Thursday, 12 September 2013

वाजपेयी और मोदीः क्या इस बार सधेगा 13 का अड़ंगा?

वाजपेयी और मोदीः क्या इस बार सधेगा 13 का अड़ंगा?

will modi defy the dbad omen of 13 this time

सियासत ऐसी बला है कि चंद सीढ़ी चढ़ते ही साथियों को भी दुश्मनों की कतार में खड़ा कर देती है। कल 13 तारीख है। और मोदी की ताजपोशी की संभावनाएं आसमान छू रही हैं। लेकिन क्या वह 13 के आंकड़े से पार पा सकेंगे?

दरअसल, 13 तारीख चीज ही ऐसी है कि भाजपा इसे भुलाए नहीं भूल सकती। पार्टी को बुलंदियों तक पहुंचाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी को यह आंकड़ा अब भी नहीं भूला होगा। और मोदी को भी याद होगा।

ऐसी उम्मीद जताई जा रही है कि 13 सितंबर को भाजपा पीएम पद के उम्मीदवार के रूप में मोदी के नाम पर अंतिम मुहर लगा सकती है। एक धड़ा उनके नाम का ऐलान करने की पैरवी लंबे वक्‍त से कर रहा है।

आडवाणी क्यों अड़े?
लेकिन बुधवार को पार्टी दिन भर मेहनत करती रही कि शुक्रवार को ऐसा मुमकिन हो सके। पार्टी के दिग्गज नेता और वाजपेयी के साथी रहे लालकृष्‍ण आडवाणी इस बात पर अड़ गए हैं।

उनका कहना है कि अगर पीएम दावेदार के रूप में मोदी के नाम का ऐलान नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले होता है, तो इससे भाजपा को नुकसान होगा।

आडवाणी की दलील है कि यह कदम आत्मघाती साबित हो सकता है, क्योंकि सारी निगाहें कांग्रेस की नाकामियों से अचानक मोदी की विवादास्पद छवि की ओर घूम जाएंगी और विरोधी राजनीतिक दल इसे भुनाने का कोई मौका नहीं चूकेंगे।

पार्टी के इस वरिष्ठ नेता को लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और मुरली मनोहर जोशी का पूरा साथ मिल रहा है। हालांकि, संघ साफ कर चुका है कि भाजपा को अब मोदी के नाम का ऐलान करने में और देर नहीं करनी चाहिए।

लेकिन आडवाणी की बात इतनी आसानी से खारिज भी नहीं की जा सकती। सवाल यह है कि ‌क्या नरेंद्र मोदी 13 की अड़चन दूर कर पाएंगे, जो एक वक्‍त अटल बिहारी वाजपेयी का सिरदर्द बन चुकी है।

वाजपेयी और 13 का कनेक्‍शन
राजनीतिक इतिहास में भी यह आंकड़ा खास दर्ज है। 1996 भाजपा ने बड़ी मशक्कत के बाद वाजपेयी की अगुवाई में सरकार बनाई, लेकिन सियासत का कच्चा अनुभव उन्हें ले डूबा।

तय वक्‍त में पार्टी पर्याप्त समर्थन जुटाने में नाकाम साबित हुई। नतीजा यह हुआ है कि 13 दिन में ही सरकार गिर गई।

वाजपेयी के सामने 13 का मनहूस आंकड़ा एक बार फिर आया। दो साल बाद भाजपा फिर सत्ता की गद्दी तक पहुंची, लेकिन इस बार भी बच न सकी।

1998 में गिरधर गमांग के खेल ने भाजपा को आउट कर दिया। वाजपेयी को केवल 13 महीने बाद इस्तीफा देना पड़ा।

क्या मोदी पार पाएंगे 13 से?
अब बात करें मोदी और 13 के आंकड़े की। दरअसल, भाजपा ने जो सपना वाजपेयी की निगाहों में देखा और उसे हकीकत तक पहुंचाया, वही ख्वाब एक बार फिर उन्हें मोदी की आंखों में दिख रहा है।

पार्टी उम्मीद कर रही है कि वाजपेयी की तरह मोदी का करिश्‍मा भी काम करेगा और भाजपा एक बार फिर कांग्रेस को धूल चटाते हुए कुर्सी तक पहुंचने में नाकाम रहेगी।

यह देखना दिलचस्प होगा कि वाजपेयी के लिए बार-बार मुश्किलें खड़े करने वाला 13 का आंकड़ा क्या मोदी के लिए भी बदकिस्मत साबित होता है? ‌या फिर वह जुगत लगाकर इससे पार पाने में कामयाब रहते हैं।

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