गुजरात जहां सड़कें हैं सड़कछाप
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दो गुजरात(विकास का पैमाना):एक समृद्ध और रसूख़दार शहरों के बीच तो दूसरा अपेक्षाकृत कमज़ोर और विपन्न गाँवों के मध्य
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सरकारी लोग दस्तख़त 250 लीटर की पर्ची पर लेते हैं और तेल सिर्फ़ 100 लीटर देते हैं
गुजरात जहां सड़कें हैं सड़कछाप
UPDATE: मंगलवार, 25 मार्च, 2014 को 08:03 IST तक के समाचार
सोमवार, 24 मार्च, 2014 को 12:24 IST तक के समाचार
सोमवार, 24 मार्च, 2014 को 12:24 IST तक के समाचार
मुहावरों की अपनी एक अदा होती है.
उनसे सीधा न तो कुछ होता है, न उम्मीद की जाती है. हमेशा थोड़ा आँका-बाँका
यानी जो कह रहे हैं, दरअसल वो नहीं कह रहे हैं.
मसलन सड़कछाप, जिसका सड़क से कोई मतलब नहीं होता. गो कि आप सड़क पर न हों तब भी सड़कछाप हो सकते हैं.ये उस समय और अखरता है जब चर्चा अतिचर्चित गुजरात की हो. जिसके क़िस्से कहे-सुने जाते हों. उन चमचमाती तेज़ रफ़्तार सड़कों को विकास का पैमाना बताया जाता हो.
ऐसे में जब रफ़्तार घटकर 20 किलोमीटर प्रतिघंटा रह जाए. लाज़िमी है दूरियां ज़रूरत से ज़्यादा लंबी और नक़्शे से बाहर फैलती दिखाई देती हैं.
विकास का पैमाना
सागरनामा
आम धारणा रही है कि दूरदराज़ के
प्रांतों की किस्मत की कुंजी दिल्ली या केंद्र के हाथ में है. पिछले 30 साल
में कई चुनावी समर कवर कर चुके वरिष्ठ पत्रकार
ने पाया है कि भारतीय राजनीति की कहानी अब इससे आगे बढ़ गई है. असल चुनावी
अखाड़ा, उसके मुख्य पात्र और हाशिये पर नज़र आने वाले वोटर अब बदल चुके
हैं. जैसे 'द हिंदूज़' की अमरीकी लेखक वेंडी डोनिगर कहती हैं- 'भारत में एक
केंद्र नहीं है. कभी था ही नहीं. भारत के कई केंद्र हैं और हर केंद्र की
अपनी परिधि है. एक केंद्र की परिधि पर नज़र आने वाला, दरअसल ख़ुद भी केंद्र
में हो सकता है जिसकी अपनी परिधि हो.'
चुनावी नतीजों, क्षेत्रीय दलों को मिली सफलता, केंद्र की सत्ता में छोटे दलों और गठबंधनों की भूमिका स्पष्ट है. आम चुनाव 2014 के दौरान डॉटकॉम के लिए भारत के पश्चिमी तट गुजरात से शुरू करके महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र और ओडिशा से होते हुए पश्चिम बंगाल में सतह के नीचे की लहरों, प्रत्यक्ष और परोक्ष मुद्दों, वोटरों की आकांक्षाओं और सत्ता की लालसा लिए मुख्य पात्रों पर पैनी नज़र डाल रहे हैं.
चुनावी नतीजों, क्षेत्रीय दलों को मिली सफलता, केंद्र की सत्ता में छोटे दलों और गठबंधनों की भूमिका स्पष्ट है. आम चुनाव 2014 के दौरान डॉटकॉम के लिए भारत के पश्चिमी तट गुजरात से शुरू करके महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र और ओडिशा से होते हुए पश्चिम बंगाल में सतह के नीचे की लहरों, प्रत्यक्ष और परोक्ष मुद्दों, वोटरों की आकांक्षाओं और सत्ता की लालसा लिए मुख्य पात्रों पर पैनी नज़र डाल रहे हैं.
बनासकांठा से गुजरात में दाख़िल होने पर लंबे वक़्त तक राजस्थान और गुजरात की सड़कों में ज़्यादा फ़र्क नहीं दिखा.
दोनों अच्छी थीं, लेकिन कुछ फ़ासला तय करते ही गुजरात की सड़कों की चमक आँखें चुंधिया देती है. बहुत व्यवस्थित, साफ़-सुथरी और अत्याधुनिक तकनीक से आपको लगातार जोड़े हुए.
हालत यह कि एक ग़लत मोड़ चुना तो 40 किलोमीटर तक वापसी की राह न मिले. क़रीब-क़रीब ऐसी ही सड़क राजकोट से पोरबंदर के बीच भी है.
एक तरह से कहें, तो राजस्थान में चौमू के मोड़ के बाद पोरबंदर तक लगभग एक हज़ार किलोमीटर की सड़क व्यवधान रहित ही होती, अगर बीच में राधनपुर से समी और सरा होते हुए मोरबी का रास्ता न पकड़ लिया होता.
दो गुजरात
ये क़िस्सा पहले दिन की यात्रा का था. दूसरे दिन जब उम्मीद थी कि सड़कें ठीक होंगी क्योंकि उन्हें सोमनाथ होकर गुज़रना था, कलई दोबारा खुल गई. पोरबंदर से मांगरोल तक सड़क इकहरी ही थी, पर उस पर चलने में दोहरा नहीं होना पड़ता था.
लेकिन बस वहीं तक. मांगरोल से सोमनाथ, सोमनाथ से ऊना और ऊना से तलाजा तक यात्रा का एक ही स्थायी भाव था-खीझना.
सड़कों का काम केवल यात्रा सुनिश्चित करना नहीं होता, व्यापार भी होता है. यों भी कह सकते हैं कि जो सड़कें बड़े व्यापारिक केंद्रों को जोड़ती हैं, वे सभ्य और सुसंस्कृत हैं.
गाँववाली गँवई ही रह गईं. सड़कों ने गुजरात में निश्चित तौर पर मिलों को जोड़ दिया है. दिलों को जोड़ना उनका काम था नहीं और किसी ने इस ओर तवज्जो भी नहीं दी.
गुजरात में राजनीति का मछली बाज़ार
मंगलवार, 25 मार्च, 2014 को 08:03 IST तक के समाचार
गुजरात भारत का अकेला राज्य है जिसके भूगोल को लेकर एक अजीब सा विवाद है.
सरकारी आँकड़े, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन
(इसरो) और गुजराती विद्वान इस बात पर एक राय नहीं है कि गुजरात का तटवर्ती
क्षेत्र कितना लंबा है.सरकारी दस्तावेज़ों में यह 1248 किलोमीटर है जबकि लेखक चंद्रकांत बक्शी इसे 1640 किलोमीटर बताते हैं.
विज्ञान और उपग्रहों के दौर में यह विवाद होना नहीं चाहिए जहाँ एक-एक इंच ज़मीन को नापा जा सकता है.
कच्छ में लखपत से लेकर दक्षिण में कोलाक तक यह सीमा, ज़ाहिर है चार सौ किलोमीटर घट-बढ़ नहीं सकती.
जलजीव व्यापार
वे क़रीब-क़रीब एक जैसी ही हैं. चाहे तट कच्छ या काठियावाड़ का हो या फिर सौराष्ट्र और दक्षिण गुजरात का.
सरकारी या ग़ैरसरकारी, कोई ठीक-ठीक नहीं जानता कि इस व्यापार में कुल कितने लोग लगे हैं.
एक अंदाज़ा इस बात से हो सकता है कि सवा लाख की आबादी वाले पोरबंदर में क़रीब 50 हज़ार लोग, जिस भी शक़्ल में हों, इस व्यापार से जुड़े हैं.
गाद निकालना
सागरनामा
आम धारणा रही है कि दूरदराज़ के
प्रांतों की किस्मत की कुंजी दिल्ली या केंद्र के हाथ में है. पिछले 30 साल
में कई चुनावी समर कवर कर चुके वरिष्ठ पत्रकारने पाया है कि भारतीय राजनीति की कहानी अब इससे आगे बढ़ गई है. असल चुनावी
अखाड़ा, उसके मुख्य पात्र और हाशिये पर नज़र आने वाले वोटर अब बदल चुके
हैं. जैसे 'द हिंदूज़' की अमरीकी लेखक वेंडी डोनिगर कहती हैं, 'भारत में एक
केंद्र नहीं है. कभी था ही नहीं. भारत के कई केंद्र हैं और हर केंद्र की
अपनी परिधि है. एक केंद्र की परिधि पर नज़र आने वाला, दरअसल ख़ुद भी केंद्र
में हो सकता है जिसकी अपनी परिधि हो.' चुनावी नतीजों, क्षेत्रीय दलों को
मिली सफलता, केंद्र की सत्ता में छोटे दलों और गठबंधनों की भूमिका स्पष्ट
है. आम चुनाव 2014 के दौरान मधुकर उपाध्याय बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
भारत के पश्चिमी तट गुजरात से शुरू करके महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु,
आंध्र और ओडिशा से होते हुए पश्चिम बंगाल में सतह के नीचे की लहरों,
प्रत्यक्ष और परोक्ष मुद्दों, वोटरों की आकांक्षाओं और सत्ता की लालसा लिए
मुख्य पात्रों पर पैनी नज़र डाल रहे हैं.
गाद निकालना एक बड़ी समस्या है. न हटने पर बड़ी नावों का किनारे तक आना मुश्किल हो जाता है.
ट्रॉलर बनाने वाले नावों का आकार इसी हिसाब से छोटा करने लगते हैं कि मछुआरों की नाव और उनकी ज़िंदगी गाद में उलझकर न रह जाए.
पोरबंदर हो कि भरूच, सियासत के मारे मछुआरे कोशिश करते हैं कि चुप रह जाएं. उनकी ताक़त बहुत बड़ी है और विविधता उन्हें वोट बैंक होने नहीं देती.
क़दम-क़दम भ्रष्टाचार
पोरबंदर के तट पर गुजरात की दोनों बड़ी पार्टियों कांग्रेस और भाजपा के समर्थक थे, जो विरोध की भाषा नहीं बोलते.वे अपने पक्ष की तरफ़दारी ज़रूर करते हैं पर कोशिश रहती है कि आलोचना से बच जाएं.
आख़िर मछलियों को पानी से निकालने के बाद गंतव्य तक पहुँचाने के लिए जितनी सीढ़ियाँ तय करनी होती हैं, उनमें किसका हित कहाँ जुड़ा होगा पता नहीं चलता.
उसके लिए बड़े कंटेनर चाहिए, नमक और बर्फ़ चाहिए, दूसरे शहर यात्रा के लिए वाहन भी. हर क़दम पर भ्रष्टाचार है. कहीं छोटा, कहीं बड़ा.
कई बार बाहुबल
दस्तख़त 250 लीटर की पर्ची पर लेते हैं और तेल सिर्फ़ 100 लीटर देते हैं. नावों की तादाद इतनी है कि पार्किंग की समस्या खड़ी हो गई है.
उसके अलग से पैसे देने पड़ते हैं. और बात सिर्फ़ धन की ही नहीं रह जाती, कई बार बाहुबल तक आ जाती है.
कई बार पूछने पर एक मछुआरे ने क़रीब-क़रीब उलाहना देते हुए कहा कि हम करें क्या? मछली पकड़ें और किनारे लाकर उसे फिर समंदर में डाल दें?
इससे कम से कम उसका घर तो बचा ही रहेगा. हमारी फ़िक्र कौन करता है.
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