मोदी की हसरत और फितरत!!!!!
2 Apr 2014 10:00 |
अंगरेजी हुकूमत को खदेड़ने के लिए गठित कांग्रेस और अन्य संगठनों के सेनानियों के बलिदान और त्याग के बदले हमें स्वराज मिला। हमने संविधान सभा के प्रस्ताव पर छब्बीस जनवरी 1950 से संघीय एकता को ध्यान में रखते हुए संसदीय प्रणाली अपनाई और कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के गठन की प्रक्रिया ऐसी बनाई, ताकि एक-दूसरे पर निगरानी और संतुलन बना रहे। पहला आम चुनाव 1952 में हुआ और अगले लगभग पच्चीस वर्ष तक कांग्रेस पार्टी ने केंद्र में अपनी सत्ता बरकरार रखी। आपातकाल के कटु अनुभवों के बाद आम जनता ने 1977 में कांग्रेस को अपदस्थ कर मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी को सत्ता सौंपी। लेकिन सत्ता-सुख की चाह में धर्म, जाति, क्षेत्रीयता आदि भावनात्मक मुद्दों का सहारा लेकर सरकार में बैठे घटक दल आखिर बिखर गए और उसके बाद लगभग पांच माह के लिए चौधरी चरण सिंह बिना विश्वास मत प्राप्त किए कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री बने रहे। 1980 में मध्यावधि चुनाव होने पर शासन की कमान एक बार फिर से कांंग्रेस के हाथ में आ गई, जो इस बार 1989 तक रही। लेकिन धीरे-धीरे कांग्रेस भी इन गुटबाजियों में उलझती चली गई। इसके नतीजे में गठबंधन सरकारों का उदय हुआ और विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर, इंद्रकुमार गुजराल, एचडी देवगौड़ा और अटल बिहारी वाजपेयी गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री बने। राजीव गांधी की हत्या के बाद 1991 से 1996 तक पीवी नरसिंह राव कांग्रेस के प्रधानमंत्री रहे। फिर भारतीय जनता पार्टी के अटल बिहारी वाजपेयी का शासनकाल 1999 से 2004 तक पूर्णकालीन रहा, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी की प्रधानमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा ने ‘फील गुड’ का नारा देकर उनके इरादों पर पानी फेर दिया और सत्ता फिर से कांग्रेस के हाथ में आ गई और उसके अगले दस वर्ष तक उसी के पास रही। अब भारतीय जनता पार्टी के ही अति महत्त्वाकांक्षी, अहंकारी और अदूरदर्शी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने, पता नहीं किन कॉरपोरेट खिलाड़ियों और मीडिया के एक हिस्से का सहारा लेकर अपनी पार्टी को दिग्भ्रमित कर प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोया है। यह भाजपा में पहली बार हुआ कि केंद्रीय नेतृत्व को दरकिनार कर, एक क्षत्रप को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। इसके लिए गुजरात में मोदी की लगातार तीन बार चुनावी सफलता का तर्क दिया गया। पर ऐसी कामयाबी अकेले मोदी को नहीं मिली है। शीला दीक्षित, नवीन पटनायक से लेकर खुद भाजपा के रमन सिंह और शिवराज सिंह चौहान इसके उदाहरण हैं। बंगाल और त्रिपुरा में वाममोर्चे की चुनावी सफलता का रिकार्ड तो और भी शानदार है। दरअसल, मोदी के जरिए जहां संघ अपना खेल खेल रहा है, वहीं संघ को साध कर मोदी अपनी हसरत पूरी करना चाहते हैं। देश के दूसरे सबसे बड़े राजनीतिक दल की स्थिति ऐसी दिखाई दे रही है, जहां न तो जनभावना का आदर हो रहा है न ही उनके संसदीय बोर्ड की दृष्टि में कोई परिपक्वता दिखती है। आज इसी पार्टी को कभी अपनी मेहनत से सींचने वाले कद्दावर नेता चुनावी राजनीति के लिहाज से अपनी पसंदीदा जगह से चुनाव लड़ने से भी वंचित किए जा रहे हैं। वहीं प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी ठोंकने वाले नेता वैसे कई नेताओं को अपनी मनमर्जी से जहां चाहे धकेल कर खुद उन जगहों से लड़ने की कवायद में लगे हैं। इसके लिए ऐसे चहेते उम्मीदवार उतारे जा रहे हैं, जो लोकनिष्ठा और संसदीय प्रणाली से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं।\ यह संसदीय प्रणाली है या फिर अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली? यह ध्यान रखने की जरूरत है कि इस तरह की कवायदें आखिरकार जनतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करेंगी। हमारे संविधान के अनुच्छेद 75 का आशय उस व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनने का अधिकार देता है, जो लोकसभा के प्रति उत्तरदायी हो, यानी जिसे लोकसभा में बहुमत पाने वाला दल अपना नेता चुने। लेकिन चुनावी प्रक्रिया शुरू होने के पहले ही स्वयंभू प्रधानमंत्री की घोषणा वास्तव में लोकतंत्र का अपमान है। जैसा कि देखा जा रहा है, ये स्वयंभू प्रधानमंत्री गुजरात के वडोदरा के अलावा उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट से भी चुनाव लड़ रहे हैं। बनारस में जिस प्रकार के नारे प्रचारित किए जा रहे हैं, वे अपने आप में यह सिद्ध कर रहे हैं कि मानो वहां का भाजपा प्रत्याशी कोई ‘भगवान’ हो। वाराणसी बाबा विश्वनाथ की नगरी है। वहां एक ओर ‘हर हर महादेव’ की ध्वनि गूंजती है और दूसरी तरफ भारत के कोने-कोने से आए लोग गंगा को नमन करते हैं। आस्थावान लोगों के बीच यह धारणा है कि गंगा वहां मोक्षदायिनी त्रिवेणी स्वरूप में है। लेकिन यह बड़े दुर्भाग्य और शर्म की बात है कि हिंदुत्व के सहारे पर टिकी हुई पार्टी ने हिंदू आबादी के बीच भगवान शंकर के लिए प्रचलित ‘हर हर महादेव’ की तरह ‘हर हर मोदी’ का नारा दिया और लोगों की आस्था को चुनावी स्वार्थ के लिए भुनाने की कोशिश की। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में, जहां दलगत राजनीति का स्वरूप भी लोकतंत्र के सिद्धांतों पर कायम हो, वहां किसी राजनीतिक दल का सामूहिक नेतृत्व और उसकी ओर से किए गए निर्णय उस दल की विचारधारा को परिलक्षित करते हैं, न कि किसी व्यक्ति विशेष की महत्त्वाकांक्षा को। आज भारतीय जनता पार्टी में इससे उलटा हो रहाहै। इस पार्टी के राजनीतिक इतिहास और उसमें नेतृत्व क्षमता के स्तर पर मौजूद लोगों को देखें तो अब भी केंद्रीय स्तर पर लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह, सुषमा स्वराज और राज्य स्तर पर संसदीय अनुभव रखने वाले शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे सिंधिया जैसे लोकप्रिय और परिपक्व नेताओं की कोई कमी नहीं है। वे सभी प्रधानमंत्री जैसे पद की गरिमा का निर्वाह करने की क्षमता रखते हैं।
मगर भाजपा में जिस तरह का माहौल पैदा कर बुजुर्ग नेताओं की उपेक्षा की
गई, वह न सिर्फ उस पार्टी, बल्कि समूचे देश के हित के लिहाज से एक गंभीर
चुनौती है। इस विषय पर भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष वेद प्रताप
वैदिक ने एक समाचार पत्र में प्रकाशित अपने लेख में साफ तौर पर कहा कि
‘स्वयं मोदी के लिए यह मार्ग अत्यंत कंटकाकीर्ण सिद्ध हो सकता है। मोदी ने
अपने मार्ग में खुद कांटे क्यों बिछाए? क्या वे इस साधारण से गणित को भी
नहीं समझते कि अगर भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो ये ही हाशिये पर पड़े
नेता उनका भाग्य निर्धारण करेंगे।’
भारत के संविधान की प्रस्तावना की प्रथम पंक्ति ‘हम भारत के लोग’ के साथ ही एक सरोकार और गंभीरता जाहिर की गई है, जिसमें हमने अपने देश को संप्रभु, लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य घोषित किया। हालांकि हमने भारत को संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था के तीनों अंगों का गठन कर लोक प्रतिनिधित्व कानून भी बनाया। लेकिन इस कानून के कई पहलुओं पर फिर से विचार की आवश्यकता है। आज कुल मतदाताओं के पचास फीसद से अधिक मत पाने वाले व्यक्ति संसद और विधानसभाओं में बिरले ही पहुंचते हैं। इसके नतीजे में ही संकीर्ण भावनाएं अपनी जगह बनाती हैं, जिसके कारण कई बार समाज में सौहार्द के ताने-बाने को गहरी क्षति पहुंचती है। हालांकि ‘समाजवाद’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द संविधान की प्रस्तावना में 1976 के संविधान संशोधन के बाद जोड़े गए, लेकिन हम इसके वास्तविक आशय को लेकर शायद आज भी एक खास तरह के भ्रम के शिकार हैं। सामाजिक समरसता, यानी एक समुदाय दूसरे समुदाय का पूरक हो, वही वास्तविक समाजवाद है। वहीं धर्मनिरपेक्षता उसे कहा जाना चाहिए, जहां हम धर्म से कोई अपेक्षा न करें। संविधान में भी बाकायदा उल्लिखित है कि सभी धर्म अपने प्रचार के लिए स्वतंत्र हैं और साथ ही यह भी कहा गया है कि एक धर्म दूसरे धर्म का आदर करे। दरअसल, इसका मूल उद्देश्य यही है कि हम हर नागरिक के अस्तित्व को एक इंसान के रूप में समझें। अगर हम ऐसा नहीं समझते तो यह मानवता के साथ-साथ हमारी संस्कृति और परंपरा के भी विपरीत है। यों भी, किसी सभ्य समाज और संस्कृति में मानवता के विरुद्ध आचरण की स्वीकार्यता नहीं होती। भ्रष्टाचार और महंगाई दरअसल असंतुलित विकास और अवमूल्यन से जुड़ी हुई समस्याएं हैं। इनसे हम तभी निजात पा सकते हैं, जब इच्छाशक्ति रखने वाली सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ बने कानूनों को सख्ती से लागू करे और महंगाई रोकने के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम और खाद्य अपमिश्रण अधिनियम में कठोर दंड की व्यवस्था कर बाजार मूल्यों की त्रैमासिक समीक्षा करे। आज इन मुद्दों पर वोट मांगने की राजनीति जरूर हो रही है, लेकिन त्याग और सेवा का लक्ष्य रख कर चुनावी भाषणों में आर्थिक, सामाजिक, आंतरिक और बाह्य नीतियों पर कोई कारगर सुझाव न पेश कर केवल प्रतिशोध, राग-द्वेष, हुंकार और अहंकार की भाषा इस्तेमाल की जा रही है। इस तरह की प्रवृत्ति एक तरह से अधिनायकवाद का सूचक है। जिस देश की संस्कृति में मिथकों से लेकर इतिहास तक के पन्ने सक्षम नेतृत्व के अनेक उदाहरणों से भरे पड़े हैं, वहां अगर राजनेता सत्ता हथियाने के लिए अहंकार और प्रमाद से ग्रस्त होकर अपनी ऊर्जा समाज को तोड़ने में लगाएंगे तो उन्हें भारत की जनता कभी सत्ता के गलियारों में नहीं पहुंचने देगी। मौजूदा हालात हमारी सांस्कृतिक विरासत और इतिहास के कई अध्याय याद दिला रहे हैं। यहां परोक्ष रूप से ऐसा आभास हो रहा है कि शासन में पहुंचने के पहले ही जिस प्रकार की कवायद शुरू हुई है, वह गुब्बारों में हवा भरने जैसी है और उसमें धीरे-धीरे छेद बढ़ रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि मतदान नजदीक आते-आते इन गुब्बारों की हवा निकल जाए! अगर ऐसा होता है तो देश की जनता को शायद मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ सकता है। इससे बेहतर यह है कि देश के लोग अपनी परिपक्वता जाहिर करते हुए प्रतिगामी राजनीतिक ताकतों को सत्ता से दूर रखें। प्रतिगामी राजनीतिक शक्तियां नहीं चाहतीं कि राजनीति जनसमस्याओं पर केंद्रित हो। इसलिए वे हमेशा किसी ऐसे मुद्दे को हवा देने में लगी रहती हैं, जो असल मसलों से ध्यान हटा कर लोगों में भावनात्मक उबाल ला सके, चाहे वह जाति या क्षेत्र के नाम पर हो, संप्रदाय या राष्ट्र के नाम पर। ऐसे उकसावों में आकर उठाया गया कोई कदम भविष्य के लिए अफसोस की वजह बन सकता है। |
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