Tuesday, 15 July 2014

हरेला (उत्तराखंड): सुख संपन्नता व ऋतुओं का त्यौहार ...जो इस वर्ष आज 16 जुलाई को मनाया जा रहा है

हरेला (उत्तराखंड): सुख संपन्नता व ऋतुओं का त्यौहार

...जो इस वर्ष आज 16 जुलाई को मनाया जा रहा है (harela festival)

16 JULY 2014 

कुमाऊँ:देवभूमि उत्तराखंड में प्राचीन काल से ही विविध तीज-त्यौहार व पर्व मनाये जाने की परंपरा चली आ रही है। जो आज भी यहां के सामाजिक परिवेश रीति-रिवाज संस्कृति आपसी रिश्ते व सामाजिक तानेबाने को जीवंत बनाये हुए हैं। ये त्यौहार व पर्व कृषि फसल व ऋतुओं के अनुसार मनाये जाते हैं।
इन्हीं में एक है हरेला का त्यौहार। जिसे आज भी गांवों में पूरे उत्साह, उमंग व श्रद्घा-भाव के साथ मनाया जाता है। प्रतिवर्ष सावन माह के निर्धारित तिथि यानी एक गते को इस त्यौहार को बनाने की परंपरा है। जो इस वर्ष आज 16 जुलाई को मनाया जा रहा है। मान्यता है कि यह त्यौहार हरियाली एवं वर्षा ऋतु के आगमन का प्रतीक है। इसीलिये इसे हरेला पर्व के नाम से जाना जाता है। हरेला विभिन्न प्रकार के बीजों से ऊगाये गये पौधे हैं। जिन्हें घरों में टोकरी में ऊगाया जाता है। हरेला त्यौहार के दिन इन पौधों को कुल पंडित द्वारा वैदिक मंत्रों के साथ पत्तेसा जाता है तथा मंदिर में चढ़ाने के बाद पौधों को सिर में रखा जाता है। साथ ही हरेला-पौध को मकान के चौखट व दरवाजों पर भी रोपित किये जाने की खास परंपरा है।
हरेला को बोने का भी एक खास तरीका है। इसे त्यौहार से 10 दिन पहले बंद कमरे में एक टोकरी में बोया जाता है। इसमें सात प्रकार के अनाज यथा गेहूं, जौ, चना, मक्का, धान, उरद व तिल के बीज प्रयोग में लाये जाते हैं। कुछ दिन बाद पौधे उग आते हैं तथा इन्हें समय-समय पर पानी भी दिया जाता है। फिर त्यौहार के दिन सुबह कुल पुरोहित द्वारा घर में पूजा-प्रतिष्ठा के बाद पौधों को काट लिया जाता है। इस त्यौहार को सुख-समृद्घि का प्रतीक माना जाता है। हरेला को सिर पर रखने की परंपरा है। साथ ही यह पर्व बहन-बेटी के पावन रिश्ते का अटूट बंधन भी है। इस दिन बहन-बेटी मायके से ससुराल आकर हरेला संक्रांति को मनाते हैं। या मायके के लोग ससुराल में रह रही बेटी को हरेला भेंट करते हैं तथा कुछ इस तरह आशीर्वाद देते हैं: जी रयै, जागी रयै, यो दिन यो मास, नित-नित भेंटन रये। डाक से भी अपने अपने नाते-रिश्तेदारों को हरेला भेजने की पूर्व से ही प्रथा रही है, हालांकि आज बदलते जीवन शैली के साथ ही बहुत कुछ बदल रहा है, लेकिन हरेला जैसी कई ऐसी परंपराएं हैं, जो आज भी अपने स्वरूप को जीवंत बनाये है।

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