मनरेगाः सौ दिन की गारंटी घटकर 34 दिन हुई
3 Feb 2015
महात्मा
गांधी रोजगार गारंटी योजना अपने दसवें साल में प्रवेश करने जा रही है
लेकिन आंकड़ें बताते हैं कि इस योजना का प्रदर्शन दिन पर दिन कमतर होता जा
रहा है.
नरेगा का पिछले दस सालों का अनुभव बेहद मिला जुला रहा है.
पहले पांच छह सालों में पहले पूरी व्यवस्था बनाई गई फिर धीरे धीरे काम का
स्तर बढ़ता गया.उसके बाद पिछले तीन चार सालों में बजट में भी कटौती हुई है और घटते-घटते अब ये 33 हज़ार करोड़ तक आ गया है.
साल 2009-10 में नरेगा के लिए 52 हज़ार करोड़ रुपये का बजट था.
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एक तरफ तो मज़दूरी की दर बढ़ गई तो दूसरी तरफ़ बजट में कटौती कर दी गई. इसकी वजह से जितना काम किया जा सकता है, वही घट गया है.और इस वजह से लोगों का काफी नुकसान हो रहा है, क्योंकि जैसे लोग इसके बारे में सीख रहे थे, जानने लगे थे, वैसे ही काम सूखने लग गया, काम मिलना बंद हो गया.
इस योजना के तहत सौ दिन रोज़गार देने का वादा किया गया था. आंकड़े बताते हैं कि इस वित्तीय वर्ष में अभी तक 34 दिनों तक का ही रोज़गार दिया जा सका है. इसे देखने के दो तरीके हो सकते हैं.
अगर औसत गिर रही है तो ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों का नुकसान हो रहा है, लेकिन हमें ये भी नहीं सोचना चाहिए कि सभी लोग सौ दिन काम करना चाहते ही हैं.
सौ दिन काम
किसी की एक रोटी की भूख होती है तो किसी की दस रोटी की भूख होती है. मनरेगा में ये कहा गया है कि सौ दिन तक काम दिया जाएगा.अगर किसी को दस दिन काम करना है तो दस दिन करे और किसी को सौ दिन करना है तो सौ दिन तक का प्रावधान है.
साल 2008 और 2013 के सर्वेक्षणों से ये पता चलता है कि मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूरों से जब ये पूछा जाता है कि उन्हें कितने दिन काम चाहिए तो 90 फीसदी से ज्यादा लोग सौ दिन कहते हैं और कुछ लोग तो ऐसे भी होते हैं जो सौ दिन को कम मानते हैं.
इस लिहाज से देखें तो ये गिरावट चिंता का विषय है. पिछले दो तीन साल से ये गिरावट आ रही है.
बजट में प्रावधान
सरकारी की उदासीनता बढ़ती ही जा रही है जिसकी वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों का नुकसान जरूर हो सकता है.शायद यही वजह है कि इस बार लोग ये कयास लगा रहे हैं कि मनरेगा के बजट में कटौती की जा सकती है.
मनरेगा के मद में फिलहाल केंद्र तकरीबन 34 हज़ार करोड़ रुपये दे रहा है. कायदे से देखें तो बजट में इसका प्रावधान होना जरूरी है.
मनरेगा के पीछे भावना ये थी कि लोग जितना काम मांगेंगे, उसके लिए सरकार को पर्याप्त बजट देना होगा, कहीं न कहीं से तो पैसा लाना होगा.
नई सरकार
हालांकि ऐसी स्थिति आई ही नहीं. आज मनरेगा का जो बजट है, वह जीडीपी के एक फीसदी का एक तिहाई हिस्सा है. मनरेगा के लिए बहुत कम बजट रखा गया है.ये भी चिंता का विषय है कि आने वाले बजट में इन विषयों पर ध्यान दिया जाएगा या नहीं.
स्वतंत्र प्रेक्षकों के लिए भी मनरेगा के मुद्दे को राजनीति से हटाकर देखना भी एक मुश्किल काम है.
वर्ष 2006 में जब ये योजना शुरू हुई थी तब सरकार अलग थी और आज एक दूसरी सरकार सत्ता में है.
खाद्य सुरक्षा कानून
यूपीए की सरकार ने नरेगा लाने का ऐतिहासिक और हिम्मत भरा फैसला किया था. इस योजना को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सराहा गया है.भाजपा मनरेगा के बारे में फिलहाल क्या सोचती है, अभी इस बारे में स्थिति बहुत साफ़ नहीं है, लेकिन केंद्र में जब कांग्रेस की सरकार थी तो भाजपा शासित कुछ राज्यों ने मनरेगा का क्रियान्वयन अच्छे से किया गया था.
नरेगा का स्वर्णिम समय तब था जब राजस्थान में भाजपा की सरकार थी.
खाद्य सुरक्षा कानून के मामले में तो शांता कुमार ने ये कहकर भाजपा का दोहरापन साफ कर दिया कि उन्होंने खाद्य सुरक्षा कानून का समर्थन इसलिए किया था कि उन्हें डर था कि चुनाव में नुकसान न हो जाए.
इन हालात में मनरेगा का भविष्य बहुत अच्छा नहीं दिखता.
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