ज़रूर पढ़ें -One year of #uttarakhanddisaster #kedarnath : Real Story
केदारनाथ में उस रात नाच रही थी मौत ...और ताश के पत्तों की तरह ढह गए भवन ,
God Bless All Victims [ #uttarakhandfloods, #disaster , #rain ]
...उत्तराखंड: कभी पहले सा हो सकेगा केदारनाथ?
केदारनाथ में उस रात नाच रही थी मौत
रात से भी काली थी 17 जून की सुबह
सोमवार 17 जून 2013 की वह सुबह तो रात से भी काली थी। 16 जून, 2013 को रविवार था। चारधाम यात्रा अपने चरम पर थी।
लाखों यात्री केदार बाबा और बदरीनाथ के दर्शनों को केदारघाटी में थे। कोई दिन में बाबा के दर्शन करके होटल, अतिथिगृहों में आराम कर रहा था। कई शाम को केदारनाथ मंदिर के गर्भगृह में आरती और भजन की सुरलहरियों में खोया था।
उत्तराखंड में वक्त से पहले धमका मानसून घटाटोप बनकर बरस रहा था। मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक पश्चिमी विक्षोभ का गठजोड़ इसे प्रलंयकारी बना रहा था।
इंद्रदेव बूंदों के बाण नहीं वज्र चलाए जा रहे थे। रात खौफनाक हो चली थी। आधी रात होते-होते मंदाकिनी उफना गई थी। पानी ऊपर चढ़ने लगा था। मंदिर परिसर के आसपास के भवनों तक पानी की लहरें मचल रही थीं।
लाखों यात्री केदार बाबा और बदरीनाथ के दर्शनों को केदारघाटी में थे। कोई दिन में बाबा के दर्शन करके होटल, अतिथिगृहों में आराम कर रहा था। कई शाम को केदारनाथ मंदिर के गर्भगृह में आरती और भजन की सुरलहरियों में खोया था।
उत्तराखंड में वक्त से पहले धमका मानसून घटाटोप बनकर बरस रहा था। मौसम वैज्ञानिकों के मुताबिक पश्चिमी विक्षोभ का गठजोड़ इसे प्रलंयकारी बना रहा था।
इंद्रदेव बूंदों के बाण नहीं वज्र चलाए जा रहे थे। रात खौफनाक हो चली थी। आधी रात होते-होते मंदाकिनी उफना गई थी। पानी ऊपर चढ़ने लगा था। मंदिर परिसर के आसपास के भवनों तक पानी की लहरें मचल रही थीं।
प्रशासनिक अमले को हो चला था अहसास
केदारघाटी में मौजूद प्रशासनिक अमले को खतरे का
अहसास हो चला था। आनन-फानन में होटल और अतिथिगृह खाली कराए जाने लगे। लोगों
को जबरन बाहर किया जाने लगा।
बिना इस बात की फिक्र किए कि भीषण बारिश में लोग कहां जाएंगे। खतरे की सीमा, इलाके के भूगोल और अपने भविष्य से अनजान लोग भागने लगे थे।
कोई ऊपर की पहाड़ियों में खुद को सुरक्षित करने में लगा था तो कोई जंगल का रास्ता पकड़ रहा था। जिंदगी बचाने की जद्दोजहद में सुबह हो गई।
उस वक्त केदारनाथ मंदिर में मौजूद वेदपाठी नरेश कुकरेती बताते हैं कि सुबह करीब साढ़े छह बजे तक पानी का वेग कुछ कम हुआ।
उस वक्त वहां मौजूद लोगों के चेहरे पर रात के सही सलामत गुजरने का सुकून था। लेकिन कुदरत को कुछ और ही मंजूर था। सोमवार की सुबह ठीक सवा सात बजे शिव का रौद्र रूप सामने आया।
बिना इस बात की फिक्र किए कि भीषण बारिश में लोग कहां जाएंगे। खतरे की सीमा, इलाके के भूगोल और अपने भविष्य से अनजान लोग भागने लगे थे।
कोई ऊपर की पहाड़ियों में खुद को सुरक्षित करने में लगा था तो कोई जंगल का रास्ता पकड़ रहा था। जिंदगी बचाने की जद्दोजहद में सुबह हो गई।
उस वक्त केदारनाथ मंदिर में मौजूद वेदपाठी नरेश कुकरेती बताते हैं कि सुबह करीब साढ़े छह बजे तक पानी का वेग कुछ कम हुआ।
उस वक्त वहां मौजूद लोगों के चेहरे पर रात के सही सलामत गुजरने का सुकून था। लेकिन कुदरत को कुछ और ही मंजूर था। सोमवार की सुबह ठीक सवा सात बजे शिव का रौद्र रूप सामने आया।
मंदाकिनी के स्रोत पर धमाके के साथ करीब ढाई सौ मीटर ऊंचा काला बादल उठा।
(बाद में पता चला कि भारी बारिश और गर्मी के चलते चौराबारी ग्लेशियर पिघल गया था और केदारनाथ धाम के पीछे गांधी सरोवर टूट चुका था) धूल, गर्द और धुएं का गुबार चारो और फैल गया। अगले ही पल लगा प्रलय आ गई।
(बाद में पता चला कि भारी बारिश और गर्मी के चलते चौराबारी ग्लेशियर पिघल गया था और केदारनाथ धाम के पीछे गांधी सरोवर टूट चुका था) धूल, गर्द और धुएं का गुबार चारो और फैल गया। अगले ही पल लगा प्रलय आ गई।
ताश के पत्तों की तरह ढह गए भवन
तूफानी हवाओं के साथ आए पानी के तेज बहाव ने वहां
मौजूद भवनों को ताश के पत्तों की तरह ढहाना शुरू कर दिया। अगले ही पल सभी
मौजूद लोग मलबे में बुरी तरह घिरे थे।
इस बीच फिर मूसलाधार बारिश शुरू हो चली थी। चारों ओर बचाओ, बचाओ का स्वर गूंजने लगा था। जिधर देखो उधर लोग बहते, बचने के लिए हाथ-पांव मारते नजर आ रहे थे। चारों ओर मौत नाच रही थी।
अपनी जान बचाने के लाले पड़े थे। बच्चों के सामने मां-बाप, माता-पिता की आंखों के सामने बच्चे, पत्नी के सामने पति, पति के सामने पत्नी को सैलाब में बहते हुए देखने की मजबूरी थी।
हर ओर बेबसी और लाचारी का आलम था। क्रूर कुदरत ने मदद के हर रास्ते बंद कर दिए थे। जब कुदरत की विनाशलीला थमी तो ऐसी मार्मिक कहानियां सामने आईं जिसे सुनकर पत्थरदिल भी मोम हो सकता था।
कुछ ऐसी भी दास्तां होंगी जिसे न तो सुनाने वाला बचा, न ही कोई सुनने वाला।
इस बीच फिर मूसलाधार बारिश शुरू हो चली थी। चारों ओर बचाओ, बचाओ का स्वर गूंजने लगा था। जिधर देखो उधर लोग बहते, बचने के लिए हाथ-पांव मारते नजर आ रहे थे। चारों ओर मौत नाच रही थी।
अपनी जान बचाने के लाले पड़े थे। बच्चों के सामने मां-बाप, माता-पिता की आंखों के सामने बच्चे, पत्नी के सामने पति, पति के सामने पत्नी को सैलाब में बहते हुए देखने की मजबूरी थी।
हर ओर बेबसी और लाचारी का आलम था। क्रूर कुदरत ने मदद के हर रास्ते बंद कर दिए थे। जब कुदरत की विनाशलीला थमी तो ऐसी मार्मिक कहानियां सामने आईं जिसे सुनकर पत्थरदिल भी मोम हो सकता था।
कुछ ऐसी भी दास्तां होंगी जिसे न तो सुनाने वाला बचा, न ही कोई सुनने वाला।
मिट्टी खुरच कर निकाली बेटे की लाश
मध्य प्रदेश के लाचार सुरपाल ने अपनी मां को आंखों
के सामने बहते देखा। केदार बाबा के आशीर्वाद से 41 साल की उम्र में मां बनी
राधिका उनका शुकराना अदा करने आई थी।
आपदा ने उसके जुड़वा बेटे लील लिए। लुधियाना निवासी संदीप सलवान की आंखों के सामने उनका 12 साल का बेटा सर्वेश बचने की जद्दोजहद में पहाड़ी झरने की चपेट में आ गया।
जौनपुर यूपी के उपाध्याय परिवार की तीन बहादुर बेटियों नेहा, विभा और भावना ने अपने मलबे में दबे अपने पिता शिव प्रसाद उपाध्याय को हाथों से मिट्टी खुरच-खुरच कर बचा लिया लेकिन भाई उत्कर्ष का नहीं बचा पाईं।
उसे जब निकाला गया तो वह लाश में तब्दील हो चुका था।
बचे पिता ने कलेजे पर पत्थर रखकर अपनी बेटियों को हौसला दिया और हालात को देखते हुए बेटे उत्कर्ष के शव का मुक्ति प्रदान करने की मंशा से खुद अपने हाथों मंदाकिनी में धकेल दिया।
पूरा परिवार अपलक अपने कलेजे के टुकड़े को तबतक निहारता रहा जब तक मंदाकिनी की लहरों ने उसे पूरी तरह अपने आगोश में नहीं ले लिया।
सहारनपुर की सविता दो दिन तक अपने पति के शव को सीने से चिपकाई बावरी बैठी रही। राजस्थान के यात्री कल्याण सिंह पत्नी मालती समेत जिस भवन में ठहरे हुए थे, उसकी तीसरी मंजिल तक पानी आ गया।
डरे सहमे सभी तीसरी मंजिल पर आ गए। इसी बीच उनकी पत्नी मालती का हाथ छूटा और पानी उसे अपनी ओर खींच ले गया।
आपदा ने उसके जुड़वा बेटे लील लिए। लुधियाना निवासी संदीप सलवान की आंखों के सामने उनका 12 साल का बेटा सर्वेश बचने की जद्दोजहद में पहाड़ी झरने की चपेट में आ गया।
जौनपुर यूपी के उपाध्याय परिवार की तीन बहादुर बेटियों नेहा, विभा और भावना ने अपने मलबे में दबे अपने पिता शिव प्रसाद उपाध्याय को हाथों से मिट्टी खुरच-खुरच कर बचा लिया लेकिन भाई उत्कर्ष का नहीं बचा पाईं।
उसे जब निकाला गया तो वह लाश में तब्दील हो चुका था।
बचे पिता ने कलेजे पर पत्थर रखकर अपनी बेटियों को हौसला दिया और हालात को देखते हुए बेटे उत्कर्ष के शव का मुक्ति प्रदान करने की मंशा से खुद अपने हाथों मंदाकिनी में धकेल दिया।
पूरा परिवार अपलक अपने कलेजे के टुकड़े को तबतक निहारता रहा जब तक मंदाकिनी की लहरों ने उसे पूरी तरह अपने आगोश में नहीं ले लिया।
सहारनपुर की सविता दो दिन तक अपने पति के शव को सीने से चिपकाई बावरी बैठी रही। राजस्थान के यात्री कल्याण सिंह पत्नी मालती समेत जिस भवन में ठहरे हुए थे, उसकी तीसरी मंजिल तक पानी आ गया।
डरे सहमे सभी तीसरी मंजिल पर आ गए। इसी बीच उनकी पत्नी मालती का हाथ छूटा और पानी उसे अपनी ओर खींच ले गया।
उत्तराखंड: कभी पहले सा हो सकेगा केदारनाथ?
पंडित शास्त्री के लिए 16 जून, 2013 एक सामान्य सा दिन था.
पिछली शाम ही उनकी बात केदारनाथ मंदिर में काम करने वाले एक दूसरे पंडित से हो रही थी.उस शाम बारिश हो रही थी और पंडित शास्त्री ने भीगते हुए नीचे की दुकान पर जाकर अपने लिए पांच पैकेट बिस्कुट खरीदे थे.
उन्हें नहीं पता था कि अगले तीन दिनों तक उनकी भूख-प्यास में सिर्फ़ यही बिस्कुट उन्हें जीवित रखने वाले हैं.
रात भर भीषण बारिश और बादल गरजने की आवाज़ से बेचैन रहे पंडित शास्त्री 17 जून को सुबह उठे और घर के बाहर ही खड़े थे कि पीछे से लोगों के चिल्लाने की आवाज़ आई, "बादल फट रहा है बाढ़ आ रही है, भागो".
उन्होंने आनन-फ़ानन में अपने घर के भीतर जाकर दरवाज़ा बंद कर लिया और पहली मंज़िल पर ये देखने गए कि माजरा क्या है.
इस बीच क्लिक करें केदारनाथ मंदिर के पीछे के पहाड़ से एक पूरी नदी के बराबर का पानी आ रहा था जिसमें बड़े पत्थर (बोल्डर) शामिल थे.
आज के दिन
उन्होंने कहा, "पहली मंज़िल पर एक खिड़की पकड़ कर मैंने दो दिन काटे थे. लेकिन पूरे 11 महीने बाद लौटने पर भी सब कुछ जस का तस ही है. सिर्फ़ मंदिर में कुछ पुजारी पूजा-अर्चना करवा रहे हैं. तीर्थयात्री तो सिर्फ़ 20 या 30 ही दिख रहे हैं".
पंडित शास्त्री सच्चाई बयान कर रहे थे. केदारनाथ पूरे एक वर्ष बाद भी वैसा ही उजाड़ है जैसा मैंने खुद 21 जून, 2013 को देखा था.
सैंकड़ों धर्मशालाएं तहस-नहस पड़ी हुई हैं, मंदिर के चारों ओर बाढ़ में बह कर आए विशालकाय बोल्डर बिखरे है और आज भी मलबे के नीचे से शवों के पाए जाने की आवाज़ सुनाई देती है.
दोनों क्लिक करें नेपाल के रहने वाले हैं और पिछले 12 वर्षों से केदारनाथ में तीन महीने के लिए बॉर्डर पार करके रोज़ी की तलाश में आते रहे हैं.
दोनों ही 16 जून, 2013 की रात को रामबाड़ा से एक गुजराती दंपति को अपनी पीठ पर लाद कर मंदिर के निकट छोड़ कर गए थे तभी बारिश शुरू हो गई.
मंदिर के पट
भक्त बहादुर ने बताया, "हमें क्या मालूम था कि सुबह हुई तबाही में वो पूरी धर्मशाला ही बह जाएगी जहाँ उन दोनों को छोड़ा था. हमने तो जान बचा ली, लेकिन नेपाल से हमारी तरह हर सीज़न में आने वाले सैंकड़ों कुली आज भी नहीं मिले. नेपाल जा कर उनके गांवों में देखिए, उनके बच्चे आज भी इंतज़ार कर रहे हैं".आपदा के तीन महीने बाद ही गत वर्ष सितंबर में केदारनाथ मंदिर के पट खोल दिए गए थे और वहां पूजा शुरू कर दी गई थी.
हालांकि सच्चाई ये है कि आपदा के एक वर्ष बाद जब हम मंदिर के ठीक सामने पहुंचे तो तीर्थयात्री इतने भर थे कि उँगलियों पर गिने जा सकते थे.
मंदिर के भीतर मात्र सात पुजारी मौजूद थे जो बुझे मन से श्रद्धालुओं को एक-एक कर पूजा करवा रहे थे.
मंदिर के अंदर तो सब सामान्य लगता है लेकिन वहां के चबूतरे से खड़े होने पर पूरा केदारनाथ आज भी किसी श्मशान से कम नहीं दिखता.
ये वही चबूतरा है जहाँ पिछले वर्ष सैंकड़ों शव नदी के सैलाब में बह कर आ गए थे और मंदिर के बाहर पांच फुट मलबा जम गया था.
अभी भी बरामद हो रहे हैं कंकाल
उन्होंने कहा, "मुझे पूरा भरोसा है कि यहाँ मलबे के नीचे अभी भी सैंकड़ों शव दबे होंगे. सरकार से प्रार्थना है कि पूरे इलाक़े की दोबारा खुदाई करवाएं".
संजय की तरह कई अन्य हैं जिन्होंने महीनों से सरकार पर दोबारा शवों को ढूढ़ने का दबाव बना रखा है.
कुछ ही दिन पहले केदारनाथ और गौरीकुंड के रास्ते पर जंगलचट्टी नामक इलाक़े में 10 कंकाल बरामद हुए थे.
इसके बाद से प्रदेश सरकार ने पुलिस महानिरीक्षक के रैंक के अफ़सर की अगुवाई में एक व्यापक खोजी दल का गठन किया है.
इस दल का काम होगा उन सैंकड़ों लोगों के शवों को ढूंढना जिनका आज तक कोई सुराग नहीं मिल सका है.
जान बचाने में रहे सफल
गाज़ियाबाद के जनार्दन राय और उनकी पत्नी अंजुला ने पिछले वर्ष 15 जून को केदारनाथ की चढ़ाई शुरू ही की थी कि ख़राब मौसम का संदेश पहुंचा और उसके बाद तबाही की ख़बरें आने लगीं.
वापस तो लौट गए लेकिन इस प्रण के साथ की दोबारा आएंगे.
जनार्दन राय ने बताया, "पिछली बार ऊपर वाले ने जान बचाई तो इस बार तो उनका दर्शन करने आना ही था. हमें तो कोई दिक़्क़त नहीं हुई पहुँचने में, बस हेलीकॉप्टर से आए हैं तो किराया तो होगा ही."
लेकिन हक़ीक़त यही है कि हर वर्ष की तुलना में अगर इस वर्ष लगभग एक चौथाई तीर्थयात्री में धामों की यात्रा पर उत्तराखंड आ गए तो बड़ी बात होगी.
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