#Editorial:
गुमशुदा बच्चे: एक आंकड़े के मुताबिक सिर्फ 2011 से 2014 के बीच 325000 बच्चे India में लापता हो गए, ...मगर सरकार का रवैया सुस्त
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एक तरफ देश में कानून-व्यवस्था और सुरक्षा के मद में अकूत धनराशि खर्च की जाती है और इस मसले पर कोई समझौता न करने की बात कही जाती है, वहीं हर साल एक लाख से ज्यादा बच्चे गायब हो जाते हैं और उनका कभी पता नहीं चल पाता। पिछले साल संसद में पेश एक आंकड़े के मुताबिक सिर्फ 2011 से 2014 के बीच सवा तीन लाख बच्चे लापता हो गए। जब भी इतने बड़े पैमाने पर बच्चों के गुम होने के तथ्य आते हैं तो सरकारी तंत्र रटे-रटाए औपचारिक स्पष्टीकरणों और समस्या के समाधान के लिए नए उपाय करने की बातों से आगे कुछ नहीं कर पाता। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने बीते शुक्रवार को उचित ही सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि देश में बच्चे गुम हो रहे हैं और सरकारी सचिव सिर्फ चिट्ठियां लिखने में लगे हैं; इस पर सरकार का रवैया इतना सुस्त कैसे हो सकता है?
अदालत ने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से बीते इकतीस मार्च तक गुमशुदा बच्चों की बाबत पूरी जानकारी मांगी थी। लेकिन मंत्रालय इस निर्देश पर अमल करने में नाकाम रहा। लिहाजा अदालत को कहना पड़ा कि बच्चों की गुमशुदगी को लेकर सरकार संवेदनहीन है। इस मामले में देश भर में सबसे बुरी हालत महाराष्ट्र में है, जहां हर साल पचास हजार से ज्यादा बच्चे गायब हो जाते हैं। दूसरे नंबर पर मध्यप्रदेश है। और भी कई राज्यों में भी हालत अच्छी नहीं है। लापता बच्चों से संबंधित आंकड़ों की एक हकीकत यह भी है कि राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो सिर्फ अपहरण किए गए बच्चों की गिनती बताता है। फिर, ज्यादातर मामलों में पुलिस प्राथमिकी दर्ज करने से इनकार कर देती है या टालमटोल करती है।
कहने को सरकार की ओर से ऐसी घोषणाएं सुनने को मिल जाती हैं कि बच्चे देश और समाज का भविष्य हैं। लेकिन इसके प्रति सरकारें खुद कितनी गंभीर हैं, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि किशोर न्याय अधिनियम के तहत पिछले पंद्रह सालों में आज तक एक सलाहकार समिति तक गठित नहीं की जा सकी है। अदालत को सरकार की जिम्मेदारी बार-बार याद दिलानी पड़ती है। कर्तव्य में कोताही के लिए सर्वोच्च अदालत से कई बार मिली फटकार के बावजूद स्थिति में कोई सुधार नहीं दिखता। अदालत ने पहले भी लापता बच्चों के मसले पर सरकार से सख्त लहजे में जवाब-तलब किया है। यह समझना मुश्किल है कि दिनोंदिन गंभीर होती जा रही इस समस्या के प्रति शासन-प्रशासन इस कदर उदासीन क्यों है। इस बारे में जब भी कोई अध्ययन रिपोर्ट आती है तब सरकार कानून-व्यवस्था दुरुस्त करने के दावे करती है।
लेकिन इन दावों के बरक्स आज भी देश भर में रोजाना सैकड़ों बच्चे लापता हो रहे हैं और उनमें से महज दस फीसद बच्चे ही वापस मिल पाते हैं। लापता होने वाले कुल बच्चों में कम से कम पचपन फीसद लड़कियां होती हैं, जो देह-व्यापार की अंधेरी दुनिया में धकेल दी जाती हैं, जहां से निकल पाना उनके लिए कभी संभव नहीं होता। लापता बच्चों में ज्यादातर निम्न आयवर्ग के होते हैं, जिन्हें मानव-तस्करों के गिरोह बंधुआ मजदूरी, भिक्षावृत्ति, मानव अंगों के कारोबारियों के हाथों बेच देते हैं। करीब छह साल पहले दिल्ली में हुए एक अध्ययन ने बताया था कि यहां जितने भी बच्चे गायब हुए, उनके माता-पिता बेहद गरीब थे। सवाल है कि क्या इसी वजह से सरकारें इस समस्या को पर्याप्त गंभीरता से नहीं लेतीं?
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