने आ रहा है."

केंद्र में प्रतिनिधित्व नहीं

मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार में उत्तराखंड को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला, जबकि यहां के पांचों सांसद भाजपा के हैं.
फ़ाइल फोटो
माना जाता है कि भाजपा की आपसी ख़ेमेबाज़ी की वजह से मंत्रीपद के लिए किसी एक व्यक्ति पर सहमति बन ही नहीं पाई.
सत्ता, राजनीति की खींचतान का ये पहला अवसर नहीं था, बल्कि पिछले 14 साल के इतिहास में यहां की राजनीति का चरित्र यही रहा है.
चाहे भाजपा हो या कांग्रेस, मुख्यमंत्री पद के लिए ऐसी ही खींचतान चलती रही है और आठ बार मुख्यमंत्री बदले गए हैं. यानी कोई भी मुख्यमंत्री औसतन अपने पद पर दो वर्ष तक भी नहीं बना रह सका. इन पूर्व मुख्यमंत्रियों के लाव-लश्कर पर भी राजकोष के करोड़ों रुपए न्यौछावर हो रहे हैं.

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