Sunday 6 April 2014

STORY ON 1971 INDIA PAKISTAN WAR: कैसे चुकाया यहया ख़ां ने मानेकशॉ का क़र्ज़?.. मानेकशॉ और यहया ख़ां अपने अपने देशों के सेनाध्यक्ष थे.::::वो तीन मिनट का हमला, जिससे बना बांग्लादेश...:::: हिली की सबसे ख़ूनी लड़ाई ....जब भारतीय मेजर ने ख़ुद अपना पैर काटा:::: तीस मिनट में हथियार डालिए वर्ना....

STORY ON 1971 INDIA PAKISTAN WAR: कैसे चुकाया यहया ख़ां ने मानेकशॉ का क़र्ज़?.. मानेकशॉ और यहया ख़ां अपने अपने देशों के सेनाध्यक्ष थे.::::वो तीन मिनट का हमला, जिससे बना बांग्लादेश...:::: हिली की सबसे ख़ूनी लड़ाई ....जब भारतीय मेजर ने ख़ुद अपना पैर काटा:::: तीस मिनट में हथियार डालिए वर्ना....

कैसे चुकाया यहया ख़ां ने मानेकशॉ का क़र्ज़?...जब पाकितान और भारत में युद्ध हुआ तो मानेकशॉ और यहया ख़ां अपने अपने देशों के सेनाध्यक्ष थे.


सैम मानेक शॉ
उनका पूरा नाम सैम होरमूज़जी फ़्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ था लेकिन शायद ही कभी उनके इस नाम से पुकारा गया. उनके दोस्त, उनकी पत्नी, उनके नाती, उनके अफ़सर या उनके मातहत या तो उन्हें सैम कह कर पुकारते थे या "सैम बहादुर".
सैम को सबसे पहले शोहरत मिली साल 1942 में. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान बर्मा के मोर्चे पर एक जापानी सैनिक ने अपनी मशीनगन की सात गोलियां उनकी आंतों, जिगर और गुर्दों में उतार दीं.
उनकी जीवनी लिखने वाले मेजर जनरल वीके सिंह ने बताया, "उनके कमांडर मेजर जनरल कोवान ने उसी समय अपना मिलिट्री क्रॉस उतार कर कर उनके सीने पर इसलिए लगा दिया क्योंकि मृत फ़ौजी को मिलिट्री क्रॉस नहीं दिया जाता था."
जब मानेकशॉ घायल हुए थे तो आदेश दिया गया था कि सभी घायलों को उसी अवस्था में छोड़ दिया जाए क्योंकि अगर उन्हें वापस लाया लाया जाता तो पीछे हटती बटालियन की गति धीमी पड़ जाती. लेकिन उनका अर्दली सूबेदार शेर सिंह उन्हें अपने कंधे पर उठा कर पीछे लाया.
सैम की हालत इतनी ख़राब थी कि डॉक्टरों ने उन पर अपना समय बरबाद करना उचित नहीं समझा. तब सूबेदार शेर सिंह ने डॉक्टरों की तरफ़ अपनी भरी हुई राइफ़ल तानते हुए कहा था, "हम अपने अफ़सर को जापानियों से लड़ते हुए अपने कंधे पर उठा कर लाए हैं. हम नहीं चाहेंगे कि वह हमारे सामने इसलिए मर जाएं क्योंकि आपने उनका इलाज नहीं किया. आप उनका इलाज करिए नहीं तो मैं आप पर गोली चला दूंगा."

डॉक्टर ने अनमने मन से उनके शरीर में घुसी गोलियाँ निकालीं और उनकी आंत का क्षतिग्रस्त हिस्सा काट दिया. आश्चर्यजनक रूप से सैम बच गए. पहले उन्हें मांडले ले जाया गया, फिर रंगून और फिर वापस भारत.

'कोई पीछे नहीं हटेगा'

सैम मानेक शॉ, इंदिरा गांधी
साल 1946 में लेफ़्टिनेंट कर्नल सैम मानेकशॉ को सेना मुख्यालय दिल्ली में तैनात किया गया. 1948 में जब वीपी मेनन कश्मीर का भारत में विलय कराने के लिए महाराजा हरि सिंह से बात करने श्रीनगर गए तो सैम मानेकशॉ भी उनके साथ थे.
1962 में चीन से युद्ध हारने के बाद सैम को बिजी कौल के स्थान पर चौथी कोर की कमान दी गई. पद संभालते ही सैम ने सीमा पर तैनात सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा था, "आज के बाद आप में से कोई भी जब तक पीछे नहीं हटेगा, जब तक आपको इसके लिए लिखित आदेश नहीं मिलते. ध्यान रखिए यह आदेश आपको कभी भी नहीं दिया जाएगा."
उसी समय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और रक्षा मंत्री यशवंतराव चव्हाण ने सीमा क्षेत्रों का दौरा किया था. नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी भी उनके साथ थीं.
सैम के एडीसी ब्रिगेडियर बहराम पंताखी अपनी किताब सैम मानेकशॉ– द मैन एंड हिज़ टाइम्स में लिखते हैं, "सैम ने इंदिरा गाँधी से कहा था कि आप ऑपरेशन रूम में नहीं घुस सकतीं क्योंकि आपने गोपनीयता की शपथ नहीं ली है. इंदिरा को तब यह बात बुरी भी लगी थी लेकिन सौभाग्य से इंदिरा गांधी और मानेकशॉ के रिश्ते इसकी वजह से ख़राब नहीं हुए थे."

शरारती सैम

सैम मानेक शॉ
सार्वजनिक जीवन में हँसी मज़ाक के लिए मशहूर सैम अपने निजी जीवन में भी उतने ही अनौपचारिक और हंसोड़ थे.
उनकी बेटी माया दारूवाला ने बताया, "लोग सोचते हैं कि सैम बहुत बड़े जनरल हैं, उन्होंने कई लड़ाइयां लड़ी हैं, उनकी बड़ी-बड़ी मूंछें हैं तो घर में भी उतना ही रौब जमाते होंगे. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था. वह बहुत खिलंदड़ थे, बच्चे की तरह. हमारे साथ शरारत करते थे. हमें बहुत परेशान करते थे. कई बार तो हमें कहना पड़ता था कि डैड स्टॉप इट. जब वो कमरे में घुसते थे तो हमें यह सोचना पड़ता था कि अब यह क्या करने जा रहे हैं."

रक्षा सचिव से भिड़ंत

शरारतें करने की उनकी यह अदा, उन्हें लोकप्रिय बनाती थीं लेकिन जब अनुशासन या सैनिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच संबंधों की बात आती थी तो सैम कोई समझौता नहीं करते थे.
सैम मानेक शॉ
उनके मिलिट्री असिस्टेंट रहे लेफ़्टिनेंट जनरल दीपेंदर सिंह एक किस्सा सुनाते हैं, "एक बार सेना मुख्यालय में एक बैठक हो रही थी. रक्षा सचिव हरीश सरीन भी वहाँ मौजूद थे. उन्होंने वहां बैठे एक कर्नल से कहा, यू देयर, ओपन द विंडो. वह कर्नल उठने लगा. तभी सैम ने कमरे में प्रवेश किया. रक्षा सचिव की तरफ मुड़े और बोले, सचिव महोदय, आइंदा से आप मेरे किसी अफ़सर से इस टोन में बात नहीं करेंगे. यह अफ़सर कर्नल है. यू देयर नहीं."
उस ज़माने के बहुत शक्तिशाली आईसीएस अफ़सर हरीश सरीन को उनसे माफ़ी मांगनी पड़ी.

कपड़ों के शौकीन

मानेकशॉ को अच्छे कपड़े पहनने का शौक था. अगर उन्हें कोई निमंत्रण मिलता था जिसमें लिखा हो कि अनौपचारिक कपड़ों में आना है तो वह निमंत्रण अस्वीकार कर देते थे.
दीपेंदर सिंह याद करते हैं, "एक बार मैं यह सोच कर सैम के घर सफ़ारी सूट पहन कर चला गया कि वह घर पर नहीं हैं और मैं थोड़ी देर में श्रीमती मानेकशॉ से मिल कर वापस आ जाऊंगा. लेकिन वहां अचानक सैम पहुंच गए. मेरी पत्नी की तरफ़ देख कर बोले, तुम तो हमेशा की तरह अच्छी लग रही हो.लेकिन तुम इस "जंगली" के साथ बाहर आने के लिए तैयार कैसे हुई, जिसने इतने बेतरतीब कपड़े पहन रखे हैं?"
सैम चाहते थे कि उनके एडीसी भी उसी तरह के कपड़े पहनें जैसे वह पहनते हैं, लेकिन ब्रिगेडियर बहराम पंताखी के पास सिर्फ़ एक सूट होता था. एक बार जब सैम पूर्वी कमान के प्रमुख थे, उन्होंने अपनी कार मंगाई और एडीसी बहराम को अपने साथ बैठा कर पार्क स्ट्रीट के बॉम्बे डाइंग शो रूम चलने के लिए कहा. वहां ब्रिगेडियर बहराम ने उन्हें एक ब्लेजर और ट्वीड का कपड़ा ख़रीदने में मदद की.
सैम ने बिल दिया और घर पहुंचते ही कपड़ों का वह पैकेट एडीसी बहराम को पकड़ा कर कहा,"इनसे अपने लिए दो कोट सिलवा लो."

इदी अमीन के साथ भोज

सैम मानेक शॉ
एक बार युगांडा के सेनाध्यक्ष इदी अमीन भारत के दौरे पर आए. उस समय तक वह वहां के राष्ट्रपति नहीं बने थे. उनकी यात्रा के आखिरी दिन अशोक होटल में सैम मानेकशॉ ने उनके सम्मान में भोज दिया, जहां उन्होंने कहा कि उन्हें भारतीय सेना की वर्दी बहुत पसंद आई है और वो अपने साथ अपने नाप की 12 वर्दियां युगांडा ले जाना चाहेंगे.
सैम के आदेश पर रातोंरात कनॉट प्लेस की मशहूर दर्ज़ी की दुकान एडीज़ खुलवाई गई और करीब बारह दर्ज़ियों ने रात भर जाग कर इदी अमीन के लिए वर्दियां सिलीं.

सैम के ख़र्राटे

सैम को खर्राटे लेने की आदत थी. उनकी बेटी माया दारूवाला कहती है कि उनकी मां सीलू और सैम कभी भी एक कमरे में नहीं सोते थे क्योंकि सैम ज़ोर-ज़ोर से खर्राटे लिया करते थे. एक बार जब वह रूस गए तो उनके लाइजन ऑफ़िसर जनरल कुप्रियानो उन्हें उनके होटल छोड़ने गए.
सैम मानेकशॉ
जब वह विदा लेने लगे तो सीलू ने कहा, "मेरा कमरा कहां है?"
रूसी अफ़सर परेशान हो गए. सैम ने स्थिति संभाली, असल में मैं ख़र्राटे लेता हूँ और मेरी बीवी को नींद न आने की बीमारी है. इसलिए हम लोग अलग-अलग कमरों में सोते हैं. यहां भी सैम की मज़ाक करने की आदत नहीं गई.
रूसी जनरल के कंधे पर हाथ रखते हुए उनके कान में फुसफुसा कर बोले, "आज तक जितनी भी औरतों को वह जानते हैं, किसी ने उनके ख़र्राटा लेने की शिकायत नहीं की है सिवाए इनके!"
1971 की लड़ाई में इंदिरा गांधी चाहती थीं कि वह मार्च में ही पाकिस्तान पर चढ़ाई कर दें लेकिन सैम ने ऐसा करने से इनकार कर दिया क्योंकि भारतीय सेना हमले के लिए तैयार नहीं थी.
इंदिरा गांधी इससे नाराज़ भी हुईं. मानेकशॉ ने पूछा कि आप युद्ध जीतना चाहती हैं या नहीं. उन्होंने कहा, "हां."
इस पर मानेकशॉ ने कहा, मुझे छह महीने का समय दीजिए. मैं गारंटी देता हूं कि जीत आपकी होगी.
इंदिरा गांधी के साथ उनकी बेतकल्लुफ़ी के कई किस्से मशहूर हैं. मेजर जनरल वीके सिंह कहते हैं, "एक बार इंदिरा गांधी जब विदेश यात्रा से लौटीं तो मानेकशॉ उन्हें रिसीव करने पालम हवाई अड्डे गए. इंदिरा गांधी को देखते ही उन्होंने कहा कि आपका हेयर स्टाइल ज़बरदस्त लग रहा है. इस पर इंदिरा गांधी मुस्कराईं और बोलीं, और किसी ने तो इसे नोटिस ही नहीं किया."

टिक्का ख़ां से मुलाकात

सैम मानेक शॉ
(लाहौर में फ़ील्ड मार्शल मानेकशॉ का स्वागत करते जनरल टिक्का ख़़ां)
पाकिस्तान के साथ लड़ाई के बाद सीमा के कुछ इलाकों की अदलाबदली के बारे में बात करने सैम मानेकशॉ पाकिस्तान गए. उस समय जनरल टिक्का पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष हुआ करते थे.
पाकिस्तान के कब्ज़े में भारतीय कश्मीर की चौकी थाकोचक थी जिसे छोड़ने के लिए वह तैयार नहीं था. जनरल एसके सिन्हा बताते है कि टिक्का ख़ां सैम से आठ साल जूनियर थे और उनका अंग्रेज़ी में भी हाथ थोड़ा तंग था क्योंकि वो सूबेदार के पद से शुरुआत करते हुए इस पद पर पहुंचे थे.
उन्होंने पहले से तैयार वक्तव्य पढ़ना शुरू किया, "देयर आर थ्री ऑलटरनेटिव्स टू दिस."
इस पर मानेकशॉ ने उन्हें तुरंत टोका, "जिस स्टाफ़ ऑफ़िसर की लिखी ब्रीफ़ आप पढ़ रहे हैं उसे अंग्रेज़ी लिखनी नहीं आती है. ऑल्टरनेटिव्स हमेशा दो होते हैं, तीन नहीं. हां संभावनाएं या पॉसिबिलिटीज़ दो से ज़्यादा हो सकती हैं."
सैम की बात सुन कर टिक्का इतने नर्वस हो गए कि हकलाने लगे... और थोड़ी देर में वो थाकोचक को वापस भारत को देने को तैयार हो गए.

ललित नारायण मिश्रा के दोस्त

बहुत कम लोगों को पता है कि सैम मानेकशॉ की इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल के एक सदस्य ललित नारायण मिश्रा से बहुत गहरी दोस्ती थी.
सैम के मिलिट्री असिस्टेंट जनरल दीपेंदर सिंह एक दिलचस्प किस्सा सुनाते हैं, "एक शाम ललित नारायण मिश्रा अचानक मानेकशॉ के घर पहुंचे. उस समय दोनों मियां-बीवी घर पर नहीं थे. उन्होंने कार से एक बोरा उतारा और सीलू मानेकशॉ के पलंग के नीचे रखवा दिया और सैम को इसके बारे में बता दिया. सैम ने पूछा कि बोरे में क्या है तो ललित नारायण मिश्र ने जवाब दिया कि इसमें पार्टी के लिए इकट्ठा किए हुए रुपए हैं. सैम ने पूछा कि आपने उन्हें यहां क्यों रखा तो उनका जवाब था कि अगर इसे घर ले जाऊंगा तो मेरी पत्नी इसमें से कुछ पैसे निकाल लेगी. सीलू मानेकशॉ को तो पता भी नहीं चलेगा कि इस बोरे में क्या है. कल आऊंगा और इसे वापस ले जाऊंगा."
दीपेंदर सिंह बताते हैं कि ललित नारायण मिश्रा को हमेशा इस बात का डर रहता था कि कोई उनकी बात सुन रहा है. इसलिए जब भी उन्हें सैम से कोई गुप्त बात करनी होती थी वह उसे कागज़ पर लिख कर करते थे और फिर कागज़ फाड़ दिया करते थे.

मानेकशॉ और यहया ख़ां

सैम मानेक शॉ
मानेक शॉ अपनी पत्नी और बेटी के साथ.
सैम की बेटी माया दारूवाला कहती हैं कि सैम अक्सर कहा करते थे कि लोग सोचते हैं कि जब हम देश को जिताते हैं तो यह बहुत गर्व की बात है लेकिन इसमें कहीं न कहीं उदासी का पुट भी छिपा रहता है क्योंकि लोगों की मौतें भी हुई होती हैं.
सैम के लिए सबसे गर्व की बात यह नहीं थी कि भारत ने उनके नेतृत्व में पाकिस्तान पर जीत दर्ज की. उनके लिए सबसे बड़ा क्षण तब था जब युद्ध बंदी बनाए गए पाकिस्तानी सैनिकों ने स्वीकार किया था कि उनके साथ भारत में बहुत अच्छा व्यवहार किया गया था.
साल 1947 में मानेकशॉ और यहया ख़ां दिल्ली में सेना मुख्यालय में तैनात थे. यहया ख़ां को मानेकशॉ की मोटरबाइक बहुत पसंद थी. वह इसे ख़रीदना चाहते थे लेकिन सैम उसे बेचने के लिए तैयार नहीं थे.
यहया ने जब विभाजन के बाद पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया तो सैम उस मोटरबाइक को यहया ख़ां को बेचने के लिए तैयार हो गए. दाम लगाया गया 1,000 रुपए.
यहया मोटरबाइक पाकिस्तान ले गए और वादा कर गए कि जल्द ही पैसे भिजवा देंगे. सालों बीत गए लेकिन सैम के पास वह चेक कभी नहीं आया.
बहुत सालों बाद जब पाकितान और भारत में युद्ध हुआ तो मानेकशॉ और यहया ख़ां अपने अपने देशों के सेनाध्यक्ष थे. लड़ाई जीतने के बाद सैम ने मज़ाक किया, "मैंने यहया ख़ां के चेक का 24 सालों तक इंतज़ार किया लेकिन वह कभी नहीं आया. आखिर उन्होंने 1947 में लिया गया उधार अपना देश दे कर चुकाया."

वो तीन मिनट का हमला, जिससे बना बांग्लादेश


विंग कमांडर बी के बिश्नोई
(बांग्लादेश की स्वतंत्रता में अहम भूमिका निभाने वाले भारतीय वायुसेना के विंग कमांडर बी के बिश्नोई अपने फ़ाइटर विमान के साथ.)
14 दिसंबर 1971. समय लगभग साढ़े दस बजे. स्थान गुवाहाटी का एयरबेस. विंग कमांडर बीके बिश्नोई पूर्वी पाकिस्तान में एक अभियान के बाद लौटे ही थे कि ग्रुप कैप्टन वोलेन ने उन्हें बताया कि उन्हें तुरंत एक अत्यंत महत्वपूर्ण अभियान पर निकलना है.
ग्यारह बज कर बीस मिनट पर उन्हें ढाका के सर्किट हाउस में चल रही एक महत्वपूर्ण बैठक के दौरान बम गिरा कर उसमें व्यवधान डालना है.

हुआ ये था कि सुबह भारतीय वायु सेना ने ढाका गवर्नर हाउस और पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय के बीच एक संवाद को बीच में ही सुना था जिसमें कहा गया था कि पूर्वी पाकिस्तान के गवर्नर साढ़े ग्यारह बजे एक मीटिंग लेने वाले हैं जिसमें पाकिस्तानी प्रशासन के सारे आला अधिकारी भाग लेंगे.
वायुसेना मुख्यालय ने पूर्वी कमान को आदेश दिया कि इस बैठक के दौरान सर्किट हाउस पर बमबारी की जाए ताकि प्रशासन की ‘निर्णय लेने की क्षमता’ ही समाप्त हो जाए.

सर्किट हाउस की लोकेशन का कोई नक्शा ऑपरेशन रूम में नहीं था. नक्शे के नाम पर उन्हें एक टूरिस्ट मैप दिया गया जिसे बिश्नोई ने अपनी साइड पॉकेट में खोंस लिया.

गवर्मेंट हाउस नया लक्ष्य बना

बिश्नोई ने बताया, "उस समय हमारे पास हमला करने के लिए सिर्फ़ 24 मिनट थे. उनमें से गुवाहाटी से ढाका तक पहुंचने तक का समय ही 21 मिनट था. तो कुल मिला कर हमारे पास सिर्फ़ तीन मिनट बचते थे. मैं अपने मिग 21 का इंजिन स्टार्ट कर उसका हुड बंद ही कर रहा था कि मैंने देखा कि मेरी स्कवॉड्रन का एक अफ़सर एक कागज़ लहराता हुआ मेरी तरफ़ दौड़ा चला आ रहा है."
उस अफ़सर ने बिश्नोई को बताया कि अब टारगेट सर्किट हाउस न हो कर गवर्मेंट हाउस कर दिया गया है. बिश्नोई ने उससे पूछा कि ये है कहाँ? तो उसका जवाब था कि आप को ही पता करना है कि वो कहाँ है.
बिश्नोई कहते हैं कि इतना समय भी नहीं था कि विमान को रोक कर टारगेट को ढ़ूँढ़ने की बात सोची जाती.
उन्होंने बताया,"मैंने अपनी टीम के किसी पायलट को नहीं बताया कि टारगेट को बदल दिया गया है. मैं रेडियो पर ही उन्हें ये बता सकता था लेकिन अगर मैं ऐसा करता तो पूरी दुनिया को पता चल जाता कि हम क्या करने जा रहे हैं."

बर्मा शेल का टूरिस्ट मैप

इस बीच गुवहाटी से 150 किलोमीटर पश्चिम में हाशिमारा में विंग कमांडर आरवी सिंह ने 37 स्कवॉड्रन के सीओ विंग कमांडर एसके कौल को बुला कर ब्रीफ़ किया कि उन्हें भी ढाका के गवर्मेंट हाउस को ध्वस्त करना है. कौल का पहला सवाल था कि गवर्मेंट हाउस कहाँ है? इसके जवाब में उन्हें बर्मा शेल पेट्रोलियम कंपनी की तरफ़ से जारी किया गया एक दो इंच का टूरिस्ट मैप दिया गया.

इस बीच विश्नोई को गुवहाटी से उड़े बीस मिनट हो चुके थे. उन्होंने अनुमान लगाया कि वो तीन मिनट के अंदर अपने लक्ष्य तक पहुंच जाएंगे.
उन्होंने वो नक्शा अपनी जेब से निकाला और उसको देखने के बाद उन्होंने अपने साथी पायलेट्स को रेडियो पर संदेश भेजा कि ढाका हवाई अड्डे के दक्षिण में लक्ष्य को ढ़ूंढ़ने की कोशिश करें. अब ये लक्ष्य सर्किट हाउस न हो कर गवर्मेंट हाउस है.
गवर्नर हाउस
(भारतीय वायुसेना के हमले के बाद तबाह हुआ ढाका का गवर्नर हाउस.)
उनके नंबर तीन पायलट विनोद भाटिया ने सबसे पहले गवर्मेंट हाउस को ढूंढ़ा. इसके चारों तरफ हरी घास का एक कंपाउंड था जैसा कि भारत के राज्यों की राजधानियों में स्थित राज भवनों में हुआ करता है.
बिश्नोई याद करते हैं, "मैं यह सुनिश्चित करने के लिए अपने मिग को बहुत नीचे ले आया कि हमारा लक्ष्य बिल्कुल सही है या नहीं. मैंने देखा वहाँ बहुत सारी कारें आ जा रही हैं, बहुत सारे सैनिक वाहन भी खड़े हुए हैं और पाकिस्तान का झंडा गुंबद पर लहरा रहा है. मैंने अपने साथियों को बताया कि हमें यहीं हमला करना है."

होटल में शरण की कोशिश

उस समय गवर्नर हाउस में गवर्नर डॉक्टर एएम मलिक अपने मंत्रिमंडल के साथियों से मंत्रणा में व्यस्त थे. तभी संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि जॉन केली वहाँ पहुंचे. मलिक ने मंत्रिमंडल की बैठक बीच में ही छोड़ कर कैली को रिसीव किया.

मलिक ने केली से पूछा कि वर्तमान परिस्थितियों के बारे में उनका आकलन क्या है? केली का जवाब था आपको और आपके मंत्रिमडल के लोगों को मुक्तिवाहिनी अपना निशाना बना सकती है.
केली ने उन्हें सलाह दी कि आप तय किए गए तटस्थ क्षेत्र इंटरकॉन्टिनेंटल होटल में शरण ले सकते हैं लेकिन ऐसा करने से पहले आपको और आपके मंत्रिमंडल के सदस्यों को अपने पदों से इस्तीफ़ा देना होगा.
मलिक का जवाब था कि वो इस बारे में सोच रहे हैं, लेकिन ऐसा इसलिए नहीं करना चाहते कि कहीं इतिहास ये न कहे कि वो बीच लड़ाई में मैदान छोड़ कर भाग गए.
मलिक ने केली से पूछा कि क्या वो अपनी ऑस्ट्रियन पत्नी और बेटी को होटल भेज सकते हैं? केली ने कहा कि वो ऐसा कर तो सकते हैं लेकिन अंतर्राष्ट्रीय प्रेस को इसका आभास हो जाएगा और वो ये खबर ज़रूर फैलाएंगे कि गवर्नर का भविष्य से विश्वास उठ गया है इसलिए उन्होंने अपने परिवार को होटल की शरण में भेज दिया है.

जीप के नीचे शरण

अभी ये बात चल ही रही थी कि लगा कि गवर्नर हाउस में जैसे भूचाल आ गया हो. बिश्नोई के छोड़े रॉकेट भवन पर गिरने शुरू हो गए थे.
पहले राउंड में हर पायलट ने 16 रॉकेट दागे. बिश्नोई ने मुख्य गुंबद के नीचे वाले कमरे को अपना निशाना बनाया. भवन के अंदर हाहाकार मच गया. केली और उनके साथी व्हीलर जंगले से बाहर कूदे और बचने के लिए बाहर पार्क एक जीप के नीचे छिप गए.
विंग कमांडर एस के कौल
(1971 के बांग्लादेश युद्ध में अहम भूमिका निभाने वाले विंग कमांडर एस के कौल बाद में भारतीय वायुसेना के अध्यक्ष बने.)
जॉन केली लिखते हैं, "हमले के दौरान मेरा मुख्य सचिव मुज़फ़्फ़र हुसैन से सामना हुआ. उनका रंग पीला पड़ा हुआ था. मेरे सामने से मेजर जनरल राव फ़रमान अली दौड़ते हुए निकले. वो भी बचने के लिए कोई आड़ ढ़ूँढ़ रहे थे. दौड़ते दौड़ते उन्होंने मुझसे कहा, भारतीय हमारे साथ ऐसा क्यों कर रहे रहे हैं ?"( जॉन केली, थ्री डेज़ इन ढाका, 1971, पेज 649)
विंग कमांडर बिश्नोई के नेतृत्व में उड़ रहे चार मिग 21 विमानों ने धुएं और धूल के ग़ुबार से घिरे गवर्नर हाउस पर 128 रॉकेट गिराए. जैसे ही वो वहाँ से हटे, फ़्लाइट लेफ़्टिनेंट जी बाला के नेतृत्व में 4 स्कवॉड्रन के दो और मिग 21 वहाँ बमबारी करने पहुँच गए. बाला और उनके नंबर 2 हेमू सरदेसाई ने गवर्नर हाउस के दो चक्कर लगाए और हर बार चार चार रॉकेट भवन पर दागे.

45 मिनट में तीसरा हमला

मिग 21 के 6 हमलों और 192 रॉकेट दागे जाने के बावजूद गवर्नर हाउस धराशाई नहीं हुआ था, हालांकि उसकी कई दीवारें, खिड़कियाँ और दरवाज़े इस हमले को बर्दाश्त नहीं कर पाए थे. जैसे ही हमला समाप्त हुआ केली और उनके साथी एक मील दूर संयुक्त राष्ट्र संघ के दफ़्तर रवाना हो गए.
वहाँ पर मौजूद लंदन ऑब्ज़र्वर के संवाददाता गाविन यंग ने केली को सलाह दी कि दोबारा गवर्नर हाउस चल कर वहाँ हो रहे नुकसान का जायज़ा लिया जाए. गाविन का तर्क था कि भारतीय विमान इतनी जल्दी वापस नहीं लौट कर आएंगे और उन्हें दोबारा ईंधन और हथियार भरने में कम से कम एक घंटा लगेगा.
जब तक केली और गाविन दोबारा गवर्नर हाउस पहुंचे मलिक और उनके सहयोगी भवन के ही एक बंकर में घुस चुके थे. मलिक ने अभी भी इस्तीफ़ा देने के बारे में फ़ैसला नहीं लिया था. वो अभी मंत्रणा कर ही रहे थे कि अचानक ऊपर से गोलियों की बौछार की आवाज़ सुनाई दी.
भारतीय वायु सेना 45 मिनटों के अंदर गवर्मेंट हाउस पर अपना तीसरा हमला कर रही थी.

खिड़की पर निशाना

इस बार हमले की कमान थी हंटर उड़ा रहे विंग कमांडर एसके कौल और फ़्लाइंग ऑफ़िसर हरीश मसंद के पास. कौल ने जो बाद में वायुसेनाध्यक्ष बने,  बताया, "हमें ये ही नहीं पता था कि ढाका में ये गवर्मेंट हाउस कहाँ था. ढाका कलकत्ता और बंबई की तरह बड़ा शहर था. हमें ढाका शहर का बर्मा शेल का एक पुराना रोडमैप दिया गय़ा था. उससे हमें ज़बरदस्त मदद मिली.''
विंग कमांडर एस के कौल
(बांग्लादेश युद्ध में उल्लेखनीय योगदान के लिए विंग कमांडर एस के कौल को महावीर चक्र से सम्मानित किया गया.)
कौल की अगुवाई में दल ने इसका भी ध्यान रखा कि हमले में आस पड़ोस की आबादी का ज़्यादा नुकसान नहीं हो पाए.
उन्होंने बताया, "हमने पहले बिल्डिंग को पास किया ताकि आसपास खड़े लोग तितर बितर हो जाएं और उन्हें नुकसान न पहुंचे. हमने रॉकेट अटैक के साथ साथ गन अटैक भी किए और अपने अटैक को हाइट पर रखा ताकि हम उनके छोटे हथियारों की पहुँच से बाहर रह सकें."
विंग कमांडर कौल के साथ गए उनके विंग मैन फ़्लाइंग ऑफ़िसर हरीश मसंद ने भी  बताया, "मुझे याद है गवर्मेंट हाउस के सामने पहली मंज़िल पर एक बड़ा दरवाज़ा या खिड़की सरीखी चीज़ थी. उस पर हमने ये सोच कर निशाना लगाया कि वहाँ कोई मीटिंग हॉल हो सकता है. हमले के बाद जब हम लोग नीचे उड़ते हुए इंटरकॉन्टिनेंटल होटल के बगल से गुज़र रहे थे तो हमने देखा कि उसकी छत, टैरेस और बालकनी पर बहुत से लोग इस नज़ारे को देख रहे थे."

कांपते हाथों से इस्तीफ़ा

उधर गवर्नर हाउस में मौजूद गाविन यंग ने वायर पर संवाद लिखा, "भारतीय जेटों ने गरजते हुए हमला किया. धरती फटी और हिली भी. मलिक के मुंह से निकला-अब हम भी शरणार्थी हैं. केली ने मेरी तरफ देखा मानो बिना बोले पूछ रहे हों आखिर हमें यहाँ दोबारा आने की ज़रूरत क्या थी. अचानक मलिक ने एक पेन निकाला और कांपते हाथों से एक काग़ज़ पर कुछ लिखा. केली और मैंने देखा कि ये मलिक का इस्तीफ़ा था जिसे उन्होंने राष्ट्रपति याहया ख़ाँ को संबोधित किया था."
फ़्लाइंग ऑफ़िसर हरीश मसंद
(हमले में भाग लेने वाले फ़्लाइंग ऑफ़िसर हरीश मसंद- बीच में)
"अभी हमला जारी ही था कि मलिक ने अपने जूते और मोज़े उतारे, बग़ल के गुसलखाने में अपने हाथ पैर धोए, रूमाल से अपना सिर ढका और बंकर के एक कोने में नमाज़ पढ़ने लगे. ये गवर्मेंट हाउस का अंत था. ये पूर्वी पाकिस्तान की आखिरी सरकार का भी अंत था."( गाविन यंग, वर्लड्स अपार्ट, ट्रेवेल्स इन वार एंड पीस)

इस हमले के तुरंत बाद गवर्नर मलिक ने अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों के साथ इंटरकॉन्टिनेंटल होटल का रुख़ किया. इस हमले ने युद्ध के समय को तो कम किया ही और दूसरे विश्व युद्ध में बर्लिन की तरह गली गली में लड़ने की नौबत भी नहीं आई.
दो दिन बाद ही पाकिस्तानी सेना के 93,000 सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने हथियार डाल दिए और एक मुक्त देश के तौर पर बांग्लादेश के अभ्युदय का रास्ता साफ़ हो गया. इस युद्ध में असाधारण वीरता दिखाने के लिए विंग कमांडर एसके कौल को महावीर चक्र और विंग कमांडर बीके बिश्नोई और हरीश मसंद को वीर चक्र प्रदान किए गए.


तीस मिनट में हथियार डालिए वर्ना....


1971 के बांग्लादेश युद्ध में पूर्वी कमान के स्टाफ़ ऑफ़िसर मेजर जनरल जेएफ़आर जैकब ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
वह जैकब ही थे जिन्हें मानिकशॉ ने आत्म समर्पण की व्यवस्था करने ढाका भेजा था. उन्होंने ही जनरल नियाज़ी से बात कर उन्हें हथियार डालने के लिए राज़ी किया था. जैकब 1971 के अभियान पर दो पुस्तकें लिख चुके है.
वे गोवा और पंजाब के राज्यपाल भी रह चुके हैं. इस समय वह दिल्ली में सोम विहार के अपने फ़्लैट में रिटायर्ड जीवन जी रहे हैं.  उनसे 40 वर्ष पुराने अभियान पर कई सवाल पूछे.

आम धारणा यह है कि भारत का राजनीतिक नेतृत्व यह चाहता था कि भारतीय सेना अप्रैल 1971 में ही बांग्लादेश के लिए कूच करे लेकिन सेना ने इस फ़ैसले का विरोध किया. इसके पीछे क्या कहानी है?

मानिकशॉ ने अप्रैल के शुरू में मुझे फ़ोन कर कहा कि बांग्लादेश में घुसने की तैयारी करिए क्योंकि सरकार चाहती है कि हम वहाँ तुरंत हस्तक्षेप करें.
मैंने मानिकशॉ के बताने की कोशिश की कि हमारे पास पर्वतीय डिवीजन हैं, हमारे पास कोई पुल नहीं हैं और मानसून भी शुरू होने वाला है. हमारे पास बांग्लादेश में घुसने का सैन्य तंत्र और आधारभूत सुविधाएं नहीं हैं.
अगर हम वहाँ घुसते हैं तो यह पक्का है कि हम वहाँ फँस जाएंगे. इसलिए मैंने मानिकशॉ से कहा कि इसे 15 नवंबर तक स्थगित करिए तब तक शायद ज़मीन पूरी तरह से सूख जाए.

आपने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मानिकशॉ ने अपनी योजना में राजधानी ढाका पर कब्ज़ा करना शामिल नहीं किया था. उनके इस फ़ैसले के पीछे क्या कारण थे?

"मैंने उनसे कहा कि अगर हमें युद्ध जीतना है तो ढाका पर कब्ज़ा करना ही होगा क्योंकि उसका सामरिक महत्व सबसे ज़्यादा है और वह पूर्वी पाकिस्तान का एक तरह से भूराजनीतिक दिल भी है."
मुझे पता नहीं कि इसके पीछे क्या कारण थे. मुझे सिर्फ़ इतना मालूम है कि हमें सिर्फ़ खुलना और चटगाँव पर कब्ज़ा करने के आदेश मिले थे. मेरी उनसे लंबी बहस भी हुई थी. मैंने उनसे कहा था कि खुलना एक मामूली बंदरगाह है.
मैंने उनसे कहा कि अगर हमें युद्ध जीतना है तो ढाका पर कब्ज़ा करना ही होगा क्योंकि उसका सामरिक महत्व सबसे ज़्यादा है और वह पूर्वी पाकिस्तान का एक तरह से भूराजनीतिक दिल भी है.
उनका कहना था कि अगर हम खुलना और चटगाँव ले लेते हैं तो ढाका अपने आप गिर जाएगा. मैंने पूछा कैसे ? यह तर्क चलते रहे और अंतत: हमें खुलना और चटगाँव पर कब्ज़ा करने के ही लिखित आदेश मिले.
एयरमार्शल पीसी लाल इसकी पुष्टि करते हैं. वह कहते हैं कि ढाका पर कब्ज़ा करना कभी भी लक्ष्य नहीं था. लक्ष्य यह था कि निर्वासित सरकार के लिए जितना संभव हो उतनी ज़मीन जीत ली जाए. वह यह भी कहते हैं कि इस अभियान के दौरान सेना मुख्यालय में आपसी सामंजस्य नहीं था.

क्या यह सही है कि अगर पाकिस्तान ने तीन दिसंबर को भारत पर हमला नहीं किया होता तो आपने उन पर चार दिसंबर को हमला बोल दिया होता?

जी यह सही है. मैंने उपसेनाध्यक्ष से मिलकर हमले की तारीख़ पाँच दिसंबर तय की थी लेकिन मानिकशॉ ने इसे एक दिन पहले कर दिया था क्योंकि चार उनका भाग्यशाली अंक था.

पाँच दिसंबर चुनने के लिए कोई ख़ास वजह?

इसकी सिर्फ़ एक ही वजह थी कि तब तक सब कुछ व्यवस्थित किया जा चुका था और हमें आक्रमण शुरू करने के लिए और समय की ज़रूरत नहीं थी.

क्या यह सही है कि इस पूरे युद्ध के दौरान मानिकशॉ को आशंका थी कि चीन भारत पर आक्रमण कर देगा. आपने उनकी जानकारी के बिना चीन सीमा से तीन ब्रिगेड हटा कर बांग्लादेश की लड़ाई में लगा दी थी. जब उनको इसका पता चला तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी?

"हमें पता था कि पाकिस्तान की रणनीति शहरों के रक्षा करने की थी. इसलिए हम उनको बाईपास करते हुए ढाका की तरफ़ आगे बढ़े थे. 13 दिसंबर को अमरीकी विमानवाहक पोत मलक्का की खाड़ी में घुसने वाला था और मुझे मानिकशॉ का आदेश मिला कि हम वापस जाकर उन सभी शहरों पर कब्ज़ा करें जिन्हें हम बीच में बाईपास कर आए थे."
उन्होंने इन ब्रिगेडों को वापस चीन सीमा पर जाने का आदेश दिया. मैंने और इंदर गिल ने मिलकर यह फ़ैसला किया था क्योंकि ढाका के अभियान में और सैनिकों की ज़रूरत थी.
मैं भूटान में तैनात 6 डिवीजन को इस्तेमाल करना चाहता था लेकिन उन्होंने इसकी अनुमति नहीं दी. मैं सैनिकों को नीचे ले आया लेकिन उनको पता चल गया और उन्होंने उनकी वापसी का आदेश दिया. लेकिन हमने उनको वापस नहीं भेजा.

16 दिसंबर से पहले आपको किन-किन मोड़ों से गुज़रना पड़ा?

हमें पता था कि पाकिस्तान की रणनीति शहरों के रक्षा करने की थी. इसलिए हम उनको बाईपास करते हुए ढाका की तरफ़ आगे बढ़े थे. 13 दिसंबर को अमरीकी विमानवाहक पोत मलक्का की खाड़ी में घुसने वाला था और मुझे मानिकशॉ का आदेश मिला कि हम वापस जाकर उन सभी शहरों पर कब्ज़ा करें जिन्हें हम बीच में बाईपास कर आए थे.
हम उस समय ढाका के बाहर खड़े हुए थे और इस आदेश की प्रति उन्होंने हर कोर को भेजी थी. हमने इस आदेश को नज़रअंदाज़ किया और 14 दिसंबर को हमने गवर्नमेंट हाउस पर बमबारी की. गवर्नर ने इस्तीफ़ा दे दिया और नियाज़ी ने संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में युद्ध विराम करने का प्रस्ताव दिया.

16 दिसंबर का दिन याद करिए जब आपके पास मानिकशॉ का फ़ोन आया कि ढाका जाकर आत्मसमर्पण की तैयारी कीजिए.

जनरल जेकब
जनरल जेकब ने पाकिस्तानी सेना के आत्मसमपर्ण पर किताब भी लिखी है
16 दिसंबर को मेरे पास मानिकशॉ का फ़ोन आया कि जेक ढाका जाकर आत्म समर्पण करवाईए. मैं जब ढाका पहुँचा तो पाकिस्तानी सेना ने मुझे लेने के लिए एक ब्रिगेडियर को कार लेकर भेजा हुआ था.
मुक्तिवाहिनी और पाकिस्तानी सेना के बीच लड़ाई जारी थी और गोलियाँ चलने की आवाज़ सुनी जा सकती थी. हम जैसे ही उस कार में आगे बढ़े मुक्ति सैनिकों ने उस पर गोलियाँ चलाई.
मैं उन्हें दोष नहीं दूँगा क्योंकि वह पाकिस्तान सेना की कार थी. मैं हाथ ऊपर उठा कर कार से नीचे कूद पड़ा. वह पाकिस्तानी ब्रिगेडियर को मारना चाहते थे. हम किसी तरह पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय पहुँचे.
जब मैंने नियाज़ी को आत्मसमर्पण का दस्तावेज़ पढ़ कर सुनाया तो वह बोले किसने कहा कि हम आत्मसमर्पण करने जा रहे हैं. आप यहां सिर्फ़ युद्धविराम कराने आए हैं. यह बहस चलती रही. मैंने उन्हें एक कोने में बुलाया और कहा हमने आपको बहुत अच्छा प्रस्ताव दिया है.
इस पर हम वायरलेस से पिछले तीन दिनों से बात करते रहे हैं. हम इससे बेहतर पेशकश नहीं कर सकते. हम यह सुनिश्चित करेंगे कि अल्पसंख्यकों और आपके परिवारों के साथ से अच्छा सुलूक किया जाए और आपके साथ भी एक सैनिक जैसा ही बर्ताव किया जाए.
"जब मैंने नियाज़ी को आत्मसमर्पण का दस्तावेज़ पढ़ कर सुनाया तो वह बोले किसने कहा कि हम आत्मसमर्पण करने जा रहे हैं. आप यहां सिर्फ़ युद्धविराम कराने आए हैं. यह बहस चलती रही. मैंने उन्हें एक कोने में बुलाया और कहा हमने आपको बहुत अच्छा प्रस्ताव दिया है. "
इस पर भी नियाज़ी नहीं माने. मैंने उनसे कहा कि अगर आप आत्मसमर्पण करते हैं तो आपकी और आपके परिवारों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी हमारी होगी लेकिन अगर आप ऐसा नहीं करते तो ज़ाहिर है हम कोई ज़िम्मेदारी नहीं ले सकते. उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.
मैंने उनसे कहा मैं आपको जवाब देने के लिए 30 मिनट देता हूँ. अगर आप इसको नहीं मानते तो मैं लड़ाई फिर से शुरू करने और ढाका पर बमबारी करने का आदेश दे दूँगा. यह कहकर मैं बाहर चला गया. मन ही मन मैंने सोचा कि यह मैंने क्या कर दिया है.
मेरे पास कुछ भी हाथ में नहीं है. उनके पास ढाका में 26400 सैनिक हैं और हमारे पास सिर्फ़ 3000 सैनिक हैं और वह भी ढाका से 30 किलोमीटर बाहर!
अगर वह नहीं कह देते हैं तो मैं क्या करूँगा. मैं 30 मिनट बाद अंदर गया. आत्मसमर्पण दस्तावेज़ मेज़ पर पड़ा हुआ था. मैंने उनसे पूछा क्या आप इसे स्वीकार करते हैं. वह चुप रहे. मैंने उनसे तीन बार यही सवाल पूछा. फिर मैंने वह काग़ज़ मेज़ से उठाया और कहा कि मैं अब यह मान कर चल रहा हूँ कि आप इसे स्वीकार करते हैं.

पाकिस्तानियों के पास ढाका की रक्षा के लिए 30000 सैनिक थे तब भी उन्होंने हथियार क्यों डाले?

"मैं यहाँ पर हमुदुर्रहमान आयोग की एक कार्रवाई के एक अंश को उद्धृत करना चाहूँगा. उन्होंने नियाज़ी से पूछा आपके पास ढाका के अंदर 26400 सैनिक थे जबकि भारत के पास सिर्फ़ 3000 सैनिक थे और आप कम से कम दो हफ़्तों तक और लड़ सकते थे. "
मैं यहाँ पर हमुदुर्रहमान आयोग की एक कार्रवाई के एक अंश को उद्धृत करना चाहूँगा. उन्होंने नियाज़ी से पूछा आपके पास ढाका के अंदर 26400 सैनिक थे जबकि भारत के पास सिर्फ़ 3000 सैनिक थे और आप कम से कम दो हफ़्तों तक और लड़ सकते थे.
सुरक्षा परिषद की बैठक चल रही थी. अगर आप एक दिन और लड़ पाते तो भारत को शायद वापस जाना पड़ता. आपने एक शर्मनाक और बिना शर्त सार्वजनिक आत्मसमर्पण क्यों स्वीकार किया और आपके एडीसी के नेतृत्व में भारतीय सैनिक अधिकारियों को गार्ड ऑफ़ ऑनर क्यों दिया गया?
नियाज़ी का जवाब था, मुझे ऐसा करने के लिए जनरल जेकब ने मजबूर किया. उन्होंने मुझे ब्लैकमेल किया और हमारे परिवारों को संगीन से मारने की धमकी दी. यह पूरी बकवास थी. आयोग ने नियाज़ी को हथियार डालने का दोषी पाया. इसकी वजह से भारत एक क्षेत्रीय महाशक्ति बना और एक नए देश बांग्लादेश का जन्म हो सका.

ऑब्ज़र्वर के गैविन यंग ने सरेंडर लंच का ज़िक्र किया है, जिसमें पाकिस्तानी सेना के उच्चाधिकारी शामिल हुए थे.

मैं गैविन को काफ़ी समय से जानता था. वह मुझसे नियाज़ी के दफ़्तर के बाहर मिले और कहा जनरल मैं बहुत भूखा हूँ. क्या आप मुझे खाने के लिए अंदर बुला सकते हैं? मैंने उन्हे बुला लिया. खाने की मेज़ पर खाना लगा हुआ था ..... काँटे छूरी के साथ जैसे कि मानो पीस टाइम पार्टी हो रही हो.
मैं एक कोने में जाकर खड़ा हो गया. उन्होंने मुझसे खाने के लिए कहा लेकिन मुझसे खाया नहीं गया. गैविन ने इस पर एक लेख लिखा जिस पर उन्हें पुरस्कार भी मिला.

जब आप जनरल नियाज़ी के साथ जनरल अरोड़ा को रिसीव करने ढाका हवाई अड्डे पहुँचे तो वहाँ मुक्तिवाहिनी के कमांडर टाइगर सिद्दीकी भी एक ट्रक में अपने सैनिकों के साथ पहुँचे हुए थे.

"मैंने अपने दोनों सैनिकों को नियाज़ी के सामने खड़ा किया और टाइगर के पास गया. मैंने उनसे हवाई अड्डा छोड़ कर जाने के लिए कहा. उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. मैंने कहा अगर आप नहीं जाते तो मैं आप पर गोली चलवा दूँगा. मैंने अपने सैनिकों से कहा कि वह टाइगर पर अपनी राइफ़लें तान दें. टाइगर सिद्दीकी इसके बाद वहाँ नहीं रुके."
हमारे पास एक भी सैनिक नहीं था. संयोग से मैंने दो पैराट्रूपर्स को अपने साथ रखा हुआ था. सिद्दीकी एक ट्रक भर अपने समर्थकों के साथ वहाँ पहुँच गए. मुझे नहीं पता कि वह वहाँ क्यों आए थे लेकिन ऐसा लग रहा था कि वे नियाज़ी को मारना चाहते थे.
मैंने अपने दोनों सैनिकों को नियाज़ी के सामने खड़ा किया और टाइगर के पास गया. मैंने उनसे हवाई अड्डा छोड़ कर जाने के लिए कहा. उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. मैंने कहा अगर आप नहीं जाते तो मैं आप पर गोली चलवा दूँगा. मैंने अपने सैनिकों से कहा कि वह टाइगर पर अपनी राइफ़लें तान दें. टाइगर सिद्दीकी इसके बाद वहाँ नहीं रुके.

इंदिरा गांधी ने संसद में घोषणा की थी कि पाकिस्तानी सेना ने 4 बजकर 31 मिनट पर हथियार डाले थे लेकिन वास्तव में यह आत्मसमर्पण 4 बज कर 55 मिनट पर हुआ था. इसके पीछे क्या वजह थी?

मुझे पता नहीं कि इसके पीछे क्या वजह थी. शायद किसी ज्योतिषी की सलाह पर ऐसा किया गया होगा. मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर 5 बजने में 5 मिनट कम पर हुए थे. दस्तावेज़ में भी कुछ ग़लतियां थीं. इसलिए दो सप्ताह बाद अरोड़ा और नियाज़ी ने कलकत्ता में दोबारा उन दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर किए.

उस क्षण को याद कीजिए जब नियाज़ी ने अपनी पिस्टल निकाल कर जगजीत सिंह अरोड़ा को पेश की.

मैंने नियाज़ी से तलवार समर्पित करने के लिए कहा. उन्होंने कहा मेरे पास तलवार नहीं है. मैंने कहा कि तो फिर आप पिस्टल समर्पित करिए. उन्होंने पिस्टल निकाली और अरोड़ को दे दी. उस समय उनकी आँखों में आँसू थे.

उस समय अरोड़ा और नियाज़ी के बीच कोई बातचीत हुई?

तीनों सेनाध्यक्षों के साथ जगजीवन राम
माना जाता है कि शीर्ष भारतीय जनरलों के बीच आपसी सामंजस्य नहीं था
उन दोनों और किसी के बीच एक भी शब्द का आदान-प्रदान नहीं हुआ. भीड़ नियाज़ी को मार डालना चाहती थी. वह उनकी तरफ़ बढ़े भी. हमारे पास बहुत कम सैनिक थे लेकिन फिर भी हमने उन्हें सेना की जीप पर बैठाया और सुरक्षित जगह पर ले गए.

आपकी किताबों से यह आभास मिलता है कि लड़ाई के दौरान भारतीय जनरलों की आपस में नहीं बन रही थी. मानेकशॉ की अरोड़ा से पटरी नहीं खा रही थी. अरोड़ा सगत सिंह से ख़ुश नहीं थे. रैना के नंबर दो भी उनकी बात नहीं सुन रहे थे.

सबसे बड़ी समस्या यह थी कि दिल्ली में वायु सेनाध्यक्ष पीसी लाल और मानिकशॉ के बीच बातचीत तक नहीं हो रही थी. लड़ाई के दौरान बहुत से व्यक्तित्व आपस में टकरा रहे थे. मेरे और मानिकशॉ के संबंध बहुत अच्छे थे. उनसे मेरे संबंध बिगड़ने तब शुरू हुए जब 1997 में मेरी किताब प्रकाशित हुई.

मानिकशॉ को एक जनरल के रूप में आप कैसा रेट करते हैं ?

मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूँगा.



1971 युद्ध के नायक अरोड़ा का निधन
3 MAY 2005
जनरल अरोड़ा और जनरल नियाज़ी
लेफ़्टिनेंट जनरल अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण करते हुए लेफ़्टिनेंट जनरल नियाज़ी
वर्ष 1971 में बांग्लादेश की आज़ादी के लिए हुए युद्ध के नायक लेफ़्टिनेंट जनरल अरोड़ा का दिल्ली में निधन हो गया है.
92 वर्ष के जनरल अरोड़ा हृदय की बीमारी से पीड़ित थे और सोमवार की रात उन्हें तकलीफ़ के बाद अस्पताल में दाख़िल किया गया था.
देर रात हृदयगति रुक जाने से उनकी मृत्यु हो गई.
सेना की ओर से कहा गया है कि उनका अंतिम संस्कार पूरे सैनिक सम्मान के साथ होगा.
जनरल अरोड़ा की एक बेटी और एक बेटा है. बेटी दिल्ली में ही रहती हैं और बेटे अमरीका में हैं.
समाचार एजेंसियों ने परिवारजनों के हवाले से कहा है कि बेटे के पहुँचने के बाद ही अंतिम संस्कार होगा.
1971 के नायक
जनरल अरोड़ा वही हैं जिनके सामने पाकिस्तान के जनरल एएके नियाज़ी ने 90 हज़ार सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण किया था.
इस आत्मसमर्पण के बाद ही पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश नाम का एक स्वतंत्र राष्ट्र बना था.
इसके बाद जनरल अरोड़ा भारतीय सेना के गौरव का प्रतीक बन गए थे.
पिछले साल ही जनरल नियाज़ी का निधन हुआ था. उस समय जनरल अरोड़ा ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि जनरल नियाज़ी बेहद शांत और अल्पभाषी व्यक्ति थे.



1971 युद्ध: आँसू, चुटकुले और सरेंडर लंच


सात मार्च 1971 को जब बांग्लादेश के राष्ट्रपिता शेख़ मुजीबुर्रहमान ढाका के मैदान में पाकिस्तानी शासन को ललकार रहे थे, तो उन्होंने क्या किसी ने भी यह कल्पना नहीं की थी कि ठीक नौ महीने और नौ दिन बाद बांग्लादेश एक वास्तविकता होगा.
पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह याहिया ख़ाँ ने जब 25 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान की जन भावनाओं को सैनिक ताकत से कुचलने का आदेश दे दिया और शेख़ मुजीब गिरफ़्तार कर लिए गए, वहाँ से शरणार्थियों के भारत आने का सिलसिला शुरू हो गया.
जैसे-जैसे पाकिस्तानी सेना के दुर्व्यवहार की ख़बरें फैलने लगीं, भारत पर दबाव पड़ने लगा कि वह वहाँ पर सैनिक हस्तक्षेप करे.

इंदिरा चाहती थीं कि अप्रैल में हमला हो

इंदिरा गांधी ने इस बारे में थलसेनाअध्यक्ष जनरल मानेकशॉ की राय माँगी.
उस समय पूर्वी कमान के स्टाफ़ ऑफ़िसर लेफ़्टिनेंट जनरल जेएफ़आर जैकब याद करते हैं, "जनरल मानेकशॉ ने एक अप्रैल को मुझे फ़ोन कर कहा कि पूर्वी कमान को बांग्लादेश की आज़ादी के लिए तुरंत कार्रवाई करनी है. मैंने उनसे कहा कि ऐसा तुरंत संभव नहीं है क्योंकि हमारे पास सिर्फ़ एक पर्वतीय डिवीजन है जिसके पास पुल बनाने की क्षमता नहीं है. कुछ नदियाँ पाँच पाँच मील चौड़ी हैं. हमारे पास युद्ध के लिए साज़ोसामान भी नहीं है और तुर्रा यह कि मॉनसून शुरू होने वाला है. अगर हम इस समय पूर्वी पाकिस्तान में घुसते हैं तो वहीं फँस कर रह जाएंगे."
मानेकशॉ राजनीतिक दबाव में नहीं झुके और उन्होंने इंदिरा गांधी से साफ़ कहा कि वह पूरी तैयारी के साथ ही लड़ाई में उतरना चाहेंगे.
"जनरल मानेकशॉ ने एक अप्रैल को मुझे फ़ोन कर कहा कि पूर्वी कमान को बांग्लादेश की आज़ादी के लिए तुरंत कार्रवाई करनी है. मैंने उनसे कहा कि ऐसा तुरंत संभव नहीं है क्योंकि हमारे पास सिर्फ़ एक पर्वतीय डिवीजन है जिसके पास पुल बनाने की क्षमता नहीं है. कुछ नदियाँ पाँच पाँच मील चौड़ी हैं. हमारे पास युद्ध के लिए साज़ोसामान भी नहीं है और तुर्रा यह कि मॉनसून शुरू होने वाला है. अगर हम इस समय पूर्वी पाकिस्तान में घुसते हैं तो वहीं फँस कर रह जाएंगे"
जनरल जैकब
तीन दिसंबर 1971...इंदिरा गांधी कलकत्ता में एक जनसभा को संबोधित कर रही थीं. शाम के धुँधलके में ठीक पाँच बजकर चालीस मिनट पर पाकिस्तानी वायुसेना के सैबर जेट्स और स्टार फ़ाइटर्स विमानों ने भारतीय वायु सीमा पार कर पठानकोट, श्रीनगर, अमृतसर, जोधपुर और आगरा के सैनिक हवाई अड्डों पर बम गिराने शुरू कर दिए.
इंदिरा गांधी ने उसी समय दिल्ली लौटने का फ़ैसला किया. दिल्ली में ब्लैक आउट होने के कारण पहले उनके विमान को लखनऊ मोड़ा गया. ग्यारह बजे के आसपास वह दिल्ली पहुँचीं. मंत्रिमंडल की आपात बैठक के बाद लगभग काँपती हुई आवाज़ में अटक-अटक कर उन्होंने देश को संबोधित किया.
पूर्व में तेज़ी से आगे बढ़ते हुए भारतीय सेनाओं ने जेसोर और खुलना पर कब्ज़ा कर लिया. भारतीय सेना की रणनीति थी महत्वपूर्ण ठिकानों को बाई पास करते हुए आगे बढ़ते रहना.

ढाका पर कब्ज़ा भारतीय सेना का लक्ष्य नहीं

आश्चर्य की बात है कि पूरे युद्ध में मानेकशॉ खुलना और चटगाँव पर ही कब्ज़ा करने पर ज़ोर देते रहे और ढ़ाका पर कब्ज़ा करने का लक्ष्य भारतीय सेना के सामने रखा ही नहीं गया.
इसकी पुष्टि करते हुए जनरल जैकब कहते हैं, "वास्तव में 13 दिसंबर को जब हमारे सैनिक ढाका के बाहर थे, हमारे पास कमान मुख्यालय पर संदेश आया कि अमुक-अमुक समय तक पहले वह उन सभी नगरों पर कब्ज़ा करे जिन्हें वह बाईपास कर आए थे. अभी भी ढाका का कोई ज़िक्र नहीं था. यह आदेश हमें उस समय मिला जब हमें ढाका की इमारतें साफ़ नज़र आ रही थीं."
भारतीय सैनिक
पाकिस्तानी टैंक पर बैठे भारतीय सैनिक
पूरे युद्ध के दौरान इंदिरा गांधी को कभी विचलित नहीं देखा गया. वह पौ फटने तक काम करतीं और जब दूसरे दिन दफ़्तर पहुँचतीं, तो कह नहीं सकता था कि वह सिर्फ़ दो घंटे की नींद लेकर आ रही हैं.
जाने-माने पत्रकार इंदर मल्होत्रा याद करते हैं, "आधी रात के समय जब रेडियो पर उन्होंने देश को संबोधित किया था तो उस समय उनकी आवाज़ में तनाव था और ऐसा लगा कि वह थोड़ी सी परेशान सी हैं. लेकिन उसके अगले रोज़ जब मैं उनसे मिलने गया तो ऐसा लगा कि उन्हें दुनिया में कोई फ़िक्र है ही नहीं. जब मैंने जंग के बारे में पूछा तो बोलीं अच्छी चल रही है. लेकिन यह देखो मैं नार्थ ईस्ट से यह बेड कवर लाई हूँ जिसे मैंने अपने सिटिंग रूम की सेटी पर बिछाया है. कैसा लग रहा है? मैंने कहा बहुत ही ख़ूबसूरत है. ऐसा लगा कि उनके दिमाग़ में कोई चिंता है ही नहीं."

गवर्नमेंट हाउस पर बमबारी

14 दिसंबर को भारतीय सेना ने एक गुप्त संदेश को पकड़ा कि दोपहर ग्यारह बजे ढाका के गवर्नमेंट हाउस में एक महत्वपूर्ण बैठक होने वाली है, जिसमें पाकिस्तानी प्रशासन के चोटी के अधिकारी भाग लेने वाले हैं.
भारतीय सेना ने तय किया कि इसी समय उस भवन पर बम गिराए जाएं. बैठक के दौरान ही मिग 21 विमानों ने भवन पर बम गिरा कर मुख्य हॉल की छत उड़ा दी. गवर्नर मलिक ने एयर रेड शेल्टर में शरण ली और नमाज़ पढ़ने लगे. वहीं पर काँपते हाथों से उन्होंने अपना इस्तीफ़ा लिखा.
"प्रिय अब्दुल्लाह, मैं यहीँ पर हूँ. खेल ख़त्म हो चुका है. मैं सलाह देता हूँ कि तुम मुझे अपने आप को सौंप दो और मैं तुम्हारा ख़्याल रखूँगा"
मेजर जनरल गंधर्व नागरा
दो दिन बाद ढाका के बाहर मीरपुर ब्रिज पर मेजर जनरल गंधर्व नागरा ने अपनी जोंगा के बोनेट पर अपने स्टाफ़ ऑफ़िसर के नोट पैड पर पूर्वी पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जनरल नियाज़ी के लिए एक नोट लिखा- प्रिय अब्दुल्लाह, मैं यहीँ पर हूँ. खेल ख़त्म हो चुका है. मैं सलाह देता हूँ कि तुम मुझे अपने आप को सौंप दो और मैं तुम्हारा ख़्याल रखूँगा.
मेजर जनरल गंधर्व नागरा अब इस दुनिया में नहीं हैं. कुछ वर्ष पहले उन्होंने बीबीसी को बताया था, "जब यह संदेश लेकर मेरे एडीसी कैप्टेन हरतोश मेहता नियाज़ी के पास गए तो उन्होंने उनके साथ जनरल जमशेद को भेजा, जो ढाका गैरिसन के जीओसी थे. मैंने जनरल जमशेद की गाड़ी में बैठ कर उनका झंडा उतारा और 2-माउंटेन डिव का झंडा लगा दिया. जब मैं नियाज़ी के पास पहुँचा तो उन्होंने बहुत तपाक से मुझे रिसीव किया."
16 दिसंबर की सुबह सवा नौ बजे जनरल जैकब को मानेकशॉ का संदेश मिला कि आत्मसमर्पण की तैयारी के लिए तुरंत ढाका पहुँचें. नियाज़ी ने जैकब को रिसीव करने के लिए एक कार ढाका हवाई अड्डे पर भेजी हुई थी.
जैकब कार से छोड़ी दूर ही आगे बढ़े थे कि मुक्ति बाहिनी के लोगों ने उन पर फ़ायरिंग शुरू कर दी. जैकब दोनों हाथ ऊपर उठा कर कार से नीचे कूदे और उन्हें बताया कि वह भारतीय सेना से हैं. बाहिनी के लोगों ने उन्हें आगे जाने दिया.

आँसू और चुटकुले

जब जैकब पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय पहुँचें. तो उन्होंने देखा जनरल नागरा नियाज़ी के गले में बाँहें डाले हुए एक सोफ़े पर बैठे हुए हैं और पंजाबी में उन्हें चुटकुले सुना रहे हैं.
जैकब ने नियाज़ी को आत्मसमर्पण की शर्तें पढ़ कर सुनाई. नियाज़ी की आँखों से आँसू बह निकले. उन्होंने कहा, "कौन कह रहा है कि मैं हथियार डाल रहा हूँ."
जनरल राव फ़रमान अली ने इस बात पर ऐतराज़ किया कि पाकिस्तानी सेनाएं भारत और बांग्लादेश की संयुक्त कमान के सामने आत्मसमर्पण करें.
समय बीतता जा रहा था. जैकब नियाज़ी को कोने में ले गए. उन्होंने उनसे कहा कि अगर उन्होंने हथियार नहीं डाले तो वह उनके परिवारों की सुरक्षा की गारंटी नहीं ले सकते. लेकिन अगर वह समर्पण कर देते हैं, तो उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उनकी होगी.
जैकब ने कहा- मैं आपको फ़ैसला लेने के लिए तीस मिनट का समय देता हूँ. अगर आप समर्पण नहीं करते तो मैं ढाका पर बमबारी दोबारा शुरू करने का आदेश दे दूँगा.
नागरा
ढाका के बाहरी इलाक़े में खड़े मेजर जनरल नागरा और ब्रिगेडियर क्लेर
अंदर ही अंदर जैकब की हालत ख़राब हो रही थी. नियाज़ी के पास ढाका में 26400 सैनिक थे जबकि भारत के पास सिर्फ़ 3000 सैनिक और वह भी ढाका से तीस किलोमीटर दूर !
अरोड़ा अपने दलबदल समेत एक दो घंटे में ढाका लैंड करने वाले थे और युद्ध विराम भी जल्द ख़त्म होने वाला था. जैकब के हाथ में कुछ भी नहीं था.
30 मिनट बाद जैकब जब नियाज़ी के कमरे में घुसे तो वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था. आत्म समर्पण का दस्तावेज़ मेज़ पर रखा हुआ था.
जैकब ने नियाज़ी से पूछा क्या वह समर्पण स्वीकार करते हैं? नियाज़ी ने कोई जवाब नहीं दिया. उन्होंने यह सवाल तीन बार दोहराया. नियाज़ी फिर भी चुप रहे. जैकब ने दस्तावेज़ को उठाया और हवा में हिला कर कहा, ‘आई टेक इट एज़ एक्सेप्टेड.’
नियाज़ी फिर रोने लगे. जैकब नियाज़ी को फिर कोने में ले गए और उन्हें बताया कि समर्पण रेस कोर्स मैदान में होगा. नियाज़ी ने इसका सख़्त विरोध किया. इस बात पर भी असमंजस था कि नियाज़ी समर्पण किस चीज़ का करेंगे.
मेजर जनरल गंधर्व नागरा ने बताया था, "जैकब मुझसे कहने लगे कि इसको मनाओ कि यह कुछ तो सरेंडर करें. तो फिर मैंने नियाज़ी को एक साइड में ले जा कर कहा कि अब्दुल्ला तुम एक तलवार सरेंडर करो, तो वह कहने लगे पाकिस्तानी सेना में तलवार रखने का रिवाज नहीं है. तो फिर मैंने कहा कि तुम सरेंडर क्या करोगे? तुम्हारे पास तो कुछ भी नहीं है. लगता है तुम्हारी पेटी उतारनी पड़ेगी... या टोपी उतारनी पड़ेगी, जो ठीक नहीं लगेगा. फिर मैंने ही सलाह दी कि तुम एक पिस्टल लगाओ ओर पिस्टल उतार कर सरेंडर कर देना."

सरेंडर लंच

"जब यह संदेश लेकर मेरे एडीसी कैप्टेन हरतोश मेहता नियाज़ी के पास गए तो उन्होंने उनके साथ जनरल जमशेद को भेजा, जो ढाका गैरिसन के जीओसी थे. मैंने जनरल जमशेद की गाड़ी में बैठ कर उनका झंडा उतारा और 2-माउंटेन डिव का झंडा लगा दिया. जब मैं नियाज़ी के पास पहुँचा तो उन्होंने बहुत तपाक से मुझे रिसीव किया"
मेजर जनरल गंधर्व नागरा
इसके बाद सब लोग खाने के लिए मेस की तरफ़ बढ़े. ऑब्ज़र्वर अख़बार के गाविन यंग बाहर खड़े हुए थे. उन्होंने जैकब से अनुरोध किया क्या वह भी खाना खा सकते हैं. जैकब ने उन्हें अंदर बुला लिया.
वहाँ पर करीने से टेबुल लगी हुई थी... काँटे और छुरी और पूरे ताम-झाम के साथ. जैकब का कुछ भी खाने का मन नहीं हुआ. वह मेज़ के एक कोने में अपने एडीसी के साथ खड़े हो गए. बाद में गाविन ने अपने अख़बार ऑब्ज़र्वर के लिए दो पन्ने का लेख लिखा ’सरेंडर लंच.’
चार बजे नियाज़ी और जैकब जनरल अरोड़ा को लेने ढाका हवाई अड्डे पहुँचे. रास्ते में जैकब को दो भारतीय पैराट्रूपर दिखाई दिए. उन्होंने कार रोक कर उन्हें अपने पीछे आने के लिए कहा.
जैतूनी हरे रंग की मेजर जनरल की वर्दी पहने हुए एक व्यक्ति उनका तरफ़ बढ़ा. जैकब समझ गए कि वह मुक्ति बाहिनी के टाइगर सिद्दीकी हैं. उन्हें कुछ ख़तरे की बू आई. उन्होंने वहाँ मौजूद पेराट्रूपर्स से कहा कि वह नियाज़ी को कवर करें और सिद्दीकी की तरफ़ अपनी राइफ़लें तान दें.
जैकब ने विनम्रता पूर्वक सिद्दीकी से कहा कि वह हवाई अड्डे से चले जाएं. टाइगर टस से मस नहीं हुए. जैकब ने अपना अनुरोध दोहराया. टाइगर ने तब भी कोई जवाब नहीं दिया. जैकब ने तब चिल्ला कर कहा कि वह फ़ौरन अपने समर्थकों के साथ हवाई अड्डा छोड़ कर चले जाएं. इस बार जैकब की डाँट का असर हुआ.
"मैं आपको फ़ैसला लेने के लिए तीस मिनट का समय देता हूँ. अगर आप समर्पण नहीं करते तो मैं ढाका पर बमबारी दोबारा शुरू करने का आदेश दे दूँगा"
जनरल जैकब
साढ़े चार बजे अरोड़ा अपने दल बल के साथ पाँच एम क्यू हेलिकॉप्टर्स से ढाका हवाई अड्डे पर उतरे. रेसकोर्स मैदान पर पहले अरोड़ा ने गार्ड ऑफ़ ऑनर का निरीक्षण किया.
अरोडा और नियाज़ी एक मेज़ के सामने बैठे और दोनों ने आत्म समर्पण के दस्तवेज़ पर हस्ताक्षर किए. नियाज़ी ने अपने बिल्ले उतारे और अपना रिवॉल्वर जनरल अरोड़ा के हवाले कर दिया. नियाज़ी की आँखें एक बार फिर नम हो आईं.
अँधेरा हो रहा था. वहाँ पर मौजूद भीड़ चिल्लाने लगी. वह लोग नियाज़ी के ख़ून के प्यासे हो रहे थे. भारतीय सेना के वरिष्ठ अफ़सरों ने नियाज़ी के चारों तरफ़ घेरा बना दिया और उनको एक जीप में बैठा कर एक सुरक्षित जगह ले गए.

ढाका स्वतंत्र देश की स्वतंत्र राजधानी है

ठीक उसी समय इंदिरा गांधी संसद भवन के अपने दफ़्तर में स्वीडिश टेलीविज़न को एक इंटरव्यू दे रही थीं. तभी उनकी मेज़ पर रखा लाल टेलीफ़ोन बजा. रिसीवर पर उन्होंने सिर्फ़ चार शब्द कहे....यस...यस और थैंक यू. दूसरे छोर पर जनरल मानेक शॉ थे जो उन्हें बांग्लादेश में जीत की ख़बर दे रहे थे.
श्रीमती गांधी ने टेलीविज़न प्रोड्यूसर से माफ़ी माँगी और तेज़ क़दमों से लोक सभा की तरफ़ बढ़ीं. अभूतपूर्व शोर शराबे के बीच उन्होंने ऐलान किया- ढाका अब एक स्वतंत्र देश की स्वतंत्र राजधानी है. बाक़ी का उनका वक्तव्य तालियों की गड़गड़ाहट और नारेबाज़ी में डूब कर रह गया.

हिली की सबसे ख़ूनी लड़ाई


हिली में पाकिस्तानी टैंक के सामने खड़े भारतीय सैनिक अधिकारी. (तस्वीर: भारत-रक्षक डॉट कॉम)
मेजर जनरल लक्षमण सिंह दूसरे विश्व युद्ध मे भाग ले चुके हैं और अपने 40 साल के सैनिक करियर में उन्हे कई लड़ाइयों में भाग लेने का अनुभव है.
वह 1971 में 20वीं पर्वतीय डिवीजन के कमांडर थे जिन्होंने हिली की लड़ाई में हिस्सा लिया था.
इस लड़ाई को 1971 की सबसे ख़ूनी लड़ाई कहा जाता है. मानेक शॉ और जगजीत सिंह अरोड़ा चाहते थे कि भारतीय फ़ौज हिली पर कब्ज़ा करे ताकि पूर्वी पाकिस्तान में मौजूद पाकिस्तानी सेना को दो हिस्सों में बाँटा जा सके.
लक्ष्मण सिंह और उनके कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल थापन दोनों इस हमले के ख़िलाफ़ थे, क्योंकि उन्हें पता था कि पाकिस्तान ने वहाँ ज़बरदस्त मोर्चाबंदी कर रखी है. अगर भारत हमला करता है, तो ज़बरदस्त घमासान होगा और बहुत से लोग हताहत होंगे.
पाकिस्तानी बलों की कमान थी ब्रिगेडियर तजम्मुल हुसैन मलिक के हाथ में, जिन्होंने चार दिन पहले ही वहाँ का चार्ज लिया था. वह पश्चिमी पाकिस्तान में सेना मुख्यालय में तैनात थे और उन्होंने ख़ुद इच्छा प्रकट की थी कि वह पूर्वी पाकिस्तान में लड़ने जाना चाहेंगे.
इस लड़ाई की शुरुआत युद्ध की औपचारिक घोषणा से 10 दिन पहले 23 नवंबर को ही हो गई थी.
तजम्मुल हुसैन मलिक
तजम्मुल हुसैन मलिक ने अंत तक हथियार नहीं डाले
पाकिस्तानी ब्रिगेडियर तजम्मुल हुसैन मलिक ने पूरी भारतीय डिवीजन और मुक्ति बाहिनी के सैनिकों का सामना किया.
पहले ही हमले में भारत के 150 सैनिक मारे गए. कड़ा प्रतिरोध होता देख भारत ने अपनी रणनीति बदली और उन्होंने हिली को बाईपास कर पाकिस्तानी बलों के पीछे ठिकाना बना कर उनपर दोतरफ़ा हमला शुरू कर दिया.
इस लड़ाई में भारतीय सेना के इंजीनयरों ने ख़ासा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. फुलवारी की महत्वपूर्ण रेलवे लाइन के पास जब भारतीय सैनिक पहुँचे तो उन्होंने पाया कि पाकिस्तानियों ने पूरी की पूरी रेलवे लाइन उड़ा दी है और भारतीय सेना के भारी औज़ार ज़मीन में धंस रहे हैं.
सेना के इंजीनयरों ने स्थानीय लोगों की मदद से लगातार 48 घंटे काम कर रेलवे ट्रैक को एक मोटर चलने लायक़ सड़क में तब्दील कर दिया. जब उस सड़क से होकर भारतीय तोपें वहाँ पहुँचीं तो पाकिस्तानी सैनिक दंग रह गए.

भैंसों के सींग में तोपें

"मुझे याद है, हमने एक पाकिस्तानी सिपाही को वायरलेस पर अपने अफ़सर को कहते सुना कि भारतीय तोपों से हमला कर रहे हैं. अफ़सर ने कहा कि वह बकवास न करे. ऐसा कैसे हो सकता है? इतने बड़े दलदल और बारूदी सुरंगों के बीच भारतीय अपनी तोपें कैसे ला सकते हैं? वह भैंसे होंगीं. पाकिस्तानी जवान ने जवाब दिया, सर तब यह समझिए कि इन भैंसों के सींगों में 100 एमएम की तोपें लगी हुई हैं और वह एक-एक करके हमारे बंकरों को ध्वस्त कर रहे हैं"
लक्ष्मण सिंह
लक्ष्मण सिंह याद करते हैं, "मुझे याद है, हमने एक पाकिस्तानी सिपाही को वायरलेस पर अपने अफ़सर को कहते सुना कि भारतीय तोपों से हमला कर रहे हैं. अफ़सर ने कहा कि वह बकवास न करे. ऐसा कैसे हो सकता है? इतने बड़े दलदल और बारूदी सुरंगों के बीच भारतीय अपनी तोपें कैसे ला सकते हैं? वह भैंसे होंगीं. पाकिस्तानी जवान ने जवाब दिया, सर तब यह समझिए कि इन भैंसों के सींगों में 100 एमएम की तोपें लगी हुई हैं और वह एक-एक करके हमारे बंकरों को ध्वस्त कर रहे हैं."
ढाका में पाकिस्तानी सेना के हथियार डालने के बाद भी मलिक ने हार नहीं मानी. वह अपना जीप में घूम-घूम कर अपने सैनिकों को लड़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहे.
जब वह चारों तरफ़ से घेर लिए गए तो उन्होंने अपनी ब्रिगेड को आदेश दिया कि वह छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट कर नौगांव की तरफ़ बढ़ने की कोशिश करें, जहाँ अब भी कुछ पाकिस्तानी सैनिक प्रतिरोध कर रहे थे.
लेकिन रास्ते में मुक्ति बाहिनी के सैनिकों ने उनकी जीप पर गोलियाँ चलाईं, जिसमें मलिक बुरी तरह से घायल हो गए और उनका अर्दली मारा गया. मुक्ति बाहिनी ने उन्हे भारतीय सेना के हवाले करने से पहले काफ़ी यातनाएं दीं.
लक्षमण सिंह ने आदेश दिया कि घायल मलिक को उनके सामने पेश किया जाए. लक्ष्मण ने उनसे पूछा कि भागने का ख़याल आपके मन में कैसे आया. आपके गोरे रंग को देखते हुए लोगों को तो पता चल ही जाना था कि तुम पाकिस्तानी हो.
लक्ष्मण सिंह
हिली में भारत की कमान संभाली थी मेजर जनरल लक्ष्मण सिंह ने
मलिक ने जवाब दिया, "आप ही जो सिखाते हैं कि किसी हालत में क़ैद नहीं होना चाहिए और भागने की कोशिश करनी चाहिए. आप सीनियर ऑफ़िसर हैं. आप ही बताओ मैं क्या करता."
लक्षमण ने जवाब दिया भागने का विकल्प तभी चुनना चाहिए जब सफलता की काफ़ी गुंजाइश हो.
मलिक को पकड़ भले ही लिया गया हो लेकिन उन्होंने ख़ुद हथियार नहीं डाले. ब्रिगेड का आत्मसमर्पण कराने के लिए मेजर जनरल नज़र अली शाह को ख़ास तौर से नटौर से हेलिकॉप्टर से लाया गया.
लक्ष्मण सिंह याद करते हैं कि जनरल शाह इतने मोटे थे कि हेलिकॉप्टर की सीट बेल्ट उन्हें फ़िट नहीं आई और उन्हें बैठाने के लिए दो सीट बेल्टों का इस्तेमाल करना पड़ा.
ब्रिगेडियर मलिक पाकिस्तानी सेना के अकेले अधिकारी थे जिन्हें बांग्लादेश से वापस आने के बाद पदोन्नति दे कर मेजर जनरल बनाया गया.

अद्वितीय बटालियन कमांडर

मैंने मेजर जनरल लक्ष्मण सिंह से पूछा कि आप ब्रिगेडियर मलिक को एक सैनिक कमांडर के रूप में किस तरह रेट करेंगे?
लक्ष्मण सिंह का जवाब था, "बटालियन कमांडर के रूप में वह अद्वितीय थे. उन्होंने न सिर्फ़ दूसरों को लड़ने के लिए प्रेरित किया बल्कि ख़ुद भी जी-जान से लड़े. लेकिन उनमें दूरदृष्टि नहीं थी. जैसे उन्होंने मुझसे कहा कि नवंबर में जो आपने हमला किया था उसके बाद तो आप डर ही गए. इधर उधर दौड़ते रहे और सड़कें काटने की कोशिश करते रहे. मैंने उनसे कहा तजम्मुल, सेना में प्लानिंग जैसी भी कोई चीज़ होती है. हमने हमला इसलिए किया कि तुम सब हिली में जमा हो जाओ और बाक़ी मोर्चे कमज़ोर हो जाएं. आप लोग हिली में बैठे रहे और हमने 50 मील पीछे जा कर मुख्य सड़क काट दी. इस सबके लिए एक अच्छा दिमाग़ चाहिए. अगर तुम्हारा डिवीजनल कमांडर अच्छा होता तो शायद तुम्हारा यह हश्र नहीं होता."
हिली की लड़ाई इसलिए भी महत्वपूर्ण थी, क्योंकि इसमें दोनों पक्षों ने असीम निजी वीरता का परिचय दिया. लाँस नायक एल्बर्ट एक्का को मरणोपरांत भारत का सबसे बड़ा वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र मिला.
पाकिस्तान की तरफ से मेजर मोहम्मद अकरम को उनकी बहादुरी के लिए सर्वोच्च वीरता पुरस्कार निशान-ए-हैदर दिया गया.



....जब भारतीय मेजर ने ख़ुद अपना पैर काटा

मेजर कार्डोज़ो ने सामरिक रूप से महत्वपूर्ण सिलहट की लड़ाई में भाग लिया था. उनको हेलिकॉप्टर से चारों ओर चल रही गोलियों के बीच युद्धस्थल पर उतारा गया था. पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण के बाद जब वो उस इलाक़े में गश्त लगा रहे थे, तो उनका पैर एक बारूदी सुरंग पर पड़ा.....आगे की कहानी ख़ुद बता रहे हैं मेजर जनरल बनकर रिटायर हुए इयन कार्डोज़ो......
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उस समय मैं वेलिंगटन स्टॉफ़ कॉलेज में कोर्स कर रहा था. हमें हुक्म मिला कि आप अपने घर-परिवार को छोड़कर सीधे पलटन में पहुँचिए.
जब मैं दिल्ली पहुँचा, तो पता चला कि लड़ाई शुरू हो गई है. पालम पहुँचे, तो पता चला कि विमान कैंसिल हो गए हैं, इसलिए मुझे भागकर नई दिल्ली स्टेशन पहुँचना पड़ा.
यहाँ पहुँचे तो पता चला कि असम मेल निकल गई है. दौड़कर गाड़ी की चेनपुलिंग करके हम ट्रेन में बैठे. असम पहुँचकर हमें पता चला कि सिलहट पर क़ब्ज़े की लड़ाई चल रही है.
हम धर्मनगर पहुँचे और जीप में बैठकर एक जगह खलौरा पहुँचे. वहाँ हम हेलिकॉप्टर के इंतज़ार में थे. हम देख रहे थे कि कई हेलिकॉप्टर में बड़ी संख्या में भारतीय जवान घायल होकर पहुँच रहे थे.
हम हेलिकॉप्टर से जब वहाँ पहुँचें, तो देखा कि भारी गोलाबारी चल रही थी. मोर्टार से, तोपखाने से गोले दाग़े जा रहे थे. वहाँ भयंकर लड़ाई चल रही थी. काफ़ी जवान घायल हो रहे थे और मारे जा रहे थे. साथ ही हम अपने दुश्मन को भी नुक़सान पहुँचा रहे थे.
एमआई रूम पर गोलीबारी हुई और हमारे आठ जवान मारे गए. हमें बताया गया कि 48 घंटे में ही बड़ी पलटन आ जाएगी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ नहीं. हमने 10 दिन लड़ाई लड़ी.

नुक़सान

हम नहीं जानते थे कि वो कितने सैनिक थे. हमने उनका काफ़ी नुक़सान किया. लेकिन हमारे पास खाने-पीने का सामान ख़त्म हो रहा था और गोला-बारूद भी कम हो रहा था.
उस समय बीबीसी ने बताया था कि एक ब्रिगेड गोरखा सिलहट में लैंड किया हुआ है. ये सुनकर हमें ये विचार आया कि अगर हम डिफ़ेंस पोजिशन ऐसा बनाए, जिससे ये लगे कि ब्रिगेड के नेतृत्व में हम लड़ाई लड़ रहे हैं.
हमें लग रहा था कि इससे हम पर हमला कम होगा. इस बीच पाकिस्तान को ये संदेश दिया गया कि पाकिस्तानी सैनिक घिरे हुए हैं, आप लोग हथियार डाल दें और आपके साथ जिनेवा संधि के तहत अच्छा व्यवहार किया जाएगा.
इसके बाद 15 तारीख़ को क़रीब एक हज़ार पाकिस्तानी सैनिक चार-पाँच सफ़ेद झंड़ों के साथ हथियार डालने हमारे फ़ॉरवर्ड कंपनी कमांडर के पास पहुँचे.
"जब हमने जेसीओ से कंबल मांगा तो उसने बोला कि आपके पास कंबल नहीं है, तो हमने बोला कि हम सोने नहीं आपको बर्बाद करने आए हैं. आपके अफ़सर साब के पास भी कंबल नहीं.....मैंने बोला- अगर जवानों के पास कंबल नहीं है तो हमारे अफसर के पास कैसे होता. तो उसने कहा कि अगर हमारी फौज में भारत जैसे अफ़सर होते, तो हम ये दिन नहीं देखते."
लेकिन उनकी संख्या देखकर हमने कहा कि आप कल हथियार डालने आना. उन्होंने कहा कि हम आपके ब्रिगेड कमांडर से बात करना चाहते हैं, तो हमने बताया कि ब्रिगेड कमांडर आपसे बात नहीं करना चाहते.
फिर हमने अपने ब्रिगेड कमांडर को सूचना दी. वो फिर हेलिकॉप्टर में पहुँचे. इन लोगों ने ब्रिगेड कमांडर से ये पूछा कि आप कहाँ से आ रहे हो, तो उन्होंने बताया कि वो तो काफ़ी दूर से आ रहे हैं.
जब उन्होंने ये पूछा कि यहाँ कितने लोग थे, जो ब्रिगेड कमांडर ने ये बताया कि यहाँ तो गुरखा राइफ़ल्स की सिर्फ़ एक पलटन थी.
लेकिन हमें तो और भी आश्चर्य हुआ क्योंकि उनके तो दो ब्रिगेड थे, तीन ब्रिगेडियर थे, सिलहट के गैरीसन कमांडर, 104 अफ़सर, 290 जेसीओ और सात हज़ार सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया था.
जब हमने जेसीओ से कंबल मांगा तो उसने बोला कि आपके पास कंबल नहीं है, तो हमने बोला कि हम सोने नहीं आपको बर्बाद करने आए हैं. आपके अफ़सर साब के पास भी कंबल नहीं.....मैंने बोला- अगर जवानों के पास कंबल नहीं है तो हमारे अफसर के पास कैसे होता. तो उसने कहा कि अगर हमारी फौज में भारत जैसे अफ़सर होते, तो हम ये दिन नहीं देखते.

पैर काटना पड़ा

कार्डोज़ो
कार्डोज़ो का एक पैर बारूदी सुरंग में उड़ गया था
आत्मसमर्पण के बाद भी बीएसएफ़ के एक प्लाटून कमांडर को शक़ था कि ख़तरा अब भी बना हुआ है. मैं जाकर उन्हें समझाऊँगा....लेकिन जाते समय बारूदी सुरंग में मैं फँस गया और मेरा एक पैर उड़ गया.
मेरे साथी मुझे उठाकर पलटन में ले आए. मॉरफ़िन और कोई दर्द निवारक दवा नहीं मिली. मैंने अपने गुरखा साथी से बोला कि खुखरी लाकर पैर काट लो, लेकिन वो इसके लिए तैयार नहीं हुआ. फिर मैंने खुखरी मांगकर ख़ुद अपना पैर काट लिया. उस कटे पैर को वहीं गड़वा दिया.
सीओ साब ने बोला कि पाकिस्तान का एक युद्धबंदी सर्जन है, मैंने उसे हुक्म दिया है कि वो ऑपरेशन करे. लेकिन मैंने कहा कि मैं भारतीय अस्पताल में जाना चाहता हूँ लेकिन पता चला कि कोई हेलिकॉप्टर नहीं है.
फिर मैं तैयार हुआ. मेजर मोहम्मद बशीर ने मेरा ऑपरेशन किया. उन्होंने बहुत अच्छा ऑपरेशन किया. मैं उसे धन्यवाद नहीं दे पाया.  माध्यम से उन्हें मालूम होगा कि मैं उनका आभारी हूँ. मैं उन्हें धन्यवाद देना चाहता हूँ.

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