भारत में फ़तवों की मुसीबत और हकीकत?
दक्षिण भारत के एक अंग्रेजी अखबार
ने पिछले दिनों मुसलमानों के एक प्रमुख धार्मिक संस्थान दारूल उलूम देवबंद
के एक मुफ़्ती का फ़तवा प्रकाशित किया.
इस फ़तवे में टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले
बच्चों के कार्टून कार्यक्रमों और कार्टून फिल्मों को इस्लाम के खिलाफ करार
दिया गया है. इतना ही नहीं फ़तवे में उन्हें देखने से मना भी किया गया है.फ़तवे में कहा गया है कि कार्टून दरअसल तस्वीरें हैं और चित्रकारी करना चूंकि भगवान के निर्माण की प्रक्रिया की नकल है इसलिए वे इस्लामी अवधारणाओं के खिलाफ हैं और उन्हें नहीं देखना चाहिए.
अतीत में कार्टून के बारे में इस तरह के फ़तवे आए हैं. कई बार उनकी आलोचनाएँ भी हुई हैं. इस बार भी अख़बारों ने एक वरिष्ठ इमाम का बयान प्रकाशित किया है जिसमें उन्होंने इस फ़तवे की आलोचना करते हुए कहा है कि ऐसे फतवों से मजहब का मजाक बनाया गया है.
इसमें कोई शक नहीं कि हर मजहब के कुछ अपने नियम कायदे होते हैं, कुछ परंपराएँ होती हैं जिन पर उनके मानने वाले अमल करते हैं.
रोज़मर्रा की जिंदगी
अभी अधिक समय नहीं गुजरा जब तस्वीर खिंचवाना इस्लाम के खिलाफ माना जाता था और आज यह रोज़मर्रा की जिंदगी का एक अभिन्न हिस्सा बन गया है.
कुछ समय पहले तक उलेमा लाउड स्पीकरों के इस्तेमाल के खिलाफ फ़तवे दिया करते थे लेकिन आज भारत की लाखों मस्जिदों में अज़ानें लाउड स्पीकरों के जरिए ही लोगों तक पहुंचती हैं.
अतीत में देश के बड़े धार्मिक संस्थाओं की ओर से विवादास्पद किस्म के फ़तवे आते रहे हैं. एक दो साल पहले एक फ़तवे में विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और स्कूलों में दी जाने वाली तालीम को इस आधार पर गैर इस्लामी करार दिया गया था क्योंकि वहाँ लड़के और लड़कियां एक साथ पढ़ते हैं.
घर और कार खरीदने और पढ़ाई करने के लिए बैंकों से कर्ज लेने के खिलाफ दर्जनों फ़तवे आ चुके हैं. अभी कुछ दिनों पहले कार्यालय में मुस्लिम महिलाओं के काम करने के खिलाफ भी फ़तवा जारी हुआ था. जीन्स पहनने, परफ़्यूम के इस्तेमाल और पश्चिमी शैली के हेयर-स्टाइल के खिलाफ भी कई फ़तवे मिल जाएंगे.
जिम्मेदार संस्था
दारूल उलूम देवबंद एक जिम्मेदार धार्मिक संस्था है. दारूल उलूम ही नहीं देश के दूसरे इस्लामी संस्थाओं ने भी लोकतांत्रिक समाज में व्यक्ति के निजी और लोकतांत्रिक अधिकारों को स्वीकार किया है.
इन संस्थाओं ने धार्मिक मामलों में अपने अंतिम और स्पष्ट अवधारणाओं के बावजूद उन्हें किसी पर थोपने की कोशिश नहीं की है. लोकतंत्र का यही तकाज़ा भी है.
देश के उलेमा और धार्मिक नेताओं को जीवन का यथार्थ स्वीकार करना चाहिए कि समय के साथ जिंदगी जीने के तौर तरीके भी बदलते हैं. जो चीजें बदलती नहीं हैं, वो समय के साथ ख़त्म हो जाती हैं.
धर्म व्यक्ति का निजी मामला है और उस पर अमल करना या ना करना उसका अपना व्यक्तिगत फैसला होता है.
भारत के मुसलमान पहले से ही कई तरह की समस्याओं से त्रस्त हैं. अनावश्यक और विवादास्पद फ़तवों से देश में भ्रम और जटिलताओं के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा.
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