वोट पर भरोसा, नेता पर नहीं
"हम सबने नोटा में वोट डाला. सबने.
किसी एक का नाम मत लीजिए...", वो कहते हैं. कुम्बली गांव के लोग नेताओं से
उम्मीद लगा-लगाकर थक चुके थे. पूछो तो सभी इसकी ज़िम्मेदारी सामूहिक रूप से
ही लेना चाहते हैं.
चित्रकोट के लुहांडीगुडा ब्लॉक के कुम्बली गांव को शायद कोई जानता भी नहीं, अगर वहां के बाशिंदे मिल-जुलकर सभी उम्मीदवारों की उम्मीद पर पानी न फेरते.
स्थानीय निवासी कमल गजभिए बताते हैं, "हमारे गांव की रोड नहीं बन रही है. जनप्रतिनिधि वादे करते हैं और सरकारी अधिकारी भी. मगर कुछ नहीं हुआ. पहले हमने सोचा कि वोट का बहिष्कार करेंगे. मगर बाद में सोचा कि अगर ऐसा किया, तो हमें परेशान किया जा सकता है क्योंकि ये एक संवेदनशील इलाक़ा है. हमें सब माओवादी कहेंगे. इसलिए हम सबने मिलकर नोटा में वोट दिया."
कुम्बली बस्तर संभाग के मुख्यालय से है तो बमुश्किल 30 किलोमीटर, पर न तरक़्क़ी की सड़क वहां तक पंहुच पाई, न सहूलियतों की सौगात. गांव वालों को लगता है वे सबसे उपेक्षित गांव हैं.
'सबसे उपेक्षित गांव'
जगदलपुर से चित्रकोट को जोड़ने वाली मुख्य सड़क पर बड़ांजी चौक से कुम्बली गांव दस किलोमीटर की दूरी पर है. और, इस दस किलोमीटर का रास्ता अगर ज़मीनी हक़ीक़त है, तो काफ़ी ऊबड़-खाबड़ और तकलीफ़देह.गांव के ही बुज़ुर्ग बलदेव सिंह कहते हैं: "पहले तो वोट डालना पड़ता था कि बहिष्कार करने से कहीं कोई हम लोगों को नक्सली न कह दे. मगर अब हमारे पास अपना विरोध दर्ज करने के लिए वोटिंग मशीन में उपाय कर दिया गया है. हम इसका इस चुनाव में भी इस्तेमाल करेंगे."
12 विधानसभा, 78186 नोटा वोट
- चित्रकोट विधानसभा- 10848 नोटा वोट
- दंतेवाड़ा विधानसभा- 9677 नोटा वोट
- केशकाल विधानसभा- 8381 नोटा वोट
- कोंडागाँव विधानसभा- 6773 नोटा वोट
- पथलगाँव विधानसभा- 5533 नोटा वोट
कुम्बली से लोहांडीगुडा प्रखंड मुख्यालय की दूरी ज़्यादा नहीं है मगर ग्रामीणों का कहना है कि यहां से साइकिल पर जाने में एक घंटा लग जाता है.
गांव के रास्ते अगर अगल-बगल देखें, तो जो बात ध्यान में आती है वह है सफ़ाचट होते पहाड़.
गंजे होते पहाड़ और बदहाल सड़क के बीच की कड़ी वे डम्पर हैं, जो बेसाख्ता इन जंगलों में आते और जाते हैं. और सड़क को साइकिल चलाने लायक़ भी नहीं छोड़ते.
कमल गजभिए और अन्य ग्रामीणों का कहना है, "सब कुछ अवैध है और सरकारी कारिंदों की मिलीभगत से ही चल रहा है.’’
बस्तर में नक्सल विरोधी अभियान में तैनात एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का कहना है कि नोटा के प्रयोग के लिए अधिकारियों से ज़्यादा माओवादियों ने ही लोगों को जागृत किया है.
हालांकि कुम्बली के लोग इस बात को निराधार बताते हैं. उनका कहना है कि उन्होंने नोटा का प्रयोग लोकतंत्र से दुखी होकर ही किया है. मगर शायद ये अफ़सरों का ख़ौफ़ ही है कि कोई भी इस गांव में यह कहने आगे नहीं आ रहा कि उसने भी नोटा का प्रयोग किया है.
फ़र्क किसे पड़ता है?
गांव वाले हैरान हैं कि इतने सारे लोगों ने नोटा का बटन दबाया, मगर इसके बावजूद सरकार के किसी भी नुमाइंदे ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि कुम्बली के लोगों ने आख़िर ऐसा किया क्यों.इस गांव की बदहाली ग़ौर करने वाली है क्योंकि यह इतना भी दूर नहीं है जहां तक विकास की किरणें न पहुँच सकें.
सुनील कुजूर, मुख्य चुनाव अधिकारी
यह सच है कि राज्य विधानसभा
चुनाव में चार लाख से ज़्यादा वोट नोटा के तहत पड़े और सबसे ज़्यादा नोटा के
तहत वोट आदिवासी बहुल बस्तर संभाग में पड़े. इस बारे में नेताओं और
राजनीतिक दलों को पता लगाना चाहिए. लोगों ने अज्ञानता में वोट डाला या किसी
के कहने पर, इसका आकलन नहीं हो सका. मगर कुछ तो बात रही कि मैदानी इलाक़ों
में नोटा के तहत कम वोट पड़े जबकि जंगलों और पहाड़ी इलाक़ों में तुलनात्मक
रूप से ज़्यादा पड़े.
मगर कोई उनकी एक नहीं सुनता. मगर मैंने लोगों से पूछा कि आखिर नेताओं के प्रति इतनी नाराज़गी और लोकतंत्र के लिए इतनी उदासीनता क्यों?
इस पर गजभिए कहते हैं, "इसमें मैं-मैं और तू-तू ही है. लोकतंत्र में आज सिर्फ़ पैसा ही मायने रखता है. जिसके पास बाहुबल है और पैसा है, वही यहां का नेता है."
वे कहते हैं, "पैसे के बल पर अगर किसी जानवर को भी खड़ा कर दिया जाए, तो वह भी यहां का नेता बन सकता है और कुर्सी हासिल कर सकता है."
वह आगे कहते हैं, "जिसके पास पैसा नहीं है वो बस्तर में नेता नहीं बन सकता. कोई नेता ऐसा नहीं जिसकी दुम पे पैसा नहीं. चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल का क्यों न हो."
कुम्बली के रहने वालों का कहना है कि 26 मार्च से नेताओं का आना शुरू हुआ, जो मतदान के दिन यानी 10 अप्रैल तक ही रहेगा. 11 अप्रैल से किसी भी राजनीतिक दल का कोई भी नेता लोगों का हालचाल जानने नहीं आएगा.
सड़क और बुनियादी चीज़ों के लिए लंबे संघर्ष के बीच एक बात तो इन सब ग्रामीणों के समझ में आ गई है.
वह यह कि इस इलाक़े से चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों की फ़ेहरिस्त लंबी ज़रूर है. मगर, 'इनमें से कोई नहीं' (नन आफ़ द अबव) ही है, जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया का एक हथियार बन सके.
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