फ़ौज के ख़िलाफ़ खड़ी मणिपुर की विधवाएं
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सशस्त्र बल विशेषाधिकार क़ानून (आफ़्स्पा) क़ानून के ख़िलाफ़ विधवाएं
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शादी के कुछ ही साल बाद पति की अचानक मौत, कंधों पर बच्चों की ज़िम्मेदारी और माथे पर अलगाववादी की पत्नी होने का कलंक.
शादी के कुछ ही साल बाद पति की अचानक मौत, कंधों पर बच्चों की ज़िम्मेदारी और माथे पर अलगाववादी की पत्नी होने का कलंक.
एक क़ानून के ख़िलाफ़ विधवाएं
"मणिपुर में कई विधवाएं एक क़ानून से जंग लड़ रही हैं, जो उनके पतियों से उनको जुदा कर रहा है. मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि आफ़्सपा क़ानून के चलते अब तक कई लोग फ़र्ज़ी मुठभेड़ का शिकार हुए हैं. "
एडिना 28 साल की थीं जब उनके पति की मौत हो गई. उन्होंने लव मैरिज की थी.
तब शादी को महज़ छह साल हुए थे. बड़ा बेटा अविनाश और छोटी बेटी एंजलीना स्कूल जाते थे.
एडिना के पति इंफ़ाल में ऑटो चलाते थे. एडिना बताती हैं कि उन्हें टीवी पर आ रही ख़बरों से पता चला कि उनके पति की मौत हो गई है.
उनके मुताबिक़ उनके पति को सुरक्षा बलों ने गोली मारी थी. छह साल बीत गए हैं पर दर्द अब भी ताज़ा है. मुझसे बात करते-करते एडिना रो पड़ती हैं.
उन्होंने कहा, “मैं उनके बारे में और नहीं सोचना चाहती. बहुत दर्द होता है. उनकी मौत के सदमे की वजह से मुझे लकवा मार गया था. मुझे ठीक होने में एक साल लग गया, अब मैं अपने बच्चों के लिए हिम्मती होना चाहती हूँ.”
अलगाववादी का कलंक
एडिना कहती हैं कि उनके पति एक ज़िम्मेदार बेटा, पति और पिता थे, उनका किसी अलगाववादी गुट से कोई संबंध नहीं था.सशस्त्र बल विशेषाधिकार क़ानून (आफ़्स्पा)
राज्य में सक्रिय 25
अलगाववादी गुटों से निपटने के लिए मणिपुर में कई दशकों से सेना तैनात है.
सुरक्षाबलों को सशस्त्र बल विशेषाधिकार क़ानून के इस्तेमाल की छूट है,
जिसके तहत उनके ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं हो सकती. मानवाधिकार
संगठनों का आरोप है कि इस क़ानून की आड़ में कई मासूम फर्ज़ी मुठभेड़ों में
मारे गए हैं.
वो बताती हैं कि उनके पति पर अलगाववादी होने की तोहमत लगने की वजह से उन्हें विधवा पेंशन जैसी सरकारी योजनाओं का फ़ायदा नहीं मिला.
अब अपने मां-बाप और भाई की मदद से एक छोटी सी दुकान में पान, नमकीन, बिस्कुट और जूस जैसी चीज़ें बेचती हैं.
मोहब्बत की नींव पर बसाया उनका आशियाना जो उजड़ा है तो अकेलेपन के बादल छंटने का नाम ही नहीं लेते.
एडिना मुझसे कहती हैं, “मैं दोबारा शादी करना चाहती हूँ पर मैं विधवा हूं तो मेरा अच्छे कपड़ा पहनना भी लोगों को बुरा लगता है, दोबारा शादी तो दूर की बात है. महिलाओं के समान अधिकार सब किताबी बातें हैं, असलियत कुछ और ही है.”
आफ़स्पा का विरोध
इरोम शर्मिला –आयरन लेडी ऑफ़ मणिपुर
ऑफ़्सपा के विरोध का सबसे
जाना-पहचाना चेहरा हैं इरोम शर्मिला. साल 2000 में 28 साल की इरोम शर्मिला
ने इस क़ानून को मणिपुर से हटाने की मांग के साथ अनशन शुरू किया. उन्हें तब
आत्महत्या की कोशिश के आरोप में न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया था. तबसे
इरोम न्यायिक हिरासत में हैं और उन्हें नाक में पाइप के ज़रिए जबरन खाना
खिलाया जा रहा है. 14 साल से इरोम की मांग वहीं है और क़ानून भी अपनी जगह
है.
इसके तहत सुरक्षा बलों के ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि इस क़ानून की आड़ में कई मासूम फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में मारे गए हैं.
मणिपुर से कांग्रेस के सांसद डॉक्टर मेन्या मानते हैं कि इस क़ानून का दुरुपयोग हुआ है और कई आयोग इसे मणिपुर से हटाने की सिफ़ारिश कर चुके हैं, डॉक्टर मान्या की निजी राय में इस क़ानून को अब तक हटा दिया जाना चाहिए था.
डॉक्टर मेन्या के मुताबिक़ इस व़क्त ज़रूरत है मणिपुर में सुशासन की ताकि क़ानून व्यवस्था सुधरे और सेना की मदद की ज़रूरत कम हो.
न्याय की उम्मीद
डॉक्टर मेन्या, कांग्रेस सांसद, मणिपुर
"मेरी निजी राय में यह सख़्त क़ानून है और इसे मणिपुर से हटाया जाना चाहिए. कई आयोग भी इसे हटाने की सिफ़ारिश कर चुके हैं. रक्षा मंत्रालय का मानना है कि सेना को शहरी इलाक़ों में काम करने का तजुर्बा नहीं होता, इसलिए उन्हें विशेष सुरक्षा की ज़रूरत होती है और यह क़ानून उन इलाक़ों में अनिवार्य है जहां सेना तैनात है. मेरे ख़याल से इस व़क्त सबसे ज़रूरी है कि मणिपुर में प्रशासन बेहतर हो और क़ानून व्यवस्था सुधरे, ताकि सेना की ज़रूरत कम हो जाए."
एक दूसरे के साथ हिम्मत जुटाकर और मानवाधिकार संगठनों की मदद से अब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से मणिपुर में मुठभेड़ के 1500 से ज़्यादा मामलों की जाँच की माँग की है.
इन्हीं में से एक नितान कहती हैं कि संगठन बनने से ज़िंदगी को न सिर्फ़ एक नई दिशा और उम्मीद मिली है बल्कि अंदर से टूटा आत्मविश्वास भी जुड़ने लगा है.
पर न्याय की उम्मीद करने वाली ये महिलाएं राजनेताओं से बिल्कुल नाउम्मीद हैं.
नितान कहती हैं कि वोट देने जाएँगी मगर बदलाव की उम्मीद के बिना, “पहले तो सब नेता कहते हैं कि मणिपुर से आफ़स्पा क़ानून हटा देंगे लेकिन जीतने के बाद कोई नहीं कहता, इसलिए बिल्कुल मन नहीं करता वोट देने का.”
एडिना भी नितान से सहमत हैं. कहती हैं कि राजनीति से ज़्यादा उन्हें न्यायालय पर ही भरोसा है.
इनके संगठन की एक बैठक में जब मैं और सदस्यों से मिली तो कइयों ने कहा कि वे अभी तक तय नहीं कर पाई हैं कि वोट डाले भी या नहीं, फिर कुछ ने कहा कि अब न्याय के लिए आवाज़ उठाने की हिम्मत की है तो वोट भी ज़ाया नहीं होने देंगी.
इनमें से कई महिलाएँ अपनी नाराज़गी और हताशा घर बैठकर नहीं, बल्कि इस बार नोटा का बटन दबाकर ज़ाहिर करने की सोच रही हैं.
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