Human Right Chatishgarh: सरकार और क़ानून के बीच उलझी ज़मीनें...रातों-रात प्रेमनगर को ग्राम पंचायत से नगर पंचायत बनाने की घोषणा.मतलब 'पेसा' क़ानून के दायरे से बाहर और इफ्को का रास्ता साफ़
आदिवासी भूमि अधिग्रहण के सिलसिले में हाईकोर्ट से राहत नहीं मिलने के बाद मामले को सुप्रीम कोर्ट ले जाने की तैयारी कर रहे हैं.
एशिया की सबसे बड़ी कोयला खदानों वाला छत्तीसगढ़ का कोरबा संविधान की पांचवी अनुसूची वाला इलाका है. आदिवासियों और क्षेत्र के मूल निवासियों के हितों के संरक्षण के लिए संविधान में अनुसूचित क्षेत्र का प्रावधान है.
छत्तीसगढ़ की 9734 ग्राम पंचायतों में से 4507 पंचायतों में 'पेसा' क़ानून लागू है. 'पेसा' क़ानून लागू होने के बाद भी भारत सरकार का उपक्रम कोल इंडिया ऐसे किसी क़ानून को नहीं मानता. वर्ष 1996 में 'पेसा' क़ानून लागू होने के बाद से शायद ही कभी कोल इंडिया ने इस क़ानून का कहीं भी पालन किया हो.
भारत सरकार की कोल इंडिया के अंतर्गत कुल 11 कंपनियां भारत और भारत से बाहर कोयला खनन का काम करती हैं. इन्हीं में से एक साउथ इस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में कोयला खनन करती है.
साउथ इस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड के भू राजस्व महाप्रबंधक कहते हैं, "'पेसा' क़ानून के प्रावधान, भू-अर्जन अधिनियम के तहत अर्जित भूमि पर लागू होते हैं. हम कोल बेयरिंग एक्ट 1957 के तहत ज़मीनों का अधिग्रहण करते हैं, इसलिये 'पेसा' कानून 1996 यहां लागू नहीं होता."
ताज़ा मामला कोरबा के पोड़ी, रलिया, भठोरा, वाहनपाठ और अमगांव इलाके का है, जहां से साढ़े तीन हज़ार से अधिक ग्रामीणों की ज़मीन या तो ली जा चुकी है या उसकी प्रक्रिया जारी है.
कोरबा के लक्ष्मी चौहान ने सबसे पहले क़ानून मंत्रालय से जानना चाहा कि आख़िर 'पेसा' क़ानून के लागू करने का जिम्मा किसका है.
इस दौरान ज़िलाधिकारी ने लक्ष्मी चौहान के एक अन्य आवेदन पर कार्रवाई करते हुए माना कि इलाके में कोल इंडिया के उपक्रम साउथ इस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड 'पेसा' क़ानून का पालन नहीं कर रहा है और राज्य सरकार की ओर से साउथ इस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड को 'पेसा' क़ानून लागू करने के निर्देश दिए जा सकते हैं.
लक्ष्मी चौहान इस मामले को लेकर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट भी गए लेकिन वहां से भी उन्हें राहत नहीं मिली. फिलहाल वे 'पेसा' क़ानून के प्रावधानों को लेकर उच्चतम न्यायालय में जाने की तैयारी कर रहे हैं.
लेकिन छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला का मानना है कि आदिवासियों से जुड़े अधिकांश क़ानून छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में नज़रअंदाज़ किए जा रहे हैं.
परसा-केते-बासन कोयला खदान को लेकर हुई ग्राम सभा का उदाहरण देते हुए आलोक कहते हैं, "सरकार ने एक ही ग्राम सभा में आदिवासियों को पट्टा भी दिया और उसी ग्राम सभा में उनसे पट्टा लेकर उन्हें चेक थमा दिए गए. आप इस इलाके में 'पेसा' क़ानून, सामुदायिक अधिकार या वन अधिकार क़ानून की बात तो भूल ही जाइए."
गांव में इफ्को ने जब अपना पावर प्लांट लगाने के लिए 'पेसा' क़ानून के तहत ग्राम सभा बुलाई तो ग्रामीण पावर प्लांट के ख़िलाफ़ अड़ गए. पंचायत ने कम से कम एक दर्जन बार ग्राम सभा में इस पावर प्लांट के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित किया. इफ्को की बात बनी नहीं.
फिर एक दिन राज्य सरकार ने रातों-रात प्रेमनगर को ग्राम पंचायत के बजाए नगर पंचायत बनाने की घोषणा कर दी. मतलब प्रेमनगर गांव के बजाए नगर बनते ही 'पेसा' क़ानून के दायरे से बाहर हो गया और इफ्को का रास्ता साफ़ हो गया.
देश में कोयला खदानों को लेकर उच्चतम न्यायालय में याचिका लगाने वाले सुदीप श्रीवास्तव का कहना है कि भारतीय संविधान में पंचायत एक्सटेंशन इन शेड्यूल एरिया यानी 'पेसा' क़ानून तो है लेकिन म्युनिस्पल एक्सटेंशन इन शेड्यूल एरिया जैसा कोई क़ानून नहीं है.
छत्तीसगढ़
सरकार बड़े पैमाने पर ग्रामीणों की ज़मीन अधिग्रहित कर रही है. किसानों
क़ानूनी तरीकों से अपनी ज़मीन बचाना चाह रहे हैं लेकिन उन्हें कोई रास्ता
नहीं सूझ रहा.
आदिवासियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के अनुसार
छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए बनाए गए क़ानून का
उल्लंघन हो रहा है.आदिवासी भूमि अधिग्रहण के सिलसिले में हाईकोर्ट से राहत नहीं मिलने के बाद मामले को सुप्रीम कोर्ट ले जाने की तैयारी कर रहे हैं.
पढ़ें पूरी रिपोर्ट
छत्तीसगढ़ में कोरबा के लक्ष्मी चौहान इन दिनों सरकारी दस्तावेज़ों में उलझे हुए हैं. क़ानून की बारीकियों को समझने वाले लक्ष्मी चौहान यह नहीं समझ पा रहे हैं कि उनके ज़िले के हज़ारों किसानों की ज़मीन पर सरकारी नियत्रंण की कोशिशों को कैसे रोका जाए.एशिया की सबसे बड़ी कोयला खदानों वाला छत्तीसगढ़ का कोरबा संविधान की पांचवी अनुसूची वाला इलाका है. आदिवासियों और क्षेत्र के मूल निवासियों के हितों के संरक्षण के लिए संविधान में अनुसूचित क्षेत्र का प्रावधान है.
जिम्मा किसका?
इन इलाकों में वर्ष 1996 में बनाया गया पंचायत एक्सटेंशन इन शेड्यूल एरिया यानी 'पेसा' क़ानून का प्रावधान है, जहां ग्राम सभा की अनुमति के बिना किसी भी ज़मीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता.छत्तीसगढ़ की 9734 ग्राम पंचायतों में से 4507 पंचायतों में 'पेसा' क़ानून लागू है. 'पेसा' क़ानून लागू होने के बाद भी भारत सरकार का उपक्रम कोल इंडिया ऐसे किसी क़ानून को नहीं मानता. वर्ष 1996 में 'पेसा' क़ानून लागू होने के बाद से शायद ही कभी कोल इंडिया ने इस क़ानून का कहीं भी पालन किया हो.
भारत सरकार की कोल इंडिया के अंतर्गत कुल 11 कंपनियां भारत और भारत से बाहर कोयला खनन का काम करती हैं. इन्हीं में से एक साउथ इस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में कोयला खनन करती है.
साउथ इस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड के भू राजस्व महाप्रबंधक कहते हैं, "'पेसा' क़ानून के प्रावधान, भू-अर्जन अधिनियम के तहत अर्जित भूमि पर लागू होते हैं. हम कोल बेयरिंग एक्ट 1957 के तहत ज़मीनों का अधिग्रहण करते हैं, इसलिये 'पेसा' कानून 1996 यहां लागू नहीं होता."
ताज़ा मामला कोरबा के पोड़ी, रलिया, भठोरा, वाहनपाठ और अमगांव इलाके का है, जहां से साढ़े तीन हज़ार से अधिक ग्रामीणों की ज़मीन या तो ली जा चुकी है या उसकी प्रक्रिया जारी है.
कोरबा के लक्ष्मी चौहान ने सबसे पहले क़ानून मंत्रालय से जानना चाहा कि आख़िर 'पेसा' क़ानून के लागू करने का जिम्मा किसका है.
विभाग ने पल्ला झाड़ा
क़ानून मंत्रालय ने कोयला मंत्रालय और ग्रामीण विकास विभाग को पत्र भेज कर पल्ला झाड़ लिया. ग्रामीण विकास विभाग ने इस पत्र को पंचायत विभाग को प्रेषित कर दिया. पंचायत विभाग ने मामले में राज्य सरकार को ज़िम्मेवार बता कर अपना कर्तव्य पूरा कर लिया.इस दौरान ज़िलाधिकारी ने लक्ष्मी चौहान के एक अन्य आवेदन पर कार्रवाई करते हुए माना कि इलाके में कोल इंडिया के उपक्रम साउथ इस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड 'पेसा' क़ानून का पालन नहीं कर रहा है और राज्य सरकार की ओर से साउथ इस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड को 'पेसा' क़ानून लागू करने के निर्देश दिए जा सकते हैं.
लक्ष्मी चौहान इस मामले को लेकर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट भी गए लेकिन वहां से भी उन्हें राहत नहीं मिली. फिलहाल वे 'पेसा' क़ानून के प्रावधानों को लेकर उच्चतम न्यायालय में जाने की तैयारी कर रहे हैं.
लेकिन छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला का मानना है कि आदिवासियों से जुड़े अधिकांश क़ानून छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में नज़रअंदाज़ किए जा रहे हैं.
परसा-केते-बासन कोयला खदान को लेकर हुई ग्राम सभा का उदाहरण देते हुए आलोक कहते हैं, "सरकार ने एक ही ग्राम सभा में आदिवासियों को पट्टा भी दिया और उसी ग्राम सभा में उनसे पट्टा लेकर उन्हें चेक थमा दिए गए. आप इस इलाके में 'पेसा' क़ानून, सामुदायिक अधिकार या वन अधिकार क़ानून की बात तो भूल ही जाइए."
नहीं है कोई क़ानून
'पेसा' क़ानून को लेकर सरकार का रुख कैसा है, इसे जानने के लिए सूरजपुर ज़िले के प्रेमनगर ग्राम पंचायत का हाल देखना दिलचस्प है.गांव में इफ्को ने जब अपना पावर प्लांट लगाने के लिए 'पेसा' क़ानून के तहत ग्राम सभा बुलाई तो ग्रामीण पावर प्लांट के ख़िलाफ़ अड़ गए. पंचायत ने कम से कम एक दर्जन बार ग्राम सभा में इस पावर प्लांट के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित किया. इफ्को की बात बनी नहीं.
फिर एक दिन राज्य सरकार ने रातों-रात प्रेमनगर को ग्राम पंचायत के बजाए नगर पंचायत बनाने की घोषणा कर दी. मतलब प्रेमनगर गांव के बजाए नगर बनते ही 'पेसा' क़ानून के दायरे से बाहर हो गया और इफ्को का रास्ता साफ़ हो गया.
देश में कोयला खदानों को लेकर उच्चतम न्यायालय में याचिका लगाने वाले सुदीप श्रीवास्तव का कहना है कि भारतीय संविधान में पंचायत एक्सटेंशन इन शेड्यूल एरिया यानी 'पेसा' क़ानून तो है लेकिन म्युनिस्पल एक्सटेंशन इन शेड्यूल एरिया जैसा कोई क़ानून नहीं है.
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