EDITORIAL: पर्यावरण की अनदेखी ; मोदी सरकार का पर्यावरण की चिंता करने के बजाय उद्योग-हितैषी दिखना पसंद |
Monday, 09 July 2014 | |||||||||
पर्यावरण संरक्षण को लेकर मोदी सरकार ने जैसा रुख अपनाया हुआ है, वह चिंता का विषय होना चाहिए। कुछ ही दिनों में सरकार ने ऐसे कई फैसले किए हैं जो पर्यावरण के प्रति उसके गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार को दर्शाते हैं। सबसे पहले पोलावरम परियोजना के तहत विस्थापित होने वाले गांवों की संख्या बढ़ाई गई, जिस पर तेलंगाना के सांसद राष्ट्रपति से मिल कर विरोध जता चुके हैं। विडंबना है कि यह फैसला अध्यादेश के जरिए लागू किया गया, जबकि यूपीए सरकार ने जब भी अध्यादेश का सहारा लिया, उसे कोसने में भाजपा ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यह मोदी सरकार का दूसरा अध्यादेश था; पहला अध्यादेश वह था जिसके जरिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मनपसंद प्रधान सचिव की नियुक्ति के लिए ट्राइ के नियमों में संशोधन किया। पोलावरम संबंधी अध्यादेश के बाद, नर्मदा बांध की ऊंचाई सत्रह मीटर बढ़ाने का फैसला हुआ। जबकि पहले के सभी विस्थापितों का पुनर्वास पूरा नहीं हो पाया है, और सर्वोच्च न्यायालय कह चुका है कि जब तक ऐसा नहीं हो जाता, बांध की ऊंचाई नहीं बढ़ाई जानी चाहिए। लेकिन राज्यपालों के बारे में संविधान पीठ के फैसले को धता बताने वाली सरकार ने इस मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय की हिदायत को ताक पर रख दिया। अब खबर है कि रेणुका बांध के जिस प्रस्ताव को यूपीए सरकार ने आखिरकार छोड़ देना ही ठीक समझा था, उसे मोदी सरकार पर्यावरणीय मंजूरी देने का इरादा बना चुकी है। हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में यमुना की सहायक नदी गिरि पर रेणुका बांध बनाने का प्रस्ताव यूपीए सरकार के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने खारिज कर दिया था, यह देखते हुए कि बत्तीस गांव विस्थापित होंगे, तेरह सौ हेक्टेयर उपजाऊ जमीन और नौ सौ हेक्टेयर सघन वन डूब में आएंगे। उनके बाद पर्यावरण मंत्रालय की कमान जयंती नटराजन के हाथ में आई, पर उन्होंने भी पर्यावरण-हानि, विस्थापन और स्थानीय लोगों के विरोध के मद््देनजर रेणुका बांध के प्रस्ताव को मंजूरी नहीं दी। पर मौजूदा पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर को उस चीज की फिक्र नहीं है जिसके वे मंत्री हैं, पर्यावरण की चिंता करने के बजाय वे उद्योग-हितैषी दिखना पसंद करतेहैं। कहने की जरूरत नहीं कि वे मोदी सरकार की प्राथमिकता के हिसाब से चल रहे हैं। यों यूपीए सरकार के समय भी परियोजनाओं को पर्यावरणीय मंजूरी देने में कम उदारता नहीं दिखाई गई, इसके लिए पर्यावरण संरक्षण और वनरक्षा कानून की अनदेखी भी होती रही। हालांकि उद्योग जगत को पर्यावरणीय मंजूरी मिलने में तमाम तरह की अड़चनें आने की शिकायत रही, पर हकीकत यह है कि पिछले दस सालों में बड़े पैमाने पर वनभूमि औद्योगिक इकाइयों और खनन परियोजनाओं की भेंट चढ़ गई। स्वीकृत परियोजनाओं की तुलना में नामंजूर किए गए प्रस्तावों का अनुपात ढाई फीसद से अधिक नहीं रहा।
मोदी सरकार पर्यावरण की अनदेखी करने
में और भी निर्मम नजर आती है। रेणुका बांध के प्रस्ताव के पक्ष में दिल्ली
की पानी की जरूरत पूरी करने की दलील दी जा रही है। पहले भी यही तर्क दिया
गया था। तब के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि परियोजना को मंजूरी
देने पर वे तभी विचार करेंगे, जब पहले दिल्ली जल बोर्ड आपूर्ति और प्रबंधन
में होने वाले नुकसान में कम-से-कम चालीस फीसद कमी लाकर दिखाए। यह शर्त
कभी पूरी नहीं हुई। दिल्ली में पानी की समस्या यमुना के विनाश और सैकड़ों
तालाबों और झीलों का वजूद खत्म कर देने का नतीजा है। एक और पर्यावरण-विरोधी
निर्णय करने के बजाय सरकार को दिल्ली के जल संकट के असल कारणों पर ध्यान
देना चाहिए।
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