Wednesday 25 June 2014

दिल्ली में 'ख़ामोश मौत मरते बर्मा के ये लोग',...डॉक्टर स्वे शरणार्थियों को मुफ़्त इलाज मुहैया करा रहे हैं और उन्होंने 344 गर्भवती महिलाओं का प्रसव कराया है.

दिल्ली में 'ख़ामोश मौत मरते बर्मा के ये लोग'...

डॉक्टर स्वे शरणार्थियों को मुफ़्त इलाज मुहैया करा रहे हैं और उन्होंने 344 गर्भवती महिलाओं का प्रसव कराया है.

 बुधवार, 25 जून, 2014 को 13:16 IST तक के समाचार

दिल्ली में बर्मी शरणार्थी
पश्चिमी दिल्ली के सीतापुरी इलाके में 30 वर्षीय सिमिन बिस्तर पर अपनी डेढ़ साल की बच्ची के साथ खेल रही हैं.
उनकी दो बेटियां हैं और वह एक कमरे के मकान में रहती हैं. जब मैं उनसे मिलने पहुंचा तो बिजली नहीं थी.
वह 2009 में अपने पति के साथ बर्मा से भागकर भारत आईं. था-वा दिल्ली में रहने वाले 12 हजार से ज़्यादा बर्मी शरणार्थियों में शामिल हैं. इनमें 95 प्रतिशत बर्मा के चिन प्रांत से हैं जबकि बाकी रोहिंग्या और काचिन शरणार्थी हैं.
ये शरणार्थी अपने देश में मुश्किल हालात से बचने के लिए भारत आए, लेकिन कई लोगों के अनुभव भारत में बहुत कड़वे रहे हैं.

'ऐसा कैसे कर सकता है'

था-वा बताती हैं कि चार महीने पुरानी बात है जब जनकपुरी में उनके घर में एक स्थानीय 12 वर्षीय लड़के ने उनकी बड़ी बेटी का शीरीरिक उत्पीड़न किया, जिसके बाद उनकी बेटी के गुप्तांग से खून निकलने लगा. उस वक्त इस बच्ची की उम्र दो साल थी.
वे जब उसे नज़दीकी दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल ले गए तो डॉक्टरों ने ये कहते हुए उन पर ध्यान नहीं दिया, “इतनी छोटी बच्ची के साथ कोई ऐसा कैसे कर सकता है?”
बर्मी शरणार्थियों से जुड़े ऐसे और भी कई मामले हैं. नवंबर 2013 में एक दुकानदार ने आठ वर्ष की एक लड़की का बलात्कार करने की कोशिश की. लेकिन एक दस साल के लड़के ने ये सब देखा और पास ही खेल रहे अपने दोस्तों को बताया. उनमें से एक बच्चा चिल्लाया तो लोगों ने पुलिस को बुलाकर लड़की को छुड़ाया.
दिल्ली में बर्मी शरणार्थी
चश्मीद के पेट पर वार किया गया
पुलिस ने चाइल्ड हेल्पलाइन को फोन किया और मामला दर्ज कराया, लेकिन इसके बाद कम से कम बीस लोगों ने न सिर्फ़ लड़की के परिवार वालों को धमकाया बल्कि चश्मदीदों को भी गंभीर परिणाम भुगतने की धमकियां दीं.
इसी महीने की 13 तारीख़ को इस मामले से जुड़े एक चश्मदीद पर तीन स्थानीय लोगों ने धारदार हथियार से हमला किया जिसके बाद उनके पेट में 18 टांके लगे.

'ख़र्चीला इंसाफ़'

'बर्मा सेंटर' नाम के संगठन की सस्थापक डॉक्टर अलामा गोइमोई का कहना है कि बर्मी शरणार्थियों को लेकर लोग अकसर फब्तियां कसते हैं. उनके अनुसार उन्हें अकसर ‘चिंकी’, ‘नेपाली’ और ‘मोमोज़’ जैसे नामों से पुकारा जाता है.
चिन मानवाधिकार संगठन की प्रोजेक्ट अफसर रोज़ालिन जाहाऊ ने बताया कि उनके पास दिल्ली में पिछले तीन साल के दौरान महिला और बच्चों के ख़िलाफ़ हिंसा से जुड़े 200 मामलों की जानकारी है.
कई बार खुद ये शरणार्थी ही यौन और लैंगिक हिंसा और नस्लवाद से जुड़े मामलों में शिकायत दर्ज नहीं कराना चाहते हैं. उन्हें लगता है कि पुलिस और अस्पताल के कर्मचारी उनका नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों का ही साथ देंगे.
इसके अलावा इंसाफ़ की लड़ाई लड़ना भी कम ख़र्चीला नहीं है. एक दिन की सुनवाई में एक दिन की कमाई चलाई जाती है.
इसके अलावा क़ानूनी भाषा और स्थानीय कानून को समझने और स्थानीय लोगों की तरफ से बहिष्कार और पलटवार किए जाने जैसे समस्याएं भी होती हैं.

मुश्किल ज़िंदगी

बहुत से बर्मी शरणार्थी छोटे-मोटे काम करके अपना गुज़ारा कर रहे हैं. इनमें ज़्यादातर छोटी फ़ैक्ट्रियों में मज़दूरी करते हैं, सफ़ाई करते हैं, वेटर, राजमिस्त्री या घरेलू नौकर का काम करते हैं.
उनका आरोप है कि उन्हें कम पैसे दिए जाते हैं और काम भी अकसर औसत से ज्यादा लिया जाता है. कई बार महिलाओं को काम के दौरान यौन हिंसा का सामना भी करना पड़ता है.
जेसुइस्ट शरणार्थी सेवा, दक्षिण एशिया के एक अध्ययन ‘दिल्ली में चिन शरणार्थी: चुनौतियां और सच्चाई’ के अनुसार 58.4 प्रतिशत परिवारों की महीने भर की आमदनी पांच हजार रुपए से भी कम है जबकि एक कमरे वाले मकान के लिए उन्हें ढाई से तीन हजार रुपए किराया देना होता है जबकि मकान मालिक बिजली के प्रति यूनिट साढ़े आठ रुपए वसूलते हैं.
ऐसे में उनके पास अपने खाने और स्वास्थ्य पर खर्च करने के लिए बहुत कम पैसे बचते हैं. यही वजह है कि दिल्ली में रहने वाले बर्मी शरणार्थी बाज़ार में बची खुची सब्ज़ी खरीदते हैं, इसीलिए कई बार वो बीमारियों का शिकार हो जाते हैं.
यमुना क्लीनिक के संस्थापक तिंत स्वे का कहना है, “शरणार्थी टीबी, हेपेटाइटिस ए, बी और सी के कारण खामोश मौत मर रहे हैं. कुपोषण के कारण उन्हें अनीमिया हो रहा है, इससे उनकी नज़र कमजोर हो रही है और वे कई दूसरी बीमारियों के भी शिकार बन रहे हैं.”

नीति का आभाव

डॉक्टर स्वे शरणार्थियों को मुफ़्त इलाज मुहैया करा रहे हैं और उन्होंने 344 गर्भवती महिलाओं का प्रसव कराया है.
अध्ययन में हिस्सा लेने वाले लगभग साठ प्रतिशत लोगों ने आरोप लगाया कि दीन दयाल उपाध्याय में उनका सही से इलाज नहीं होता है.
संयुक्त राष्ट्र से हुए अनुबंध के मुताबिक बर्मी शरणार्थियों का दीन दयाल उपाध्याय अस्पताल में मुफ़्त इलाज होता है.
भारत दुनिया के उन कुछ देशों में शामिल है जिसने शरणार्थियों पर संयुक्त राष्ट्र के 1951 के समझौते और 1967 की प्रोटोकॉल पर दस्तखत नहीं किए हैं. इसके बावजूद भारत अफ़ग़ानिस्तान, तिब्बत, श्रीलंका और बर्मा से आने वाले लोगों को शरण देता है.
लेकिन जाहाऊ कहती हैं कि शरणार्थियों को लेकर रुख़ साफ नहीं होने के कारण इन बेसहारा लोगों के लिए मुश्किलें होती हैं. उनका कहना है, “स्पष्ट नीति न होने से हर मामले से अलग तरीके से निपटा जाता है. इससे शरणार्थियों के बीच भेदभाव पैदा होता है जिससे उनकी नागरिक और राजनीतिक सुरक्षा प्रभावित होती है. उनके कल्याण और सुरक्षा के लिए कोई क़ानूनी प्रावधान भी नहीं है.”

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