Sunday, 30 March 2014

रफ़्तार नहीं है लहर मोदी में...कोंकण में क़रीब-क़रीब ग़ायब मोदी लहर

रफ़्तार नहीं है लहर मोदी में...कोंकण में क़रीब-क़रीब ग़ायब मोदी लहर

 सोमवार, 31 मार्च, 2014 को 07:09 IST तक के समाचार

भाजपा का प्रचार वाहन
लहरें साहिल से टकराकर लौट जाती हैं. बिखर जाती हैं. टूट जाती हैं. ये उनकी नियति है. वे किनारे आती ज़रूर हैं, टिकती नहीं. जल्दी ही किनारे लग जाती हैं क्योंकि किनारा कभी उनका स्थायी पता नहीं रहा.
'किनारे लगना' मुहावरे में किसी अच्छे अर्थ में नहीं आता. इसे समझने के लिए अर्थ विस्तार की आवश्यकता नहीं है. आमफ़हम मुहावरों की ताक़त और दिक़्क़त यही है कि उनके अर्थ बिना प्रयास फ़ौरन खुल जाते हैं.
क्लिक करें लहरों का आना मेहमान की तरह होता है, जिनकी वापसी आने में निहित रहती है. उनकी इज़्ज़त उनके आगमन पर नहीं, इस बात पर निर्भर करती है कि वे कितने पल की मेहमान हैं. यह ख़ुद एक अलग मुहावरा है. रवानगी तय न हो तो कोई मेहमान रह भी नहीं सकता.

तड़क-भड़क

कुछ मेहमान लहरें, पूरे लवाज़मात के साथ इस क़दर गरजती-उफ़नती तशरीफ़ लाती हैं कि किसी को भी भ्रम हो जाए. लगे कि उनके इरादे कुछ और हैं. लेकिन शुरुआती तड़क-भड़क ज़्यादा देर टिक नहीं पाती. अंत में होता वही है, जो पहले से होता आाया है-बिखरना या वापसी.
प्रकृति के सामने इंसान बौना होता है, और रहेगा. बावजूद इसके, प्रकृति की रचना के बरक़्स ख़ुद को रखने का लोभ लोग संवरण नहीं कर पाते और तब टक्कर होती है.


आम धारणा रही है कि दूरदराज़ के प्रांतों की किस्मत की कुंजी दिल्ली या केंद्र के हाथ में है. पिछले 30 साल में कई चुनावी समर कवर कर चुके वरिष्ठ पत्रकार  ने पाया है कि भारतीय राजनीति की कहानी अब इससे आगे बढ़ गई है. असल चुनावी अखाड़ा, उसके मुख्य पात्र और हाशिये पर नज़र आने वाले वोटर अब बदल चुके हैं. जैसे 'द हिंदूज़' की अमरीकी लेखक वेंडी डोनिगर कहती हैं- 'भारत में एक केंद्र नहीं है. कभी था ही नहीं. भारत के कई केंद्र हैं और हर केंद्र की अपनी परिधि है. एक केंद्र की परिधि पर नज़र आने वाला, दरअसल ख़ुद भी केंद्र में हो सकता है जिसकी अपनी परिधि हो.'

चुनावी नतीजों, क्षेत्रीय दलों को मिली सफलता, केंद्र की सत्ता में छोटे दलों और गठबंधनों की भूमिका स्पष्ट है. आम चुनाव 2014 के दौरान  डॉटकॉम के लिए भारत के पश्चिमी तट गुजरात से शुरू करके महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र और ओडिशा से होते हुए पश्चिम बंगाल में सतह के नीचे की लहरों, प्रत्यक्ष और परोक्ष मुद्दों, वोटरों की आकांक्षाओं और सत्ता की
ये हवाई जहाज़ और साइकिल के टकरा जाने की तरह है. संभावना कम होती है, पर ऐसा हुआ तो क्लिक करें नतीजा जानने का किसी को इंतज़ार नहीं होता. सबको पता होता है.
अरब सागर की लहरें लखपत से लेकर कोलाक तक क्लिक करें गुजरात को छूती हैं, जो भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी का गृह राज्य है. वे पिछले बारह साल से उसके मुख्यमंत्री हैं और उनकी एक लहर राज्य में साफ़ महसूस की जा सकती है.
यह लहर बनाने में मोदी समर्थकों के साथ उनके कमज़ोर विरोधियों की भी बड़ी भूमिका है. वे इस क़दर कमज़ोर हैं कि लोगों ने उन्हें विकल्प की तरह देखना बंद कर दिया है. ऐसे में आम लोग कभी मन से, कभी डर से, कभी मजबूरी में लहर के साथ दिखने लगते हैं.
समुद्री लहरें वलसाड जिले में कोलाक पार करने के बाद भी अपनी मस्ती में चलती रहती हैं. अठखेलियाँ करती साहिल तक आती हैं और उसे छूकर लौट जाती हैं. दमण में भी क्लिक करें मोदी लहर चलती है, क़रीब-क़रीब गुजरात की तरह.

लहरों की मौजूदगी

इन इंसानी लहरों की मौजूदगी और उनकी तासीर इससे आगे कमज़ोर पड़ती दिखाई देने लगती है. महाराष्ट्र के समूचे कोंकण इलाक़े में सागर की लहरें दिखती हैं, मोदी की नहीं.
गोवा के प्रसिद्ध तटों पर, इस बात के बावजूद कि वहाँ भाजपा सरकार है, यह लहर अनुपस्थित ही रहती है. गोवा की समस्याएँ और उसकी आबादी की संरचना नतीजे तय करती है और अपने फ़ैसले करने से पहले लहरों से नहीं पूछती.
कोंकण में क़रीब-क़रीब ग़ायब मोदी लहर कर्नाटक के तटीय इलाक़ों कारवाड़ और अंकोला में महसूस की जा सकती है लेकिन उसमें गुजरात वाली रफ़्तार नहीं है. लहर के कमज़ोर होने का सबूत इक्का-दुक्का पोस्टर और बैनर हैं, जिन पर अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की तस्वीरें हैं.
पूरे देश में जिस तरह का माहौल बना दिया गया है, लगता है कि भाजपा का अश्वमेध रथ दिल्ली जाकर ही रुकेगा. लेकिन कई बार स्थानीय लोगों से बात करते हुए संदेह होता है. वे बार-बार कहते हैं कि घोड़े दौड़ रहे हैं, पर वे दौड़ने से ज़्यादा हिनहिनाते हैं. आवाज़ें हैं, असर नहीं है. माहौल है, ज़मीनी हक़ीक़त नहीं है.
मोबाइल फ़ोन टैक्नोलॉजी के दौर में अगर उसकी शब्दावली में बात करें तो भाजपा में इन दिनों 'इनकमिंग फ्री है'. हालाँकि 'आउटगोइंग' से भाजपा को नुकसान होता नहीं दिखता लेकिन फ़्री इनकमिंग का ख़ामियाज़ा उसे भुगतना पड़ सकता है.
समाजशास्त्र के विद्वानों के मुताबिक़ लहर एक फ़ासीवादी सोच है, जिसका कुल मक़सद आम जनता की सोचने की क्षमता को प्रभावित करना होता है. कुछ देशों में ऐसी लहरें कामयाब हो जाती हैं लेकिन भारत जैसे वैविध्य वाले देश में लोग अब भी लहरों को वोट देने से गुरेज़ करते हैं.

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