हिंदुत्व की राजनीति को 'आप' की चुनौती
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की पहाड़ तोड़ जीत ने हिंदुत्व की राजनीति पर बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है.
हालाँकि
बीजेपी ने ये चुनाव हिंदुत्व के भरोसे नहीं लड़ा था लेकिन नरेंद्र मोदी की
जीत को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े व्यक्तियों और संगठनों ने
हिंदुत्व के एजेंडा के खुले प्रचार का लाइसेंस मान लिया था.पिछले छह महीनों में 'घर वापसी', 'लव जिहाद', 'रामज़ादे-*****', 'देशप्रेमी गोडसे' जैसे कई जुमले सुर्ख़ियों में लाए गए और संघ परिवार ने ये मान लिया था कि हिंदुत्ववाद के अश्वमेधी घोड़े की लगाम थामने की ताक़त अब किसी में नहीं है.
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित कर ही दिया, बीजेपी के सांसद साक्षी महाराज ने महात्मा गाँधी के हत्यारे को देशप्रेमी कहा, लेकिन इन मुद्दों पर संसद में हुए हंगामे के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार चुप्पी साधे रहे.
यही नहीं, गणतंत्र दिवस को जारी किए गए सरकारी विज्ञापन में संविधान के आमुख से धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी जैसे शब्द ग़ायब कर दिए गए थे.
इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि 'पता नहीं भारत धर्मनिरपेक्ष कब तक बना रहेगा.'
जनता के मुद्दे
संघ परिवार हिंदुओं के वर्चस्व को भारतीय राजनीति का मुख्य 'थीम' बनाना चाहता है.
पहले लोकसभा और फिर महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा में मोदी ब्रांड को मिली जीत से उनके हौसले और बुलंद हुए हैं.
लेकिन अरविंद केजरीवाल ने साबित किया कि राजनीतिक एजेंडे को फिर से जनता के मुद्दों की ओर खींचना मुमकिन है.
और कम से कम दिल्ली के वोटरों ने तो बता दिया कि उनके लिए रिश्वतख़ोरी, भ्रष्टाचार, सस्ता पानी-बिजली और जन-सुविधाओं जैसे मुद्दे भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित किए जाने से ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं.
कड़ी परीक्षा
यानी हिंदुओं के वर्चस्व को देश की मुख्य राजनीतिक थीम बनाना इतना आसान नहीं है.
हालाँकि आने वाले दिनों में बिहार और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में इसकी और कड़ी परीक्षा होना बाक़ी है.
पर क्या दिल्ली में बीजेपी को लगभग मटियामेट कर देने वाली इस हार के बाद हिंदुत्ववादी संगठन कुछ सबक़ सीखेंगे और अपने राजनीतिक एजेंडे पर फिर से विचार करेंगे?
क्या नरेंद्र मोदी हिंदुत्व के मुद्दों पर आगे भी चुप्पी साधे रहेंगे या फिर दिल्ली के चुनाव नतीजों के बाद वो ख़ुद को संघ परिवार से अलग दिखाने की कोशिश करेंगे?
विराट बहुमत
दिल्ली नतीजों का भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार के आंतरिक समीकरणों पर भी असर पड़ेगा.
भारतीय जनता पार्टी के भीतर ही बहुत से नेता मोदी को मिले विराट बहुमत के बाद उनसे और अमित शाह से असहमत होते हुए भी ख़ामोश थे.
हालाँकि अख़बारों में अनाम सूत्रों के हवाले से पार्टी के भीतर असंतोष होने की ख़बरें यदा कदा छपती रहती हैं.
बीजेपी के सर्वेसर्वा
पार्टी का एक तबक़ा अमित शाह को अचानक दिए गए महत्व और लगभग अजेय छवि से भी ख़ुश नहीं है.
लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में 80 में से 72 सीटें जितवाने का श्रेय अमित शाह को ही मिला था और इससे विवादों में घिरे गुजरात के इस स्थानीय नेता का क़द इतना बढ़ा कि वो बीजेपी के सर्वेसर्वा बना दिए गए.
लेकिन संघ परिवार के भीतर और पार्टी के कुछ लोग अमित शाह के तौर तरीक़ों से असहज महसूस कर रहे हैं और ये भी कहा जाने लगा है कि दिल्ली चुनावों के बाद अमित शाह के विरोधियों को मज़बूती मिलेगी.
दो-दो हाथ
अगर नरेंद्र मोदी चाहते तो इन चुनावों से अलग रहकर ख़ुद को हार के असर से बचा सकते थे.
लेकिन केजरीवाल के बराबर आकर दो-दो हाथ करने का फ़ैसला करके मोदी ने दिल्ली चुनावों के महत्व को ख़ुद ही बहुत बढ़ा दिया.
वो ही नहीं उनके लेफ़्टिनेंट अमित शाह, कैबिनेट मंत्रियों का हुजूम, सांसदों की फ़ौज मैदान में उतर गई.
दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों की लड़ाई केजरीवाल बनाम मोदी की लड़ाई बनकर रह गई.
जनता की नज़र
शहर के हर कोने और चौराहे को 'चलो चलें मोदी के साथ' के बैनरों से पाट दिया गया था – जैसे मोदी ख़ुद दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की लड़ाई लड़ रहे हों.
नरेंद्र मोदी और अमित शाह कल तक अजेय और सर्वशक्तिमान लगते थे.
आज जनता की नज़रों में उनकी छवि का अंदाज़ा लगाना हो तो सोशल मीडिया पर शेयर किए जा रहे कार्टूनों और टिप्पणियों को देखें– किसी कार्टून में अरविंद केजरीवाल को कूड़ागाड़ी खींचते हुए दिखाया है जिसमें नरेंद्र मोदी, अमित शाह, अजय माकन आदि लदे हुए हैं.
किसी कार्टून में केजरीवाल को शिकारी की पोशाक में दिखाया है जिसके एक हाथ में दुनाली और दूसरे हाथ में एक ख़रग़ोश है. ख़रग़ोश के चेहरे की जगह फ़ोटोशॉप की मदद से मोदी का चेहरा लगा दिया गया है.
तस्वीर बदलते देर लगती है क्या?
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