Saturday 28 June 2014

आलेख : सत्य! भारत के भीतर एकवंचित भारत --एक अदद आशियाने का बुनियादी हक?...जनगणना के नए आंकड़ों से यह तो पता चल सकता है कि देश में मात्र 29.6 फीसद परिवारों को पक्की छत नसीब | social Disparity

आलेख : सत्य! भारत के भीतर एकवंचित भारत --एक अदद आशियाने का बुनियादी हक?...जनगणना के नए आंकड़ों से यह तो पता चल सकता है कि देश में मात्र 29.6 फीसद परिवारों को पक्की छत नसीब | social Disparity

Updated: Sat, 28 Jun 2014 01:00 AM
और जानें : Homeless people | fundamental rights | Govt | social Disparity |

सत्य अनुभव की चीज है, तथ्य आकलन की। तथ्य यह है कि भारत के भीतर एक वंचित भारत रहता है और इस वंचित भारत का निर्माण मुख्य रूप से दलित तथा आदिवासी समुदाय से हुआ है। और सत्य यह कि इस वंचित भारत का निर्माण उसे जीवन जीने के लिए जरूरी बुनियादी सेवाओं-सुविधाओं से बेदखल करके हुआ है।

बेदखली को तथ्य रूप में लक्ष्य करना आसान है, लेकिन प्रक्रिया के रूप में देख-समझ पाना बहुत मुश्किल। उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर यह देखा जा सकता है कि दलित व आदिवासी समुदाय के सदस्य बुनियादी सुविधाओं के मामले में राष्ट्रीय औसत से दहाई अंकों में पीछे हैं, लेकिन इसके पीछे कौन-से कारक जिम्मेदार हैं, यह शोध का विषय बना रहता है।

 मसलन, जनगणना के नए आंकड़ों से यह तो पता चल सकता है कि देश में मात्र 29.6 फीसद परिवारों को पक्की छत नसीब है, जबकि दलित समुदाय के मात्र 21.9 प्रतिशत परिवारों के पास ही ऐसे घर हैं और आदिवासी समुदाय में ऐसे परिवारों की संख्या महज 10.1 प्रतिशत है। आंकड़ों में ऐसा ही अंतर बिजली, पानी से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा के मामले में भी लक्ष्य किया जा सकता है। लेकिन आंकड़ों के आधार पर आप बुनियादी सुविधाओं के मामले में राष्ट्र्रीय औसत से किसी समुदाय के दहाई अंकों में पीछे रहने के कारणों को नहीं जान सकते।
कारणों को जानने की दिशा में यह प्रश्न पूछना सहायक सिद्ध हो सकता है कि कोई व्यक्ति या समुदाय जिस राज-व्यवस्था के भीतर रह रहा है, वह स्वयं बुनियादी सुविधाओं का अर्थ क्या समझती है? 

मसलन, आवास सुविधा की ही बात करें। आवास के अर्थ के अंतर से राज-व्यवस्था की आवास-विषयक सोच में अंतर आ सकता है, जो एक वृहत्तर आबादी को घर की सुविधा प्रदान करने के मामले में निर्णायक साबित हो सकता है। जैसे, राष्ट्रीय शहरी आवास नीति (2007) में स्वीकार किया गया है कि आवास बुनियादी मानवीय जरूरतों में से एक है। ऐसा कहने के बावजूद भारतीय राज-व्यवस्था आवास को व्यक्ति के मौलिक अधिकार के तौर पर स्वीकार नहीं करती। वह बस इतना मानती है कि देश के नागरिक को आवास की सुविधा देना राज्य का एक नैतिक दायित्व है। इसके बरक्स अगर संयुक्त राष्ट्र संघ की शब्दावली पर गौर करें तो यह संस्था समुचित आवास को एक मानवाधिकार के रूप में स्वीकार करती है। 'अधिकार" शब्द के प्रयोग के कारण अर्थ में आए अंतर को लक्ष्य किया जा सकता है। अधिकार व्यक्ति या समुदाय की तरफ से एक ऐसा दावा है, जिसे पूरा करने की गारंटी स्वयं राज्य की होती है। 

आश्चर्य नहीं कि जब आवास की बात आती है तो सार्वजनिक जीवन की कुछ जरूरी संस्थाएं इसे 'बुनियादी जरूरत" व 'अधिकार" की बहस से दूर खींचकर सीधे खरीदने-बेचने की क्षमता तक सीमित कर देती हैं। यानी, घर का मतलब एक ऐसी चीज जो दाम देकर हासिल की जाए और जेब में दाम ना हों तो बेपता-बेठिकाना रहा जाए। इसी सोच का नतीजा है कि नेशनल हाउसिंग बैंक आवासन को बुनियादी जरूरत की चीज के रूप में स्वीकार करने के बावजूद एक ऐसी सहायक सामग्री के रूप में देखता है, जिसके सहारे वित्त-बाजार से कर्ज लेने की गतिविधियों में इजाफा होता है। 

देश की वृहत्तर आबादी को गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए जरूरी बुनियादी सुविधाओं से वंचित करने का आयोजन सबसे पहले सोच के स्तर पर होता है और इसे समझने के लिहाज से इंडिया एक्सक्लूजन रिपोर्ट (2013-14) बेहद अहम है। सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज की यह रिपोर्ट मुख्यत: तीन बातों पर ध्यान खींचती है। एक तो यह कि जिसे राजनीतिक भाषा के भीतर हम विकास यानी रोटी-कपड़ा-मकान, सेहत, शिक्षा, बिजली, पानी, सड़क और शौचालय आदि के होने से जोड़ते हैं, उन्हें लोगों तक पहुंचाने का जिम्मा मुख्यत: राज्यसत्ता का ही है। इस जिम्मेवारी को मुक्त बाजार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता, क्योंकि ये चीजें सबके लिए समान रूप से जरूरी हैं, लेकिन सबके पास बाजार की कीमत चुकाकर इन्हें हासिल करने की क्षमता नहीं है।

 दूसरे, भारत के संदर्भ में बुनियादी सेवाओं-सामानों को नागरिक तक पहुंचाने की राज्यसत्ता की विशेष जिम्मेवारी है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने कई दफे सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को संविधान-प्रदत्त जीवन जीने के मौलिक अधिकार का विस्तार मानकर फैसले दिए हैं। भारत में नागरिक को हासिल जीवन के मौलिक अधिकार का अर्थ है, उन सारी चीजों का अधिकार जो एक सम्मानजनक जीवन को संभव बनाती हैं, जैसे कि पोषक-आहार, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा, सम्मानजनक रोजगार, उचित आवास और सामाजिक सुरक्षा। तीसरी बात कि बेदखली को जन्म देने और बनाए रखने वाली प्रणालियां व्यापक और इनका आपसी संबंध पेचीदा होता है और ये संबंध राज्य, बाजार और समाज, तीनों स्तरों पर सक्रिय रहते हैं। 

बुनियादी सुविधाओं-सामानों तक सभी की पहुंच सुनिश्चित न करना या सबके लिए इनको जुटाने में विफल रहना दरअसल राज्यसत्ता द्वारा नागरिक को उसके जीवन जीने के अधिकार बेदखल करने का एक संकेत है।
नई सरकार का वादा अंतिम-जन को ध्यान में रखकर विकास कार्य करने का है। ऐसे में इंडिया एक्सक्लूजन रिपोर्ट भारत में राज्यसत्ता के स्वभाव की परीक्षा के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

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