अर्थव्यवस्था मापने का फॉर्मूला बदला,...
जीडीपी के संशोधित आंकड़ें जारी: UPA-2 के पांच सालों के कार्यकाल के दौरान GDP औसत दर 7.1 फीसदी थी, 2013-14 के लिए GDP दर 4.7 फीसदी से संशोधित करके 6.9 फीसदी की
3 FEB 2015
सरकार ने वित्तीय वर्ष 2013-14 के लिए आर्थिक विकास की दर 4.7 फीसदी से संशोधित करके 6.9 फीसदी कर दी है.
ये घोषणा बीते हफ्ते शुक्रवार को की गई. इसके साथ ही सरकार ने अर्थव्यवस्था को मापने का फॉर्मूला भी बदला है.माना जा रहा है कि इस कदम से वित्तीय घाटे को कम करने का लक्ष्य पूरा करने में सरकार को सहूलियत होगी.
जीडीपी मापने के फॉर्मूले में अब अर्थव्यवस्था के उन क्षेत्रों को भी शामिल किया गया है जो इस हिसाब किताब में अभी तक जगह नहीं बना पाए थे, जैसे स्मार्टफ़ोन सेक्टर और एलईडी टेलीविज़न सेट.
पढ़ें विस्तार से
सरकार ने 2012-13 के लिए जीडीपी आंकड़ों को 4.5 फीसदी से संशोधित कर 5.1 फीसदी करने की घोषणा की है.किसी अर्थव्यवस्था के आकार को क्या एक नंबर से समझाया जा सकता है. जवाब है, हां, और वो संख्या है जीडीपी या सकल घरेलू उत्पाद.
यह उस देश की मुद्रा में मापा जाता है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तुलना करने के लिए सभी देशों की जीडीपी को एक मुद्रा में बदल दिया जाता है और वो मुद्रा है अमरीकी डॉलर.
चूंकि डॉलर की विनिमय दर बदल सकती है तो ऐसे में अलग-अलग देशों की जीडीपी का मुकाबला बदल भी सकता है.
और ये तुलना तब भी बदल सकती है अगर किसी देश की अपनी ही मुद्रा में उसकी जीडीपी पहले जैसी ही रहे. डॉलर में मापी गई भारत की जीडीपी दुनिया के टॉप 10 देशों में से है.
नए आंकड़ों
अमरीका और यूरोज़ोन के विकसित देशों की तुलना में देखा जाए तो भारत की जीडीपी में इजाफ़ा भी काफी तेजी से हो रहा है.इसमें कोई शक नहीं है कि चीन की अर्थव्यवस्था दुनिया में सबसे तेजी से आगे बढ़ रही है, हालांकि हो सकता है कि जल्द ही ये ख़िताब भारत के पास आ जाए.
सरकार के केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) ने इस हफ्ते भारत की जीडीपी से संबंधित पिछले कुछ सालों के लिए जो आंकड़ें जारी किए हैं, ये पहले प्रकाशित आंकड़ों से कहीं ज़्यादा है.
ये ख़बर एक सुखद आश्चर्य की तरह ही थी और जल्द ही सियासी हलकों में सुर्खियों में बदल गई.
सुस्त अर्थव्यवस्था!
आम तौर पर लोग ये सोच रहे थे कि पिछले तीन सालों में भारत की जीडीपी का विकास दर पांच फीसदी की औसत दर से भी गिरकर नीचे चला गया था.पहले के तीन सालों में जीडीपी औसतन नौ फीसदी सालाना की दर से बढ़ रही थी. अर्थव्यवस्था में आई इस सुस्ती की वजह औद्योगिक और उत्पादन क्षेत्र में आया ठहराव है.
और इस ठहराव के लिए बिजली की कमी, खराब नीतियां, खनन की दिक्कत और निवेशकों की आहत भावनाएं जिम्मेदार हैं.
ऊपर से तुर्रा ये कि तकरीबन पांच सालों तक महंगाई की वृद्धि दर दो अंकों में बनी रही.
मनमोहन का दौर
मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-2 की सरकार के कामकाज को अर्थव्यवस्था के इस ठहराव से जोड़ा गया था.लेकिन जीडीपी के जो संशोधित आंकड़ें जारी हुए हैं उनसे पता चलता है कि यूपीए-2 के पांच सालों के कार्यकाल के दौरान हुए विकास की औसत दर 7.1 फीसदी थी.
पहले जारी हुए आंकड़ों से ये कहीं ज्यादा है. पर ये हुआ कैसे? पहले के आंकड़ों की इस तरह की समीक्षा सीएसओ के लिए कोई नई बात नहीं है.
लेकिन इस बार आंकड़ों के फेरबदल का पैमाना कहीं ज़्यादा है. कोई अर्थव्यवस्था कितनी बड़ी है या छोटी, ये उसकी जीडीपी से पता चलता है और इसे मापने के कई तरीके हैं.
आमदनी का हिसाब
पहला तरीका तो ये है कि सभी लोगों की आमदनी जोड़ कर जीडीपी का हिसाब गिना जा सकता है. यही वजह है कि इसे राष्ट्रीय आय भी कहा जाता है.दूसरा तरीका ये है कि किसी अर्थव्यवस्था में व्यक्ति और फ़र्म सामानों और सेवाओं पर जो रकम खर्च करते हैं, यही जीडीपी है.
इस तरीके से भी पहले रास्ते वाला ही आंकड़ा मिलता है. इसकी वजह भी है क्योंकि एक आदमी की आमदनी अर्थव्यवस्था में किसी और आदमी का खर्च भी है.
जब आप किसी प्लंबर को उसकी सेवाओं के लिए भुगतान करते हैं तो ये आपका खर्च है, लेकिन उसकी आमदनी.
जटिल अर्थव्यवस्था
जब एक कार कंपनी आपको गाड़ी बेचती है तो ये आपका खर्च है, लेकिन कंपनी के लिहाज से ये उसका राजस्व है.कंपनी की रेवेन्यू उसके कर्मचारियों में वेतन, वेंडर्स के भुगतान, कर्जों के ब्याज के भुगतान और कंपनी के मालिकों के मुनाफे के तौर पर बंट जाता है.
इसलिए अगर जीडीपी का हिसाब आमदनी जोड़कर निकाला जाए या फिर खर्चों को जोड़कर, सैद्धांतिक रूप से नतीजे एक ही आते हैं.
लेकिन भारत जैसी आधुनिक और जटिल अर्थव्यवस्था में ये इतना भी आसान नहीं है. आंकड़ों के कई स्रोतों का इस्तेमाल किया जाता है और उन्हें जोड़ा जाता है.
उत्पादन की वृद्धि
उदाहरण के लिए औद्योगिक आंकड़ें उद्योगों के सालाना सर्वे से लिया जाता है. हाल के बदलाव के बाद इन आंकड़ों में एक अन्य स्रोत के आंकड़े भी जोड़े जाएंगे.ये स्रोत है कंपनी मामलों का मंत्रालय. ये विभाग दस लाख से भी ज्यादा कंपनियों का हिसाब किताब रखता है.
ठीक इसी तरह 'वास्तविक' और 'सांकेतिक' जीडीपी के अंतर को भी समझना जरूरी है. 'वास्तविक' जीडीपी कीमतों में इजाफे को तवज्जो दिए बगैर उत्पादन की वृद्धि को मापती है.
इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है. देश में पिछले साल एक करोड़ गाड़ियां बनी थीं और इस साल भी इतना ही उत्पादन हुआ है.
सटीक तस्वीर
इस लिहाज से देखें तो गाड़ियों का जीडीपी दर शून्य रहा.लेकिन अगर गाड़ियों की क़ीमतें दस फीसदी की दर से बढ़ जाती हैं तो रुपये में ये विकास दस फीसदी का गिना जाएगा.
पहली स्थिति वास्तविक जीडीपी को बताती है और बाद वाली स्थिति को सांकेतिक समझा जा सकता है.
क़ीमतों को स्थिर रखते हुए जब जीडीपी की विकास दर को मापा जाता है तो आर्थिक विकास की कहीं ज्यादा सटीक तस्वीर खींची जा सकती है.
ई-कॉमर्स
यही वास्तविक जीडीपी है और इसी की विकास दर के आधार पर अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं से तुलना की जाती है.जीडीपी का हिसाब निकालने के लिए किसी एक साल की कीमतों को आधार वर्ष की स्थिर कीमतों के रूप में रखा जाता है, जिसके बिना पर पूरी गणना की जाती है.
लेकिन आधार वर्ष को बदले जाने की ज़रूरत होती है, कम से कम हर 10 साल पर, क्योंकि सामानों और सेवाओं का स्वरूप बदलता रहता है और उसमें विविधता आती है.
भारत में पहले ई-कॉमर्स जैसी कोई चीज नहीं थी और अब फ़्लिपकार्ट जैसी रिटेल कंपनियां हैं. मौजूदा दौर में टाइपराइटर की ज़रूरत लगभग ख़त्म ही हो गई है.
बाज़ार कीमतें
इसलिए जीडीपी की गणना के लिए आधार वर्ष (बेस ईयर) और सामानों और सेवाओं के स्वरूप को बदले जाने की ज़रूरत है.बीते सालों में यह आधार वर्ष 2004-05 हुआ करता था, लेकिन अब यह बदलकर 2011-12 कर दिया गया है.
एक और बड़ा बदलाव ये भी हुआ है कि जीडीपी निकालने का तरीका आईएमएफ़ के पैमाने के क़रीब ला दिया गया है.
पहले हम जीडीपी को फ़ैक्टर कॉस्ट या उत्पादन के काम आने वाली चीजों के एक यूनिट की क़ीमत के आधार पर निकालते थे, लेकिन अब जीडीपी को बाज़ार कीमतों के पैमाने पर तौला जाता है.
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