Sunday, 13 April 2014

मोदी के गुजरात मॉडल का 'गड़बड़झाला': ठोस तथ्यों और तर्कों से गुजरात का चरित्र...Read For Your Knowledge

मोदी के गुजरात मॉडल का 'गड़बड़झाला' : ठोस तथ्यों और तर्कों से  गुजरात का चरित्र..Read For Your Knowledge


नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार अभियान
राजनीतिक गहमागहमी में देश जब मतदान-केंद्रों की तरफ बढ़ चला है तो ठोस तथ्यों और तर्कों से होने वाले जांच-परख की एक तरह से विदाई हो रही है.
और इन पर हावी हो रहा है जन-संपर्क उद्योग का प्रचार-अभियान. पहला है नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व पर चढाया जा रहा रंग-रोगन ताकि वो लोगों की नजर में चढ़ जाए.
अधिनायकवादी चरित्र और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रतिक्रियावादी मूल्यों में अंदर तक धंसे नरेंद्र मोदी, जिन पर 2002 के गुजरात दंगों में मिलीभगत के आरोप उनके आलोचक लगाते रहे हैं लेकिन अब वो एक संकटमोचक बताए जा रहे हैं.

यानी एक ऐसा खेवैया जिससे उम्मीद बांधी जाए कि वह भ्रष्टाचार, महंगाई और बेरोजगारी के भंवर से बचाते हुए देश की नैया पार लगाएगा. यह संकटमोचक इतना कुछ कैसे कर पाएगा, इसे हमारी कल्पना के भरोसे छोड़ दिया गया है. प्रचार के सारे शोर में हक़ की यही बात ग़ायब है.
ख़ुद भारतीय जनता पार्टी की छवि भी साफ-सुथरा शासन देने वाली पार्टी के रूप में चमकाई जा रही है, यह तथ्य आंखों से ओझल करके कि भ्रष्टाचार के मामले में बीजेपी और कांग्रेस के बीच शायद ही कोई फ़र्क़ है.

गुजरात की चकाचौंध

गुजरात का विकास
ठीक इसी तरह अवसर के अनुकूल गुजरात की छवि भी संवारी गई है. कई मतदाता मतदान-केंद्र तक मन में यह छवि लेकर जाएंगे कि गुजरात, जापान जैसा बन चला है और मोदी के हाथ में बागडोर देने पर पूरे देश के लिए यही संभावना पैदा होगी.

मोदी-प्रशंसक कुछ अर्थशास्त्रियों ने विकास के मोर्चे पर गुजरात की चकाचौंध भरी प्रगति की व्याख्या में तर्क पेश किया है कि यह सब निजी उद्यम और आर्थिक-वृद्धि की वजह से हुआ है.
यह व्याख्या व्यवसायिक मीडिया में ख़ूब लोकप्रिय है क्योंकि यह व्याख्या कॉरपोरेट जगत के इस विचार के एकदम माफ़िक बैठती है कि सरकार का मुख्य काम व्यापारिक हितों को बढ़ावा देना है.
बहरहाल, जैसा कि सधे-संयमित मिज़ाज के कुछ विद्वानों (मसलन रघुराम राजन, अशोक कोटवाल, मैत्रेश घटक सहित कुछ अन्य प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों) ने बताया है, वास्तव में गुजरात का विकास अभूतपूर्व होने से अभी कोसों दूर है. हां ये ज़रूर है कि पिछले बीस बरसों में गुजरात आगे बढ़ा है.
कोई गुजरात की यात्रा करे तो वहां की अच्छी सड़कों, कुकुरमुत्ते की तरह फैली फैक्ट्रियों और नियमित बिजली-आपूर्ति को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकेगा. लेकिन वहां के लोगों की जीवन-दशा के बारे में भी सोचिए.

विकास का आधार

गुजरात
हम चाहे गरीबी, पोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य के मानकों को ध्यान में रखें या फिर इनसे जुड़े अन्य सूचकांकों को, एक सिरे से नतीजा यही निकलेगा कि गुजरात कई मायनों में अखिल भारतीय औसत से थोड़ा आगे है लेकिन इस विकास में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके आधार पर गुजरात को एक मॉडल कहना तार्किक जान पड़े.

जिस किसी को इस बात पर संदेह हो, वह हालिया राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, या फिर रघुराजन समिति की रिपोर्ट को डाउनलोड करके स्वयं तथ्यों की पुष्टि कर सकता है. इसके लिए पीएचडी करने की जरूरत नहीं.
इस तर्क की काट में गुजरात मॉडल के पैरोकार कहते हैं कि गुजरात के सामाजिक-सूचकांकों को उसके विकास का आधार बनाना ठीक नहीं, बल्कि यह देखना ज़रूरी है कि समय गुज़रने के साथ गुजरात के सामाजिक-विकास के सूचकांकों में कितना सुधार हुआ है.
उनका दावा है कि अन्य राज्यों की तुलना में गुजरात ने तेज़ गति से प्रगति की है और ख़ासतौर पर यह प्रगति मोदी के मुख्यमंत्री रहते हुई है. लेकिन अफसोस कि यह दावा भी झूठा साबित हुआ है. वस्तुतः गुजरात 1980 के दशक में भी अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर कर रहा था.

विकास का रिकॉर्ड

गुजरात
इसके बाद से गुजरात का तुलनात्मक स्थान ज़्यादातर एक जैसा रहा है, यहां तक कि कुछ मामलों में तो नीचे गया है. इस बात को एक उदाहरण के जरिए समझा जा सकता है. गुजरात में शिशु मृत्यु-दर अखिल भारतीय औसत से बहुत अलग नहीं है.

प्रति हज़ार जीवित शिशुओं के जन्म पर गुजरात के लिए यह दर 38 शिशुओं का है जबकि अखिल भारतीय औसत 42 शिशुओं का. ऐसा भी नहीं कि शिशु मृत्यु-दर को कम करने के मामले में गुजरात शेष भारत की तुलना में अधिक तेज़ी से प्रगति कर रहा है.
बीस साल पहले शिशु मृत्यु-दर के मामले में शेष भारत से गुजरात का अन्तर कहीं ज्यादा बेहतर था. जहां तक अन्य सूचकांकों का सवाल है, तस्वीर कम या अधिक गुजरात के पक्ष में नज़र आती है. कुल मिलाकर, उपलब्ध आंकड़ों से ऐसी कोई स्पष्ट तस्वीर नहीं उभरती कि गुजरात ने अद्वितीय प्रगति हासिल की है.
संक्षेप में कहें तो तुलनात्मक अर्थों में गुजरात के विकास का रिकॉर्ड बुरा नहीं है लेकिन केरल की तो छोड़ दें, उसे तमिलनाडु या फिर हिमाचल प्रदेश जितना भी बेहतर नहीं कहा जा सकता. यहां एक और मुद्दा भी है. क्या गुजरात का विकास वास्तव में निजी उद्यम और आर्थिक-वृद्धि पर आधारित है? यह सिर्फ़ कहानी का एक हिस्सा है.

भ्रामक बातें

गुजरात
सन् 1980 के दशक में जब मैं गुजरात गया था तो उत्तर भारत के बड़े राज्यों की तुलना में गुजरात में बहाल सामाजिक सेवाओं और सार्वजनिक सुविधाओं को देखकर दंग रहा गया था. मिसाल के लिए, गुजरात में उस वक्त ही प्राथमिक विद्यालयों में दोपहर का भोजन देने की योजना चल रही थी.

इस मामले में गुजरात तमिलनाडु से दशकों पीछे भले रहा हो लेकिन शेष भारत से दशकों आगे था. गुजरात में सार्वजनिक वितरण प्रणाली सुचारू ढंग से चल रही थी, ना सही तमिलनाडु जितनी कारगर तो भी यह प्रणाली उत्तर भारत की तुलना में बहुत बेहतर थी.
तब गुजरात में सूखाड़ के समय राहत-कार्य पहुंचाने की व्यवस्था भी बड़ी अच्छी थी और (महाराष्ट्र के साथ) गुजरात इस मामले में प्रावधान रचने के मामले में अगुआ साबित हुआ. बाद के दिनों में ऐसे बहुत से प्रावधान राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में शामिल किए गए.
गुजरात की आज के समय की उपलब्धियां, अपने मौजूदा स्वरुप में, जितनी सरकारी क्षेत्र के जरिए कारगर सेवा प्रदान करने की उसका क्षमता की देन हैं उतनी ही निजी उद्यमों और आर्थिक-वृद्धि की. संक्षेप में बात यह है कि गुजरात मॉडल की कथा, जिसे चुनावों के लिए नमक-मिर्च लगाकर परोसा जा रहा है, कम से कम तीन बातों में भ्रामक है.

सामाजिक असामनता

सामाजिक असामनता (फाइल फोटो)
एक, यह कथा गुजरात की विकास संबंधी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है. दूसरे, यह कथा मान ही नहीं पाती कि गुजरात की विकासपरक उपलब्धियों का रिश्ता नरेन्द्र मोदी से ना के बराबर है. तीसरे, यह कथा बिना परखे गुजरात की उपलब्धियों को निजी उद्यम और आर्थिक-वृद्धि की देन ठहराती है.

और, यह सब गुजरात के विकास के स्याह पहलू जैसे पर्यावरण के विनाश या फिर राजकीय दमन की बात पर ग़ौर किए बग़ैर होता है. आख़िरी बात यह कि गुजरात एक दिलचस्प पहेली है. पहली यह कि इतने लंबे समय के तेज़ आर्थिक विकास और गवर्नेंस के अपेक्षाकृत उच्च स्तर के बावजूद सामाजिक विकास के निर्देशांक गुजरात में गतिहीन क्यों हैं?
शायद इस बात का रिश्ता आर्थिक और सामाजिक असमानता (जिसमें स्त्री-पुरुष के रिश्तों में व्याप्त भारी गैर-बराबरी शामिल है) से है, या फिर हो सकता है सामाजिक विकास सूचित करने वाले भारत के आंकड़े ही पुराने पड़ चुके हैं या यह भी हो सकता है कि कारगर सार्वजनिक सेवा प्रदान करने के मामले में गुजरात अपनी पहले वाली प्रतिबद्धता ना दिखा पा रहा हो.
नरेंद्र मोदी के पक्ष में सतही प्रचार करने की जगह इस पहेली को सुलझाना दरअसल दिमाग के लिए कहीं ज़्यादा उपयोगी साबित होगा.
(लेखक रांची विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में विजिटिंग प्रोफेसर हैं.)

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