राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी :' रबर - स्टाम्प ' बनने से इनकार,भ्रष्टाचार विरोधी अध्यादेशों को मंजूरी नहीं
शुक्र , 7 मार्च , 2014 09:23 0
और जानें : रबर स्टांप | प्रणब मुखर्जी | राष्ट्रपति | संसद | नियुक्ति | अवैध |
सराहना की जाना चाहिए कि प्रणब मुखर्जी एक ' रबर - स्टाम्प राष्ट्रपति " नहीं साबित हुए हैं भ्रष्टाचार - .. विरोधी अध्यादेशों को मंजूरी नहीं देने संबंधी उनका निर्णय बिलकुल सही था , क्योंकि कानून बनने से पहले उन पर संसद में बहस होना जरूरी है चुनावों से ऐन पहले आनन - फानन में इन अध्यादेशों को मंजूरी देना कैसे उचित ठहराया जा सकता था ?
देश के 13 वें राष्ट्रपति के लिए पिछले कुछ दिन बहुत कठिनाई भरे साबित हुए , लेकिन उन्होंने सराहनीय दृढ़ता और निष्ठा का परिचय दिया . उन पर उस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का खासा दबाव था , जिसकी सेवा वे खुद पांच दशकों से करते आ रहे थे . लेकिन 15 वीं लोकसभा के समाप्त होने के बाद और चुनाव आयोग द्वारा लोकसभा चुनावों का कार्यक्रम जारी करने से ऐन पहले उन्होंने पार्टी के दबावों को दरकिनार करते हुए भ्रष्टाचार - विरोधी अध्यादेशों को लागू करने से इनकार कर दिया .
ऐसा करते हुए प्रणब मुखर्जी ने देश के शीर्ष संवैधानिक पद को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाते हुए उसकी गरिमा को ही कायम रखा है . राष्ट्रपति चुनावों के दौरान इस पद के उम्मीदवार का चाहे किसी भी पार्टी द्वारा समर्थन क्यों न किया गया हो , लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद वह विभिन्न् दायरों से ऊपर उठकर देश के संवैधानिक मुखिया की हैसियत से कार्य करता है . राष्ट्रपति का पहला काम एक गैर - राजनीतिक व्यक्ति के रूप में देशहित में संवैधानिक मूल्यों को कायम रखना है .
प्रणब मुखर्जी अनुभवी राजनेता रहे हैं और वित्त मंत्री , रक्षा मंत्री , विदेश मंत्री , योजना आयोग के उपाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पदों पर सेवाएं दे चुके हैं . अध्यादेशों को मंजूरी नहीं देने संबंधी उनका निर्णय बिलकुल सही था , क्योंकि कानून बनने से पहले उन पर संसद में पूरी बहस होना जरूरी है . चुनावों से ऐन पहले आनन - फानन में इन अध्यादेशों को मंजूरी देना कैसे उचित ठहराया जा सकता था ?
बताया जाता है कि राहुल गांधी इन अध्यादेशों को पास कराना चाहते थे . यूपीए सरकार जिस तरह से इन अध्यादेशों को लाने पर आमादा थी , उससे लगता है कि कांग्रेस अपने युवा नेता को खुश करने के चक्कर में अपना संतुलन गंवा बैठी है . खबरें यह भी थीं कि पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता इस तरीके से अध्यादेश लाने के पक्ष में नहीं थे , लेकिन कांग्रेस उपाध्यक्ष के हठ के चलते उन्हें चुप होना पड़ा .
गौरतलब है कि यूपीए की पिछली दो कैबिनेट बैठकों के अधिकृत एजेंडे से इन अध्यादेशों को बाहर रखा गया था और इस मामले को ' अन्य बिंदु " के रूप में रखा गया था , जिस पर कोई निर्णय नहीं लिया जा सका अंतत : . कानून मंत्री कपिल सिब्बल और गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वे अध्यादेशों पर राष्ट्रपति की अनौपचारिक मंजूरी लें . लेकिन जब राष्ट्रपति ने नैतिक और वैधानिक आधार पर इसमें रुचि नहीं ली तो मामले को वहीं खत्म हो जाना चाहिए था . पर ऐसा हुआ नहीं .
प्रणब मुखर्जी का रुख बदलने के लिए एक बार फिर कोशिश की गई . कांग्रेस ने इस बार , शायद रणनीतिक रूप से , वित्त मंत्री पी . चिदंबरम को भेजा . चिदंबरम को मुखर्जी का विरोधी माना जाता है . चुनाव आयोग द्वारा चुनाव कार्यक्रम की औपचारिक घोषणा किए जाने से एक दिन पहले चिदंबरम मुखर्जी से मिले , लेकिन वे भी उन्हें राजी करने में कामयाब न हो सके . उन्हें खाली हाथ लौटने पर मजबूर होना पड़ा .
अध्यादेशों को लेकर चिदंबरम की राष्ट्रपति से भेंट ने अनेक चर्चाओं को जन्म दिया , क्योंकि उस समय प्रधानमंत्री देश से बाहर थे . सवाल उठने लगे कि क्या कैबिनेट और प्रधानमंत्री ने म्यांमार रवाना होने से पहले ही इन पर अपनी सहमति दे दी थी ? या क्या यह संभव है कि कांग्रेस के नेतागण चुनाव आयोग के संपर्क में नहीं थे , जिसने उसी दिन कहा कि वह अगले दिन औपचारिक चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा करेगा .
शायद यही कारण था कि सरकार ने आनन - फानन में दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को निख्ािल कुमार के स्थान पर केरल का नया राज्यपाल बना दिया और कुमार के सामने कांग्रेस के टिकट पर अपनी पसंद की किसी भी सीट से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव रख दिया . दिल्ली की अल्पकालिक आम आदमी पार्टी सरकार द्वारा कॉमनवेल्थ घोटाले के मामले में शीला दीक्षित के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई गई थी . ऐसे में प्रधानमंत्री की गैरमौजूदगी में उन्हें जल्दबाजी में केरल की राज्यपाल बनाने का मकसद संभवत : उन्हें अदालत के समक्ष एक संवैधानिक कवच प्रदान करना रहा होगा .
पार्टी को और शर्मिंदगी से बचाने के लिएयह भले ही पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी का राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक हो , लेकिन इससे यह भी साबित हो गया कि भ्रष्टाचार के मामले में कांग्रेस द्वारा की जाने वाली बातें कितनी खोखली हैं . संविधान के तहत राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है . हो सकता है आदर्श आचार संहिता लगने से चंद ही घंटों पहले कुमार के इस्तीफे और दीक्षित की नियुक्ति के लिए प्रणब मुखर्जी राजी हो गए हों . चूंकि चुनाव आयोग ने उसी दिन कहा था कि उसके द्वारा अगले दिन चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा की जाएगी , इसलिए क्या राष्ट्रपति शीला दीक्षित की नियुक्ति को रोक सकते थे ? शायद हां , लेकिन उन्होंने संभवत : दो कारणों से ऐसा नहीं किया . पहला यह कि यह एक असंवैधानिक कृत्य नहीं था और दूसरा यह कि इससे चुनावों पर सीधे - सीधे कोई असर नहीं पड़ने वाला था .
इस बात की सराहना की जाना चाहिए कि प्रणब मुखर्जी एक ' रबर - .. स्टाम्प राष्ट्रपति " नहीं साबित हुए हैं कांग्रेस ने मुखर्जी को तब अपना राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था , जब वे वित्त मंत्री थे सरकार के लिए मुखर्जी को साधना मुश्किल साबित हो रहा था , क्योंकि वे 2 जी घोटाले में मनमोहन - चिदंबरम की भूमिका पर परदा डालने के लिए तैयार नहीं हो सकते थे वास्तव में अनेक आला अफसरों ने यह पसंद नहीं किया था कि चिदंबरम को गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपते हुए मुखर्जी को वित्त मंत्रालय दिया जाए ..
यही कारण था कि बाद में पता चला कि नॉर्थ ब्लॉक स्थित मुखर्जी के दफ्तर की जासूसी की जा रही थी . हालांकि बाद में मुखर्जी ने अपने दफ्तर को इस तरह की किसी भी निगरानी से मुक्त करवा लिया , लेकिन यह आज तक पता नहीं चल सका है कि उनकी जासूसी कौन कर रहा था और क्यों .
बाबू राजेंद्र प्रसाद के बाद से अभी तक ऐसा कोई राष्ट्रपति नहीं हुआ है , जिसने पद पर रहते हुए लगातार दो कार्यकाल पूरे किए हों . देश के पहले प्रधानमंत्री पं . जवाहरलाल नेहरू को अपने दूसरे कार्यकाल में देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था . उसके बाद से ही कांग्रेस इस बात को लेकर सचेत रही है कि उसके द्वारा राष्ट्रपति बनाए जाने वाला व्यक्ति उसके हित में काम करे और अपने दिमाग का ज्यादा इस्तेमाल न करे . इंदिरा गांधी के कार्यकाल में राष्ट्रपति रहे वीवी गिरी , फखरुद्दीन अली अहमद ( जो आपातकाल के दौरान राष्ट्रपति थे ) और ज्ञानी जैल सिंह हमेशा सरकार के पक्षधर रहे .
नरसिंह राव ने भी शंकर दयाल शर्मा से आशीर्वाद लेकर आर्थिक सुधारों को लागू किया था . इसीलिए अचरज नहीं कि यूपीए ने सत्ता में आने के बाद सुविख्यात वैज्ञानिक और स्वतंत्र सोच रखने वाले एपीजे अब्दुल कलाम के बजाय प्रतिभा पाटील को तरजीह दी थी . जो भी हो , अब यह देखना दिलचस्प रहेगा कि आगामी सरकार के साथ प्रणब मुखर्जी के रिश्ते कैसे रहते हैं .
शुक्र , 7 मार्च , 2014 09:23 0
और जानें : रबर स्टांप | प्रणब मुखर्जी | राष्ट्रपति | संसद | नियुक्ति | अवैध |
सराहना की जाना चाहिए कि प्रणब मुखर्जी एक ' रबर - स्टाम्प राष्ट्रपति " नहीं साबित हुए हैं भ्रष्टाचार - .. विरोधी अध्यादेशों को मंजूरी नहीं देने संबंधी उनका निर्णय बिलकुल सही था , क्योंकि कानून बनने से पहले उन पर संसद में बहस होना जरूरी है चुनावों से ऐन पहले आनन - फानन में इन अध्यादेशों को मंजूरी देना कैसे उचित ठहराया जा सकता था ?
देश के 13 वें राष्ट्रपति के लिए पिछले कुछ दिन बहुत कठिनाई भरे साबित हुए , लेकिन उन्होंने सराहनीय दृढ़ता और निष्ठा का परिचय दिया . उन पर उस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का खासा दबाव था , जिसकी सेवा वे खुद पांच दशकों से करते आ रहे थे . लेकिन 15 वीं लोकसभा के समाप्त होने के बाद और चुनाव आयोग द्वारा लोकसभा चुनावों का कार्यक्रम जारी करने से ऐन पहले उन्होंने पार्टी के दबावों को दरकिनार करते हुए भ्रष्टाचार - विरोधी अध्यादेशों को लागू करने से इनकार कर दिया .
ऐसा करते हुए प्रणब मुखर्जी ने देश के शीर्ष संवैधानिक पद को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाते हुए उसकी गरिमा को ही कायम रखा है . राष्ट्रपति चुनावों के दौरान इस पद के उम्मीदवार का चाहे किसी भी पार्टी द्वारा समर्थन क्यों न किया गया हो , लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद वह विभिन्न् दायरों से ऊपर उठकर देश के संवैधानिक मुखिया की हैसियत से कार्य करता है . राष्ट्रपति का पहला काम एक गैर - राजनीतिक व्यक्ति के रूप में देशहित में संवैधानिक मूल्यों को कायम रखना है .
प्रणब मुखर्जी अनुभवी राजनेता रहे हैं और वित्त मंत्री , रक्षा मंत्री , विदेश मंत्री , योजना आयोग के उपाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पदों पर सेवाएं दे चुके हैं . अध्यादेशों को मंजूरी नहीं देने संबंधी उनका निर्णय बिलकुल सही था , क्योंकि कानून बनने से पहले उन पर संसद में पूरी बहस होना जरूरी है . चुनावों से ऐन पहले आनन - फानन में इन अध्यादेशों को मंजूरी देना कैसे उचित ठहराया जा सकता था ?
बताया जाता है कि राहुल गांधी इन अध्यादेशों को पास कराना चाहते थे . यूपीए सरकार जिस तरह से इन अध्यादेशों को लाने पर आमादा थी , उससे लगता है कि कांग्रेस अपने युवा नेता को खुश करने के चक्कर में अपना संतुलन गंवा बैठी है . खबरें यह भी थीं कि पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेता इस तरीके से अध्यादेश लाने के पक्ष में नहीं थे , लेकिन कांग्रेस उपाध्यक्ष के हठ के चलते उन्हें चुप होना पड़ा .
गौरतलब है कि यूपीए की पिछली दो कैबिनेट बैठकों के अधिकृत एजेंडे से इन अध्यादेशों को बाहर रखा गया था और इस मामले को ' अन्य बिंदु " के रूप में रखा गया था , जिस पर कोई निर्णय नहीं लिया जा सका अंतत : . कानून मंत्री कपिल सिब्बल और गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वे अध्यादेशों पर राष्ट्रपति की अनौपचारिक मंजूरी लें . लेकिन जब राष्ट्रपति ने नैतिक और वैधानिक आधार पर इसमें रुचि नहीं ली तो मामले को वहीं खत्म हो जाना चाहिए था . पर ऐसा हुआ नहीं .
प्रणब मुखर्जी का रुख बदलने के लिए एक बार फिर कोशिश की गई . कांग्रेस ने इस बार , शायद रणनीतिक रूप से , वित्त मंत्री पी . चिदंबरम को भेजा . चिदंबरम को मुखर्जी का विरोधी माना जाता है . चुनाव आयोग द्वारा चुनाव कार्यक्रम की औपचारिक घोषणा किए जाने से एक दिन पहले चिदंबरम मुखर्जी से मिले , लेकिन वे भी उन्हें राजी करने में कामयाब न हो सके . उन्हें खाली हाथ लौटने पर मजबूर होना पड़ा .
अध्यादेशों को लेकर चिदंबरम की राष्ट्रपति से भेंट ने अनेक चर्चाओं को जन्म दिया , क्योंकि उस समय प्रधानमंत्री देश से बाहर थे . सवाल उठने लगे कि क्या कैबिनेट और प्रधानमंत्री ने म्यांमार रवाना होने से पहले ही इन पर अपनी सहमति दे दी थी ? या क्या यह संभव है कि कांग्रेस के नेतागण चुनाव आयोग के संपर्क में नहीं थे , जिसने उसी दिन कहा कि वह अगले दिन औपचारिक चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा करेगा .
शायद यही कारण था कि सरकार ने आनन - फानन में दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को निख्ािल कुमार के स्थान पर केरल का नया राज्यपाल बना दिया और कुमार के सामने कांग्रेस के टिकट पर अपनी पसंद की किसी भी सीट से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव रख दिया . दिल्ली की अल्पकालिक आम आदमी पार्टी सरकार द्वारा कॉमनवेल्थ घोटाले के मामले में शीला दीक्षित के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाई गई थी . ऐसे में प्रधानमंत्री की गैरमौजूदगी में उन्हें जल्दबाजी में केरल की राज्यपाल बनाने का मकसद संभवत : उन्हें अदालत के समक्ष एक संवैधानिक कवच प्रदान करना रहा होगा .
पार्टी को और शर्मिंदगी से बचाने के लिएयह भले ही पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी का राजनीतिक मास्टरस्ट्रोक हो , लेकिन इससे यह भी साबित हो गया कि भ्रष्टाचार के मामले में कांग्रेस द्वारा की जाने वाली बातें कितनी खोखली हैं . संविधान के तहत राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है . हो सकता है आदर्श आचार संहिता लगने से चंद ही घंटों पहले कुमार के इस्तीफे और दीक्षित की नियुक्ति के लिए प्रणब मुखर्जी राजी हो गए हों . चूंकि चुनाव आयोग ने उसी दिन कहा था कि उसके द्वारा अगले दिन चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा की जाएगी , इसलिए क्या राष्ट्रपति शीला दीक्षित की नियुक्ति को रोक सकते थे ? शायद हां , लेकिन उन्होंने संभवत : दो कारणों से ऐसा नहीं किया . पहला यह कि यह एक असंवैधानिक कृत्य नहीं था और दूसरा यह कि इससे चुनावों पर सीधे - सीधे कोई असर नहीं पड़ने वाला था .
इस बात की सराहना की जाना चाहिए कि प्रणब मुखर्जी एक ' रबर - .. स्टाम्प राष्ट्रपति " नहीं साबित हुए हैं कांग्रेस ने मुखर्जी को तब अपना राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था , जब वे वित्त मंत्री थे सरकार के लिए मुखर्जी को साधना मुश्किल साबित हो रहा था , क्योंकि वे 2 जी घोटाले में मनमोहन - चिदंबरम की भूमिका पर परदा डालने के लिए तैयार नहीं हो सकते थे वास्तव में अनेक आला अफसरों ने यह पसंद नहीं किया था कि चिदंबरम को गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपते हुए मुखर्जी को वित्त मंत्रालय दिया जाए ..
यही कारण था कि बाद में पता चला कि नॉर्थ ब्लॉक स्थित मुखर्जी के दफ्तर की जासूसी की जा रही थी . हालांकि बाद में मुखर्जी ने अपने दफ्तर को इस तरह की किसी भी निगरानी से मुक्त करवा लिया , लेकिन यह आज तक पता नहीं चल सका है कि उनकी जासूसी कौन कर रहा था और क्यों .
बाबू राजेंद्र प्रसाद के बाद से अभी तक ऐसा कोई राष्ट्रपति नहीं हुआ है , जिसने पद पर रहते हुए लगातार दो कार्यकाल पूरे किए हों . देश के पहले प्रधानमंत्री पं . जवाहरलाल नेहरू को अपने दूसरे कार्यकाल में देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद से काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था . उसके बाद से ही कांग्रेस इस बात को लेकर सचेत रही है कि उसके द्वारा राष्ट्रपति बनाए जाने वाला व्यक्ति उसके हित में काम करे और अपने दिमाग का ज्यादा इस्तेमाल न करे . इंदिरा गांधी के कार्यकाल में राष्ट्रपति रहे वीवी गिरी , फखरुद्दीन अली अहमद ( जो आपातकाल के दौरान राष्ट्रपति थे ) और ज्ञानी जैल सिंह हमेशा सरकार के पक्षधर रहे .
नरसिंह राव ने भी शंकर दयाल शर्मा से आशीर्वाद लेकर आर्थिक सुधारों को लागू किया था . इसीलिए अचरज नहीं कि यूपीए ने सत्ता में आने के बाद सुविख्यात वैज्ञानिक और स्वतंत्र सोच रखने वाले एपीजे अब्दुल कलाम के बजाय प्रतिभा पाटील को तरजीह दी थी . जो भी हो , अब यह देखना दिलचस्प रहेगा कि आगामी सरकार के साथ प्रणब मुखर्जी के रिश्ते कैसे रहते हैं .
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