Tuesday 1 October 2013

मुफ्तखोर भारतीय समाज 300 रूपये में 250 चैनल देखना चाहता है : राजदीप सरदेसाई

मुफ्तखोर भारतीय समाज 300 रूपये में 250 चैनल देखना चाहता है : राजदीप सरदेसाई

दीप प्रज्ज्वलन करते राजदीप , आशुतोष  आदि
दीप प्रज्ज्वलन करते राजदीप , आशुतोष आदि
आम जनता का स्वभाव बन गया कि व टीवी चैनल को देखती है और साथ में उसे कोसती भी है क्या इसे हम टीवी चैनलों की विश्वसनीयता पर संकट कहे। टीवी चैनलों के आने के बाद जो कुछ गलत हो रहा था उसे लोगों के बीच में लाने का काम शुरु हुआ।
चैनलों के सामने दो तरह की चुनौतियां है, जिससे हमें मुकाबला करना है। यह सही है कि जिनके पास कालाधन है, बिल्डर है, रीयल एस्टेट से जुड़े हैं और राजनीति में रसूखदार है उन लोगों ने टीवी चैनल शुरु किए, लेकिन अधिकांश आज घाटे में हैं।
भारतीय समाज को मुफ्त में खाने की आदत सी पड़ गई है इसलिए वह ३०० रुपए में २५० चैनल देखना चाहता हैं। इस फिल्ड में यदि किसी ने पैसा बनाया तो वो केबल ऑपरेटरों ने। टीवी चैनलों को एक बड़ी राशि इन ऑपरेटरों को देना पड़ती है। यदि नासिक शहर में छगन भुजबल के खिलाफ कोई स्टोरी दिखाई जाती है तो केबल वाले उसे काट देते हैं। यही स्थिति चेन्नई में जयललिता के खिलाफ दिखाओ तो होती है।
टीवी चैनल के आने के बाद हर आधे घंटे पहले जो दिखाया गया वह इतिहास बन जाता है। दरअसल टीवी पत्रकारिता में टीआरपी का जोर है और वहां भी रैंकिंग हो रही है। जिस चैनल की रैकिंग ज्यादा वह सबसे बड़ा चैनल। जब एक टीवी पत्रकार ने बिहार के प्रोफेसर की प्रेम कहानी पर स्टोरी बनाई तो उसे टॉप टेन में रैंकिंग मिल गई।
कहने का मकसद यह है कि कई मर्तबा टीआरपी की दौड़ में टीवी पत्रकार ऐसी स्टोरी बनाते हैं, जिसका जनता से कोई सरोकार नहीं या जिसमें राष्ट्रीय हित की कोई बात नहीं। यह कहना गलत है कि पत्रकार बिके हुए हैं। अगर कोई पत्रकार मोदी के साथ है और राहुल के साथ नहीं तो उसे राहुल के समर्थक गलत मानते हैं, जबकि पत्रकार को पूरी तरह स्वतंत्र होना चाहिए तभी वह अपनी खबर के साथ और आम जनता के साथ न्याय कर सकेगा।
टीवी चैनल को २४ घंटे कार्यक्रम दिखाना होते हैं, इसलिए वे अपनी न्यूजरूम में हर खबर के साथ ड्रामा का तड़का लगा देते हैं ताकि लोगों का आकर्षक चैनल के प्रति बना रहे। वर्ना लोग रिमोट का बटन दबाकर चैनल बदल देंगे। जैसे किसी एंकर को क्राइम पर स्टोरी करना है तो कई बार उसे अपराधी जैसा भी बनना पड़ता है। आज की टीवी पत्रकारिता भी बॉक्स ऑफिस जैसी हो गई है। पहले फिल्में ही बॉक्स ऑफिस में कलेक्शन करती थी अब टीवी चैनल भी ऐसा करने लगे हैं।
(राजदीप सरदेसाई का एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया और इंदौर प्रेस क्लब के संयुक्त तत्वावधान में ‘पत्रकारिता का नया दौर और चुनौतियां’ विषय पर होटल फार्च्यून लैंडमार्क में आयोजित राष्ट्रीय परिसंवाद में दिया गया भाषण)

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