क्या भारत का सुहाना आर्थिक सफ़र ख़त्म हुआ?
रविवार, 1 सितंबर, 2013 को 13:29 IST तक के समाचार
विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था
में जिस तरह का धीमापन धीरे धीरे देखने में आ रहा है, क्या उसे भविष्य के
सूचक के तौर देखा जाना चाहिए?
थाइलैंड दुबारा से मंदी के दौर में है, मेक्सिको
की अर्थव्यवस्था फिर से सिकुड़ रही है, रूस में विकास दर महज़ 1.2 फ़ीसद है
- ये दर वही है जो मंदी से धीरे-धीरे उबर रहे पश्चिमी मुल्कों में देखी जा
सकती है.पतली हालत
ये पिछले सालों की वो कहानी नहीं जहां विकास दर ने ऊचाईयों को छूआ था.हालांकि ऐसा नहीं है कि सभी विकासशील देशों में अर्थव्यवस्था की स्थिति इतनी ही पतली है.
उदाहरण के तौर पर फ़िलीपिंस में दूसरी तिमाही में विकास की दर पिछले साल के मुक़ाबले साढ़े पांच फ़ीसद ज़्यादा थी.
लेकिन बहुत सारे ऐसे विकासशील मुल्क हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था ख़ासी बड़ी है, जिसमें धीमापन देखने में आ रहा है.
इससे ये सवाल उठता है कि क्या विकासशील देशों में अर्थव्यवस्था के विकास की कहानी का अंत हो चुका है.
क़र्ज पर टिकी मांग
निवेशक इन मुल्कों से पैसा निकालकर दूसरी जगहों पर ले जा रहे हैं."आपको इस बात का कि कौन नंगा तैर रहा है तभी पता चलता है जबकि लहरें वापस चली जाती हैं."
वारेट बफेट, मशहूर कारोबारी
लेकिन ये मांग सस्ते क़र्ज़ की उपलब्धि की वजह से पैदा हुई थी जो बहुत दिनों तक जारी नहीं रह सकती थी.
जबकि ज़रूरत की चीज़ों की मांग का शानदार चक्र मंद पड़ रहा है और अमरीकी उपभोक्ता पहले से कम ख़रीदारी कर रहा है, दुनिया भर में विकास की रफ़्तार धीमी पड़ेगी.
लेकिन ये विकासशील मुल्कों में आर्थिक विकास में आई तेज़ी के ख़ात्मे की कहानी नहीं है.
पांच फ़ीसद विकास
उन एशियाई मुल्कों में, जहां हाल के दिनों में आर्थिक विकास का बेहतर दौर जारी रहा, एक बड़ा मध्य वर्ग उभरा है जो मांग को जारी रख सकता है.अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष या आईएमएफ़ ने भविष्यवाणी की है कि इन मुल्कों में विकास की दर पांच प्रतिशत से अधिक होगी. ये भविष्यवाणी उस सूरत में होगी जब किसी किस्म का आर्थिक संकट पैदा न हो.
इन मुल्कों में विकास की दर भले ही धीमी हो गई है लेकिन वो अभी भी ख़ासी अच्छी है.
हाल के दिनों तक इन देशों में सात फ़ीसद से अधिक विकास दर दर्ज की गई थी. ये दर अमरीका में 1990 और 2000 के दशकों में दर्ज दरों से दो गुना से भी ज़्यादा थी.
विकासशील देशों के आर्थिक विकास में आई कमी की एक वजह तो ये है कि उनके और पश्चिमी देशों के बीच विकास के क्षेत्र में तरक्की के लिए बहुत कम फ़ासला बचा है.
आधा सकल घरेलू उत्पाद
इसका मतलब ये हुआ कि क्लिक करें चीन, रूस और भारत जैसे मुल्कों का उत्पादन अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी जैसे अमीर देशों से अधिक है.
इसका अर्थ ये भी हुआ कि उत्पादन के मामले में ये मुल्क अमीर देशों के लगभग बराबर पहुंच चुके हैं इसलिए विकास दर धीमा हो सकता है. उन्हें अमीर देशों की तरह नए विकास के नए रास्तों की तलाश करनी होगी.
रूस, चीन और भारत में आर्थिक सुधारों की शुरूआत हुए लगभग दो दशक हो चुके हैं.
भारत पर नज़र
इस बीच क्लिक करें विकासशील देशों में विदेशी निवेश तेज़ी से बढ़ा.हालांकि ये मुल्क विकास के बेहतर दौर में अपनी अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए और भी बहुत कुछ कर सकते थे.
लेकिन अक्सर देखा गया है कि सुधार के क़दम अर्थव्यवस्था के बुरे दौर में ही शुरू होते हैं, जब सरकारें उद्योग धंधों और मध्य वर्ग को सहायता पहुंचाने जैसे क़दम उठाती हैं.
अब भारत का ही उदाहरण लें जिसकी मुद्रा रूपये के मूल्य पर सबकी नज़र है और जिसकी क़ीमत में 1991 के बाद की सबसे बड़ी गिरावट दर्ज की गई है.
सकल घरेलू उत्पाद में भारतीय उद्योग क्षेत्र की हिस्सेदारी फिलहाल महज़ एक चौथाई है और इसमें 1990 के दशक से कोई बढ़ोतरी नहीं हुई.
कमियां
वैश्विक स्तर पर निर्यात के क्षेत्र में क्लिक करें भारत की हिस्सेदारी सिर्फ एक फ़ीसद है. जबकि चीन की 11 फ़ीसद.भारत कल कारखानों को लगाने और विश्व बाज़ार में भागेदारी बनाने में पीछे रह गया है.
अर्थव्यवस्था के बेहतर विकास के दौर में भारत ने अपने बुनियादी ढ़ाचे को बेहतर बनाने में नाकाम रहा. शिक्षा की कमी भी विकास में एक बाधा के तौर पर देखी गई है.
फ़िलहाल क्लिक करें भारत का विकास दर पांच फीसद है जो पिछले दशक के सबसे कम स्तर पर है.
इससे ज़्यादा फ़िक्र की बात है कि मोर्गन स्टैनले का कहना है कि भारतीय कंपनियों ने बहुत अधिक क़र्ज़ ले रखा है. उनका कहना है कि चार में एक भारतीय कंपनी अपना ब्याज भी नहीं चुका पाएंगी.
चिंता चालू वित्त घाटे को लेकर भी है और निवेशक वहां से पैसे निकालकर दूसरी जगहों पर ले जाने की सोच रहे हैं.
इस साल क्लिक करें वैश्विक अर्थव्यवस्था में 2008 की मंदी के बाद से सबसे कम बढ़ोतरी होगी. हालांकि इस बार किसी मंदी का ख़तरा नहीं है लेकिन भारत जैसी अर्थव्यवस्था में अगर धीमापन जारी रहता है तो उसके लिए दिक्कतें पैदा हो सकती हैं.
लेकिन जैसा कि वॉरेन बफ़ेट ने साल 2008 की मंदी के समय बैंको की स्थिति लेकर कहा था, “आपको इस बात का कि कौन नंगा तैर रहा है तभी पता चलता है जबकि लहरें वापस चली जाती हैं.”
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