Tuesday 8 July 2014

मुसलमान शरिया कोर्ट क़ानूनी नहीं: सुप्रीम कोर्ट :::: 'मजहबी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे बर्दाश्त':धर्मगुरुओं ने कहा

मुसलमान शरिया कोर्ट क़ानूनी नहीं: सुप्रीम कोर्ट :::: 'मजहबी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे बर्दाश्त':धर्मगुरुओं ने कहा


8 जुलाई, 2014


सुप्रीम कोर्ट (फ़ाइल)
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि शरिया अदालतों को क़ानूनी मान्यता नहीं है.

अदालत ने कहा कि किसी भी व्यक्ति के ख़िलाफ़ क्लिक करें फ़तवा जारी नहीं किया जा सकता अगर उससे उस व्यक्ति के अधिकारों का हनन होता हो.
कोर्ट का कहना था कि दारूल कज़ा किसी शख्स के खिलाफ़ तबतक कोई फ़तवा जारी न करें जबतक कि उस व्यक्ति ने ख़ुद इसके बारे में मांग न की हो.
अदालत समानांतर अदालतों की कारवाई पर विश्व लोचन मदन की याचिका पर सुनवाई कर रही थी.

'लोगों की आज़ादी में दख़ल'

याचिकाकर्ता का कहना था कि शरिया अदालतें ग़ैर क़ानूनी हैं क्योंकि वो समानांतर कोर्ट के तौर पर काम करती हैं और मुल्क में रहने वाले मुसलमानों के सामाजिक और धार्मिक आज़ादी से जुड़े मामलों पर फ़ैसले लेती रहती हैं.
उनका कहना था कि मुसलमानों की मूलभूत अधिकारों पर किसी काज़ी, मुफ़्ती या धार्मिक संगठन के जरिये रोक नहीं लगाई जा सकती.
विश्व लोचन मदन ने एक उदाहरण देते हुए कहा था कि एक औरत को एक फ़तवे के बाद अपने पति को छोड़कर ससुर के साथ रहने को मजबूर होना पड़ा था.

'मजहबी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे बर्दाश्त':धर्मगुरुओं ने कहा

 
'मजहबी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे बर्दाश्त'

श्रीनगर/लखनऊ। सुप्रीम कोर्ट के अहम फैसले पर उलेमा और मुस्लिम धर्मगुरुओं ने कहा है कि शरई अदालतों में कुरान व हदीस की रोशनी में फैसले होते हैं। इनको मानना लोगों की मर्जी पर निर्भर करता है। लेकिन दूसरी ओर कश्मीर के उलेमा इस बात से इत्तफाक नहीं रखते हैं।
उच्चतम न्यायालय द्वारा शरई अदालतों को अवैध करार दिए जाने व उनके फैसलों को मौलिक अधिकारों के खिलाफ बताए जाने को कश्मीर के उलेमा ने इस्लामी मामलों में दखलंदाजी करार देते हुए कहा कि इसे कतई सहन नहीं किया जा सकता। इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
कश्मीर के डिप्टी मुफ्ती-ए-आजम मुफ्ती नासिर-उल-इस्लाम ने कहा कि शरियत अदालतें पूरी तरह इस्लाम के मुताबिक काम करती हैं। हमारा मजहब इनकी इजाजत देता है। यह लोगों की मर्जी से नहीं, बल्कि मजहबी आधार पर बनती हैं।
उन्होंने कहा कि उच्चतम न्यायालय के फैसले से हालांकि कश्मीर पर कोई असर नहीं होने वाला है। मुसलमान इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते। मुफ्ती नासिर-उल- इस्लाम कश्मीर के उसी मुफ्ती-ए-आजम मुफ्ती बशीरुद्दीन के पुत्र हैं, जिन्होंने गत दिनों कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए वादी में सेटलाइट सिटी बसाने का विरोध किया था। मुफ्ती-ए-आजम आजकल बीमार हैं।
वहीं बरेली की दरगाह आला हजरत के दारुल इफ्ता की तरफ से कहा गया है कि फतवे अपनी तरफ से नहीं कुरान और हदीस की रोशनी में दिए जाते हैं। किसी को सजा नहीं सुनाई जाती। मुफ्ती-ए-कराम ने कहा है कि इस मामले पर मंगलवार को बैठक बुलाई गई है।
वाराणसी के काजी-ए-शहर मौलाना गुलाम यासीन व अध्यक्ष शरई अदालत ने कहा कि पूरी दुनियां में शरई अदालतें 1400 वर्षो से कार्य कर रही हैं। यह किसी अदालती फैसले को चुनौती देने के लिए नहीं है। शिया जामा मस्जिद प्रवक्ता सैय्यद फरमान हैदर का कहना है कि फतवों पर अमल करना या न करना लोगों की मर्जी पर निर्भर है। इस्लामिक फाउंडेशन आफ इंडिया के अध्यक्ष शेख मोहम्मद खुर्शीद ने कहा कि शरई अदालतें न्यायपालिका के समानांतर नहीं हैं।
उलमा-ए-देवबंद ने कहा है कि शरई अदालतों का निर्णय न तो कोर्ट को चुनौती देता है और न ही जबर्दस्ती किसी पर लागू किया जाता है। शरई अदालतें एक तरह से मुल्क की अदालतों का बोझ कम करने का काम भी कर रही हैं। बहुत सारे मामले यहीं निपट जाते हैं। दारुल उलूम वक्फ के वरिष्ठ उस्ताद मुफ्ती मोहम्मद आरिफ कासमी ने कहा कि शरई अदालतों के पास ऐसी कोई ताकत नहीं है कि वह अपने फैसले को जबर्दस्ती किसी से मनवा सके। शरई अदालत या दारुल कजा कभी भी देश की अदालतों से नहीं टकराती।

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