ब्रिगेडियर हैडः बारह सौ पाक सैनिकों को किया था ढेर
हालांकि सेना को युद्ध में 263 जवानों को खोना पड़ा। हेड को उनकी वीरता के लिए जहां भारत सरकार ने महावीर चक्र से नवाजा था, वहीं प्रदेश सरकार ने उन्हें वर्ष 2010 में ‘प्राइड आफ गढ़वाल’ सम्मान से अलंकृत किया।
कमीशन अधिकारी के रूप में कैरियर की शुरूआत
27 नवंबर 1926 को बंगलूरू में जन्मे डीई हेड ने वर्ष 1947 में भारतीय सेना की जाट रेजीमेंट में बतौर कमीशन अधिकारी के रूप में कैरियर की शुरूआत की। वर्ष 1953 में बैरिस्टर मुकुंदी लाल की बेटी शीला के साथ वह विवाह बंधन में बंधे।
सेवानिवृत्त होने पर वह कोटद्वार आ गए
वर्ष 1978 में सेवानिवृत्त होने पर वह कोटद्वार आ गए। ससुर बैरिस्टर मुकुंदीलाल का स्वास्थ्य खराब होने से बंगलूरू की संपत्ति बेचकर वह स्थायी रूप से कोटद्वार में बस गए।
यहां उन्होंने 1983 में गढ़वाल पूर्व सैनिक लीग की स्थापना की। उनके तीन पुत्र वाल्टर हेड, माइकल हेड और नार्मन हेड हैं जो इस वक्त विदेश में रहते हैं।
मकबूल फिदा हुसैन ने बनाई थी तस्वीर
प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन ने ब्रिगेडियर डीई हेड से प्रभावित होकर उनकी तस्वीर बनाई थी। यह तस्वीर भारत-पाक युद्ध से एक दिन पहले ही तैयार की गई थी।
लिखी थी कई पुस्तकें
लेखन क्षेत्र में भी डीई हेड का कोई जवाब नहीं था। उन्होंने बैटल आफ डोगराई नामक पुस्तक लिखी थी। वहीं एक और पुस्तक लिखकर लोगों को सेना से जुड़ा साहित्य दिया। फिलवक्त ब्रिगेडियर हेड ने अपने जीवन यात्रा पर पुस्तक लिखी है, जो अभी बाजार में नहीं आई है। वह अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में भी सेना का उत्साहवर्द्धन करने के लिए दुर्गम स्थानों में पहुंचते रहे।
लाहौर जीतकर एक आदेश के आगे हार गए ब्रिगेडियर हेड
आजादी के बाद उन्होंने आयरलैंड लौटने की जगह भारतीय सेना में ही बने रहना ठीक समझा और यहीं रुक गए।
नैनीताल में हमारे पारिवारिक बैंक दुर्गा साह-मोहनलाल साह बैंक में मेरे पिता स्व. कुंदन लाल साह ने उनसे मेरी भेंट यह कहकर कराई थी कि ये कर्नल हेड हैं जिन्होंने 65 की लड़ाई में पाकिस्तानी सेना का सफाया कर दिया था।
वह गोरे थे और उनके बाल हल्के भूरे
इस बैंक में उनका संभवत: खाता था या मेरे कका मदन लाल साह के मित्र होने के नाते उनसे मिलने आए थे। वह गोरे थे और उनके बाल हल्के भूरे थे।
इससे आगे की कहानी पिताजी के आग्रह पर कर्नल साहब ने खुद सुनाई। ‘हमारी सेनाएं लाहौर के दरवाजे तक पहुंच गई थीं बस एक आदेश का इंतजार था और लाहौर हमारा होता’।
दूतावास खाली कराने शुरू कर दिए
कर्नल डेस्मेंड हेड से युद्ध का वह विवरण सुनकर मुझे रोमांच हो उठा था। उन्होंने बताया ‘साह साहब (मेरे पिता) लाहौर पर भारतीय कब्जे के अंदेशे से तमाम देशों ने अपने दूतावास खाली कराने शुरू कर दिए थे।’
मुझे साफ याद है उन्होंने कहा था अमेरिका ने जब अपना दूतावास खाली कराया तो हम से अनुमति ली, क्योंकि हमारी अनुमति के बिना कोई भी हवाई जहाज लाहौर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से नहीं उड़ सकता था।
सेना की विजय यात्रा पर राजनीतिक विराम
इससे आगे की कहानी सब को पता है। ताशकंद समझौता कराके पाकिस्तान बच गया और हमारी सेनाओं को लाहौर के दरवाजे से लौटना पड़ा।
यह वृतांत मुझे आज भी याद है और शायद हमेशा रहेगा उस मलाल के साथ जो कर्नल हेड के चेहरे पर उस दिन मुझे दिखा था। भारतीय सेना की विजय यात्रा पर राजनीतिक विराम और एक नासूर को बड़े होने देने का मलाल।
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