भारतीय जूरी को ऑस्कर की समझ नहीं: रितेश बत्रा
शुक्रवार, 27 सितंबर, 2013 को 08:17 IST तक के समाचार
भारत की ओर से ऑस्कर पुरस्कारों के लिए भेजी जाने वाली फ़िल्मों को लेकर विवाद होना अब कोई नई बात नहीं रह गई.
पिछले साल अगर लोगों ने 'बर्फ़ी' पर ऊंगली उठाई तो
इस साल कुछ लोग इस बात से ख़फ़ा हैं कि 'लंच बॉक्स' के बजाए गुजराती
फ़िल्म 'द गुड रोड' को ऑस्कर के लिए भारत की आधिकारिक फ़िल्म के रुप में
क्यों भेजा जा रहा है.रितेश कहते हैं, ''जब भी कभी ऐसा कोई विवाद होता हैं तो फ़िल्मकारों को आगे कर दिया जाता है लेकिन वास्तव में यह सिस्टम की असफलता है. हमारी जूरी को इस बात की समझ ही नहीं है कि किस तरह की फ़िल्म को ऑस्कर पुरस्कारों के लिए भेजा जाए.''
अपार सफलता
अपनी बात को पूरा करते हुए वो कहते हैं, ''इतना ही नहीं पिछले 21 सालों से ऑस्कर के पूर्वानुमान कर रहे जाने माने फ़िल्म समीक्षक स्कॉट फ़ाइनबर्ग ने कहा कि अगर भारत ऑस्कर में लंच बॉक्स को भेजता है तो यह विदेश फ़िल्मों की श्रेणी में अग्रणी रहेगी. टेलूराइड और टोरंटो फ़िल्म महोत्सव को रोड टू दि ऑस्कर कहा जाता है. हम तो ऑस्कर की इस रोड पर सही जा रहे थे. लेकिन देसी जूरी ने हमारी राह ही रोक दी.''
रितेश मानते हैं कि ऑस्कर के लिए नाम भेजने वाली कमेटी ने इन बातों पर विचार ही नहीं किया. और जूरी के इस क़दम से लंच बॉक्स का ही नहीं बल्कि दि गुड रोड का भी नुक़सान हुआ है.
अभियान ज़रूरी है
रितेश कहते हैं कि उनकी फ़िल्म भारत के लिए ऑस्कर जीत सकती थी लेकिन उन्हें आगे नहीं जाने दिया.
रितेश को जूरी से भले ही कितनी ही शिकायत क्यों न हो लेकिन वो ये बात स्वीकारते ज़रा नहीं हिचके कि ज्ञान कोरिया की फ़िल्म द गुड रोड एक बहुत ही अच्छी फ़िल्म है.
ऑस्कर की ज़रूरत
इस सवाल का जवाब देते हुए रितेश कहते हैं, ''कुछ लोग सोचते हैं कि हमें ऑस्कर जैसे किसी पुरस्कार की ज़रूरत नहीं है. लेकिन मुझे लगता है कि भारत को ऑस्कर की ज़रूरत इसलिए है ताकि हमारी फ़िल्मों के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार खुले.''
वो कहते हैं, ''आर्जनटीना में बनने वाली फ़िल्मों के साथ ठीक यही हुआ. उनकी एक फ़िल्म ने जब ऑस्कर जीता तो उनकी फ़िल्में विश्व भर में जाने लगी.''
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