दंगा: शाम ढलती गई, लाशें बिछती गईं
कवाल प्रकरण में छिड़ी सियासत नफरत को बढ़ाती गई।
अंजाम सामने है, दोनों समुदाय एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए। शाम ढलती
गई, लाशें बिछती गईं।
सरकार का हर कदम राजनीति के नफे-नुकसान पर टिका रहा। यही भूमिका राजनीतिज्ञों ने निभाई। शक्ति प्रदर्शन की होड़ मची रही। पहले एक समुदाय ने ताकत दिखाई, फिर नंगला मंदौड़ में भीड़ उमड़ी। दोबारा हुई महापंचायत का अंत खून खराबे से हुआ।
मलिकपुरा के ममेरे भाइयों गौरव और सचिन तथा कवाल के शाहनवाज की मौत के बाद ऐसी हिंसा भड़केगी, किसी को अंदाजा नहीं था। सरकार का हर फैसला उलटा पड़ा। प्रशासन की तमाम कोशिशें धरी रह गईं।
नतीजतन, पूरे वेस्ट में दोनों समुदायों में जहर घुल गया। हिंसा की आग जिले से निकलकर आसपास के जनपदों तक पहुंच गई। शामली और बागपत के बामनौली में जो उपद्रव हुआ, उसके पीछे भी कवाल से पहुंची चिंगारी ही थी।
हुक्मरानों ने हकीकत को नहीं समझा और चूक होती गई।
27 अगस्त को कवाल की हिंसा के बाद रात में ही डीएम सुरेंद्र सिंह और एसएसपी मंजिल सैनी का तबादला घातक साबित हुआ। खास पहलू यह भी है कि सुरेंद्र सिंह जाट बिरादरी से ताल्लुक रखते हैं। कई मामलों को सुलझाने में वह इसी वजह से कामयाब हुए थे।
पंचायतों में भी डीएम को दोबारा बुलाने की मांगें उठी। भेजे गए नए डीएम कौशलराज शर्मा और एसएसपी सुभाषचंद दुबे को वेस्ट की आबोहवा का कोई तजुर्बा नहीं था।
यही वजह रही कि बीते 12 दिन में भी हालात दिन पर दिन बिगड़ते गए। सियासत ने चुनावी फायदे का चोला ओढ़ लिया। खालापार में जुमे की नमाज के बाद धारा 144 के बावजूद भीड़ उमड़ी।
डीएम और एसएसपी का वहां पहुंचकर ज्ञापन लेना भी नुकसानदेह रहा। इसी की प्रतिक्रिया में पुलिस की किलेबंदी के बावजूद नंगला मंदौड़ की पंचायत में भीड़ उमड़ी। अमन-चैन के लिए कोई आगे नहीं आया। प्रशासन की सर्वदलीय बैठक को भी जनप्रतिनिधियों ने नकार दिया।
लखनऊ में बैठे आकाओं डीजीपी, एडीजी और आईजी कानून व्यवस्था को भेजकर कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। समीक्षाएं होती रहीं, अफसर हालातों का जायजा लेकर लौट गए।
डीजीपी देवराज नागर शुक्रवार को खुद शहर में आए, लेकिन हालातों की गंभीरता नहीं भांप पाए। महापंचायत में डेढ़ लाख की भीड़ उमड़ी, लेकिन शाम होते-होते हिंसा ने पूरे जिले को अपनी चपेट में ले लिया।
न सियासतदार दिखे और ही पुलिस प्रशासन ताकत दिखा पाया। अंधेरा पसरता गया, लाशें बिछती गईं।
सरकार का हर कदम राजनीति के नफे-नुकसान पर टिका रहा। यही भूमिका राजनीतिज्ञों ने निभाई। शक्ति प्रदर्शन की होड़ मची रही। पहले एक समुदाय ने ताकत दिखाई, फिर नंगला मंदौड़ में भीड़ उमड़ी। दोबारा हुई महापंचायत का अंत खून खराबे से हुआ।
मलिकपुरा के ममेरे भाइयों गौरव और सचिन तथा कवाल के शाहनवाज की मौत के बाद ऐसी हिंसा भड़केगी, किसी को अंदाजा नहीं था। सरकार का हर फैसला उलटा पड़ा। प्रशासन की तमाम कोशिशें धरी रह गईं।
नतीजतन, पूरे वेस्ट में दोनों समुदायों में जहर घुल गया। हिंसा की आग जिले से निकलकर आसपास के जनपदों तक पहुंच गई। शामली और बागपत के बामनौली में जो उपद्रव हुआ, उसके पीछे भी कवाल से पहुंची चिंगारी ही थी।
हुक्मरानों ने हकीकत को नहीं समझा और चूक होती गई।
27 अगस्त को कवाल की हिंसा के बाद रात में ही डीएम सुरेंद्र सिंह और एसएसपी मंजिल सैनी का तबादला घातक साबित हुआ। खास पहलू यह भी है कि सुरेंद्र सिंह जाट बिरादरी से ताल्लुक रखते हैं। कई मामलों को सुलझाने में वह इसी वजह से कामयाब हुए थे।
पंचायतों में भी डीएम को दोबारा बुलाने की मांगें उठी। भेजे गए नए डीएम कौशलराज शर्मा और एसएसपी सुभाषचंद दुबे को वेस्ट की आबोहवा का कोई तजुर्बा नहीं था।
यही वजह रही कि बीते 12 दिन में भी हालात दिन पर दिन बिगड़ते गए। सियासत ने चुनावी फायदे का चोला ओढ़ लिया। खालापार में जुमे की नमाज के बाद धारा 144 के बावजूद भीड़ उमड़ी।
डीएम और एसएसपी का वहां पहुंचकर ज्ञापन लेना भी नुकसानदेह रहा। इसी की प्रतिक्रिया में पुलिस की किलेबंदी के बावजूद नंगला मंदौड़ की पंचायत में भीड़ उमड़ी। अमन-चैन के लिए कोई आगे नहीं आया। प्रशासन की सर्वदलीय बैठक को भी जनप्रतिनिधियों ने नकार दिया।
लखनऊ में बैठे आकाओं डीजीपी, एडीजी और आईजी कानून व्यवस्था को भेजकर कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। समीक्षाएं होती रहीं, अफसर हालातों का जायजा लेकर लौट गए।
डीजीपी देवराज नागर शुक्रवार को खुद शहर में आए, लेकिन हालातों की गंभीरता नहीं भांप पाए। महापंचायत में डेढ़ लाख की भीड़ उमड़ी, लेकिन शाम होते-होते हिंसा ने पूरे जिले को अपनी चपेट में ले लिया।
न सियासतदार दिखे और ही पुलिस प्रशासन ताकत दिखा पाया। अंधेरा पसरता गया, लाशें बिछती गईं।
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